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जातीय जनगणना : राष्ट्र के समावेशी विकास हेतु अपरिहार्य
19-Feb-2024 4:04 PM
जातीय जनगणना : राष्ट्र के समावेशी विकास हेतु अपरिहार्य

ई.प्रभात किशोर

भारतवर्ष में जाति आधारित जनगणना के लिए जनमानस की आवाज देश के विभिन्न कोनों में जोर पकड़ रही है।

जातीय जनगणना के अभाव में, सरकार समाज के पिछड़े और वंचित वर्गों के लिए अपनी समग्र विकासात्मक नीतियों और योजनाओं को तैयार करने हेतु 90 साल पुराने आंकड़ों पर निर्भर है। जाति और सामाजिक न्याय एक दूसरे के पूरक हैं और जातीय जनगणना सरकार को ‘जिसकी जितनी भागीदारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी’ के आदर्श संकल्प के साथ कल्याणकारी योजनाओं को लागू करने में सहायक सिद्ध होगी।

समाज के कमजोर वर्गों का समावेशी विकास किसी भी कल्याणकारी सरकार का संवैधानिक दायित्व और प्रतिबद्धता है। इसलिए, सामाजिक समानता के लिए जाति जनगणना महत्वपूर्ण है। समाज के एक छोटे से वर्ग का तर्क है कि इससे देश में विभिन्न समुदायों के बीच सामाजिक तनाव विकसित हो सकता है। मु_ी भर जातिवादी ताकतों का ऐसा काल्पनिक तर्क सामाजिक न्याय के साथ राष्ट्र के सर्वांगीण विकास के मार्ग में बाधा उत्पन्न कर रहा है। यदि धर्म आधारित और भाषा आधारित जनगणना समाज में विभाजन और वैमनस्य पैदा नहीं करती तो उनके दावे के अनुसार जातीय जनगणना समाज में मतभेद कैसे पैदा कर सकती है? वस्तुत: स्वतंत्रता प्राप्ति के पष्चात की जाने वाली विभिन्न जनगणनाओं को जाति-रहित नहीं कहा जा सकता, क्योंकि न केवल अनु. जाति और अनु. जनजाति की जातियां दर्ज की जा रही हैं, बल्कि धर्म आधारित जनगणना भी हो रही है। यह आमजन की समझ से परे है कि केंद्र अन्य पिछड़े वर्ग को समाहित कर पूरी तरह से जाति आधारित जनगणना करने से क्यों हिचकिचा रहा है।

जाति जनगणना का संदर्भ ऋग्वेद और कौटिल्य के अर्थशास्त्र में भी मिलता है। हालाँकि उस काल में जाति या वर्ग का वर्गीकरण इतना घिनौना नहीं था जितना आज देखा जा रहा है। भारत के महापंजीयक के द्वारा 1881 में ब्रिटिश शासन के तहत जातिवार गणना की शुरुआत की गई थी, जो 1931 तक अनवरत जारी रही। 1941 की जनगणना में भी, जाति-वार आंकड़े संग्रहित किए गए थे, लेकिन द्वितीय विश्व युद्ध के कारण इस अभ्यास में कटौती की गई थी और अंतिम आंकड़े प्रकाशित नहीं किये जा सके। 1951 में, जनगणना की प्रक्रिया में व्यापक परिवर्तन किये गये और अनु. जाति एवं अनु. जनजाति को छोडक़र अन्य जातियों का दस्तावेजीकरण बंद कर दिया गया। इस प्रकार 1931 की जनगणना, जिसमें आज के पाकिस्तान और बांग्ला देशी भूभाग भी शामिल थे, भारत में अंतिम जाति-आधारित जनगणना बन गई।

काका कालेलकर की अध्यक्षता वाले पहले पिछड़ा वर्ग आयोग ने वर्ष 1955 में समर्पित अपने प्रतिवेदन में 1961 की जनगणना में जनसंख्या की जाति-वार गणना करने की अनुशंसा की थी। दूसरा पिछड़ा वर्ग आयोग, यानी मंडल आयोग ने भी इस बात पर प्रकाश डाला है कि उनकी रिपोर्ट 1931 की जनगणना के आंकड़ों पर आधारित होने के कारण पर्याप्त नहीं है। इसलिए अगली, यानी 2001 की जनगणना जाति आधारित होनी चाहिए। आयोग के पास पिछली आधी सदी में विभिन्न समुदायों और धार्मिक समूहों की जनसंख्या वृद्धि दर को एकसमान मानने के अलावा कोई रास्ता नहीं था, जबकि यह यथार्थ से कोसों दूर था। 1951 और 2011 के जनगणना रिकॉर्ड से पता चलता है कि हिंदुओं की आबादी 84.1 प्रतिशत से घटकर 79.30 प्रतिशत हो गई है, जबकि मुस्लिमों की जनसंख्या 9.8 प्रतिशत से बढक़र 14.23 प्रतिशत हो गई है। इसी प्रकार अनु. जाति और अनु. जनजाति की जनसंख्या क्रमश: 14 प्रतिशत से बढक़र 16.63 प्रतिशत और 6.23 प्रतिशत से बढक़र 8.61 प्रतिशत हो गई है। जाहिर है, सभी समुदायों की एकसमान दशकीय वृद्धि की धारणा एक तमाशा भर है।

