विचार / लेख
घनाराम साहू
राज्य सरकार द्वारा गठित क्वांटिफिएबल डाटा कमीशन के रिपोर्ट के लीक होने का समाचार अखबारों में प्रकाशित होने के बाद जाति की राजनीति करने वाले कुछ लोगों में कोहराम मचा हुआ है ।
छत्तीसगढ़ में जातीय गणना का अभी तक तीन ऐतिहासिक प्रयास हुए हैं। इतिहास के विद्यार्थी जानते हैं कि सर्वप्रथम सन 1820 में रतनपुर राज्य के ब्रिटिश अधीक्षक कर्नल एग्न्यु ने परिवारों की गणना कराई थी तब रतनपुर राज्य में बस्तर और सरगुजा संभाग के क्षेत्र शामिल नहीं थे । तब की गणना के अनुसार राज्य में कुल 104063 परिवारों में से 9519 साहू परिवार थे अर्थात तब साहू समाज की आबादी 9.1त्न थी। इसके 110 वर्ष बाद ब्रिटिश सरकार ने अंतिम बार जातिगत जनगणना 1931 में कराया, तब वर्तमान छत्तीसगढ़ राज्य में कुल आबादी 6213443 थी जिसमें 582207 साहू थे यानी तब साहू समाज की आबादी 9.37त्न थी। इस गणना के 80 वर्ष बाद स्वतंत्र भारत में सन 2011 में जनगणना के साथ जातीय गणना भी कराई गई थी और उसके आंकड़े सार्वजनिक नहीं किए गए लेकिन कुछ प्रभावशाली संगठनों तक आंकड़े पहुंच गए थे। ईसाइयों के अंतरराष्ट्रीय संगठन जोशुआ प्रोजेक्ट के वेबसाइट के अनुसार राज्य में साहू समाज की आबादी लगभग 11त्न होना बताया गया था ।
छत्तीसगढ़ सरकार द्वारा सन् 2021 में आयोग गठित कर ओबीसी जातियों की आबादी की गणना कराई गई है जिसके अनुसार 29500000 में से लगभग 305000 साहू हैं यानी कुल आबादी के लगभग 12त्न और ओबीसी आबादी के 24त्न हैं। इस खबर से साहू सहित कुछ जातियों में उत्साह और कुछ में हताशा दिख रहा है । मैं इन आंकड़ों से न तो उत्साहित हूँ न ही हतोत्साहित क्योंकि प्रजा की संख्या चाहे जितनी हो जाए यदि वह बुद्धिमान नहीं है तो शासन-प्रशासन में अनुपातिक भागीदारी नहीं कर सकता है । मेरा मानना है कि स्वतंत्रता के 75 वर्ष बाद भी साहू समाज का नेतृत्व फिसड्डी सिद्ध हुआ है। जाति संगठन के ग्रुप में कभी सरकारी नीतियों यथा शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, कृषि इत्यादि पर चर्चा होते नहीं देखा हूं। हमारे सामाजिक नेता अपने सामाजिक दायित्वों को किनारे रखकर राजनीतिक पद-प्रतिष्ठा की प्राप्ति के लिए जोड़-तोड़ करते दिखते हैं । जिन्हें भी सामाजिक पद मिलते हैं वे सांसद/विधायक बनने तरह-तरह के खटकर्म करते हैं चाहे उसमें योग्यता हो या न हो।
अभी तक जितने नेताओं को विधायिका में अवसर मिला भी है उनका कार्य संतोषप्रद सिद्ध नहीं हुआ है। कुछ नेताओं ने तो अपने राजनीतिक आका को प्रसन्न करने समाज के हितों के विपरीत कार्य किए हैं। हमारा संगठन अभी स्वतंत्रता के उपरांत लोकतांत्रिक मूल्यों के अनुरूप कार्य न कर मध्ययुगीन सामंतवादी व्यवस्था को बनाए रखने के लिए थोपे गए सामाजिक नियमों के परिपालन में जुटा हुआ है।
मेरा मानना है कि जब तक समाज में उच्च शिक्षित योग्यताधारी लोग पदासीन नहीं होंगे तब तक किसी सामाजिक परिवर्तन की आशा रखना व्यर्थ है इसी तरह राजनीति में सक्षम, बौद्धिक संपन्न और समाज के प्रति सकारात्मक सोच वालों को विधायक/सांसद नहीं बनायेंगे तब तक समुचित राजनीतिक भागीदारी भी नहीं मिलेगी। इस प्रसंग में मैं गुजरात का उदाहरण देना उचित मानता हूं । गुजरात में तेली समूह की जाति मोध घांची जिनकी आबादी वहां 2त्न भी नहीं है से राष्ट्रपिता महात्मा गांधी और वर्तमान प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी निकले हैं यानी योग्यता हो तो अल्पसंख्यक भी प्रदेश और देश का नेतृत्व कर सकते हैं।