दिसंबर 1996 में एच. डी. देवेगौड़ा मंत्रिमंडल ने 2001 की जनगणना में जाति-वार गणना का निर्णय लिया था।

परन्तु 2001 में वाजपेयी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार ने तथाकथित जाति-पक्षपात की दलील पर निर्णय को रद्द कर दिया। जून 2010 में, यूपीए सरकार ने भी संसद के दोनों सदनों में चर्चा के बाद जाति जनगणना के लिए अपनी प्रतिबद्धता प्रकट की थी। लेकिन 2011 की मूल दशकीय जनगणना पंजी में हीं तत्संबंधी कॉलम जोडऩे के बजाय, एक अलग सामाजिक आर्थिक जाति जनगणना (एसईसीसी) शुरू की गई, जिसकी अंतिम रिपोर्ट न तो पूर्ण हुई और न हीं सार्वजनिक की गई। 31 अगस्त 2018 को, 2021 की जनगणना कार्य की प्रगति की समीक्षा के बाद, तत्कालीन गृह मंत्री ने पहली बार अन्य पिछड़े वर्ग का आंकड़ा भी संग्रहित करने का वादा किया था, लेकिन केन्द्र सरकार ने 2021 में लोकसभा में इससे इन्कार करते हुए यू-टर्न ले लिया।

जाति-आधारित पूर्ण जनगणना की मांग संसद में हर बार उठती रही है। प्राय: सभी राजनीतिक और सामाजिक संस्थायें इसके पक्ष में हैं। बिहार विधानसभा द्वारा 17 फरवरी 2019 और फिर 27 फरवरी 2020 को जातीय जनगणना हेतु सर्वसम्मति से प्रस्ताव पारित किया गया था। 8 जनवरी 2021 को महाराष्ट्र विधानसभा में भी ऐसा प्रस्ताव पारित किया गया है। पिछले साल ओडिशा आग्रह करने वाला तीसरा राज्य बन गया था। हाल में तेलंगाना ने राज्य में जातीय जनगणना का निर्णय लिया है । 2021 में सामान्य जनगणना के साथ सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों की गणना के लिए राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग ने भी केन्द्र सरकार से आग्रह किया है। लेकिन, चूंकि केंद्र सरकार ने प्रस्ताव को स्वीकार नहीं किया है, इसलिए विभिन्न राज्य सरकारों को बिहार एवं कर्नाटक की तर्ज पर अपने स्वयं के संसाधनों पर जातीय जनगणना हेतु पहल करनी चाहिए।

कर्नाटक उच्च न्यायालय और सुप्रीम कोर्ट ने कर्नाटक राज्य सरकार को राज्य की कुल जनसंख्या में एक विशेष जाति का नवीनतम प्रतिशत प्रदान करने का निर्देश दिया था, जब भी सरकार किसी विशेष जाति को आरक्षण की सुविधा प्रदान करने की योजना बना रही हो। इसलिए, राज्य सरकार ने राज्य में विभिन्न जातियों की वर्तमान स्थिति जानने के लिए जाति जनगणना कराने का निर्णय लिया। महाराष्ट्र राज्य पिछड़ा वर्ग आयोग ने राज्य सरकार द्वारा सामाजिक आर्थिक और जाति जनगणना की अनुशंसा की है।

जातीय जनगणना समय की आवश्यकता है, क्योंकि समाज के प्रत्येक वर्ग की सटीक जनसंख्या के बारे में विश्वसनीय और प्रामाणिक आंकड़ों की अनुपलब्धता, उनके बसाव और घनत्व का भौगोलिक क्षेत्र केंद्रित और परिणाम- विशिष्ट योजना सुनिश्चित करने में एक बड़ी चुनौती पेश कर रहा है। नवीनतम आँकड़े नीति-निर्माण और अनुसंधान के लिए आवश्यक तत्व हैं, क्योंकि यह नीति-निर्माताओं को लक्ष्य निर्धारित करने तथा नीतियों और कार्यों के योजना सूत्रण में सहायक होते है। जाति-वार जनसंख्या के नए मूल्यांकन के साथ, विभिन्न राज्यों में विभिन्न जातियों के आर्थिक अभाव के स्तर को निर्धारित किया जा सकता है और यह उन सभी के समान प्रतिनिधित्व को सुनिश्चित करने के लिए आरक्षण नीति को तैयार करने में सहायक होगा।

(लेखक एक अभियंता और शिक्षाविद हैं।)

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