विचार / लेख

सुप्रीम फैसला-देर आयद दुरुस्त आयद
20-Feb-2024 1:58 PM
सुप्रीम फैसला-देर आयद दुरुस्त आयद

  राजशेखर चौबे

 पिछले दस वर्षों में तमाम गारंटियों  के बावजूद भी किसानों की आय दुगनी नहीं हो सकी परंतु विश्व के सबसे बड़े राजनीतिक दल की आय  जरूर दुगनी से भी अधिक हो गई है। भारतीय जनता पार्टी को 2014 से 2024  के बीच 6566 करोड़  रुपए चंदा मिला है जबकि 2004 से 2014 के बीच यह चंदा 3272 करोड़ रुपए था।  इसी दौरान सबसे पुराने राजनीतिक दल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की आय 3982 करोड़  रुपए ( 2004 से 2014  के बीच ) से घटकर 1123 करोड़  रुपए (2014 से 2024 के बीच ) रह गई है। सत्ता  का सीधा संबंध उस  दल को मिलने वाले करपोरेटीय  चंदा से होता है। वैसे भोले भाले लोग इससे इत्तफ़ाक  नहीं रखते होंगे। फरवरी 2017 के दिनों  को याद कीजिए जब पारदर्शिता  की थोड़ी-बहुत गारंटी होती थी। उन दिनों राजनीतिक दलों को चेक के जरिए चंदा प्राप्त होता था और उन्हें इसकी पूरी जानकारी देनी होती थी। राजनीतिक दल चुनाव आयोग को चंदा देने वालों के नाम और प्राप्त राशि की जानकारी देते थे।  केंद्र सरकार द्वारा वित्त अधिनियम 2017 द्वारा इलेक्टोरल बांड लाया गया था।

इसके अंतर्गत व्यक्ति, संस्था या कारपोरेट  एक करोड़ से ऊपर के मूल्य वर्ग में इलेक्टोरल बांड के रूप में सियासी दलों को चंदा दे सकते थे।  उनके नाम गोपनीय रखे जाने थे ।  इस काम के लिए स्टेट बैंक ऑफ़ इंडिया को अधिकृत किया गया था।  इस बिल को मनी बिल के रूप में पास कराया गया। इसके लिए आर बी आई एक्ट, जनप्रतिनिधित्व  कानून और आयकर कानून में संशोधन किए गए थे। राजनीतिक फंडिंग में पारदर्शिता का दावा कर इस अपारदर्शी  इलेक्टोरल बांड की घोषणा की गई  थी। इस कानून की पारदर्शिता यही थी  कि चंदा देने वालों के नाम और पहचान गुप्त रखे जाने थे। इस कानून को लोकतंत्र के रक्षकों  ने उच्चतम न्यायालय में चुनौती दी थी।

लोकसभा चुनाव के ठीक पहले सुप्रीम कोर्ट ने अपने ऐतिहासिक फैसले में 2018 में लाई गई इलेक्टोरल बांड योजना को असंवैधानिक बताकर तत्काल प्रभाव से रद्द कर दिया है । संविधान पीठ ने आदेश दिया है कि इस बांड को खरीदने वाले इसे भुनाने  वालों और इससे मिली राशि को 13 मार्च 2024 तक सार्वजनिक किया जाए ।  सुप्रीम कोर्ट ने स्टेट बैंक आफ इंडिया को आदेश दिया है कि वह 12 अप्रैल 2019 से अब तक बिके इलेक्टोरल बांड की पूरी जानकारी निर्वाचन आयोग को दे । सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश माननीय डी वाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली पांच जजों की संवैधानिक पीठ ने कहा है कि यह कानून संविधान के अनुच्छेद 19 (1ए ) के तहत अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और सूचना के अधिकार के संवैधानिक अधिकार का उल्लंघन है । कोर्ट ने कहा कि इलेक्टोरल बांड से मिलने वाले चंदे की जानकारी सार्वजनिक होनी चाहिए। इन बांड  से यह  पता नहीं चलता कि चंदा कौन दे रहा है। अपने इस अहम  निर्णय में सुप्रीम कोर्ट ने कहा- यह भी पता नहीं चलता कि क्या कॉर्पोरेट किसी खास नीति के समर्थन में चंदा दे रहे हैं। माननीय मुख्य न्यायाधीश ने अपने फैसले में कहा कि लोकतंत्र में सभी नागरिकों के समान अधिकार हैं। इसी तरह न्यायाधीश संजीव खन्ना ने अपने फैसले में कहा कि लोकतंत्र में मतदाता के जानने का अधिकार दानदाता की गोपनीयता से अधिक महत्वपूर्ण है।  कॉर्पोरेट दानदाताओं और सियासी फायदा पाने वालों के पारस्परिक लाभ की व्यवस्था एक तरह की मनी लॉन्ड्रिंग है ( आप भी जानते हैं कि इस मनी लॉन्ड्रिंग पर ई डी  भी कुछ करने में असमर्थ है )। उन्होंने आगे कहा कि सियासी दलों को मिलने वाले फंड में गोपनीयता नहीं पारदर्शिता जरूरी है।  कोर्ट ने केंद्र सरकार के इस तर्क  को भी नहीं माना कि यह योजना राजनीतिक फंडिंग में पारदर्शिता और काले धन पर अंकुश के लिए लाई गई थी।  इस बिल के तहत आर बी आई एक्ट जनप्रतिनिधित्व  कानून और आयकर कानून में किए गए संशोधनों को भी कोर्ट ने रद्द कर दिया है।

इस कानून के पक्ष में केंद्र सरकार की केवल दो दलील है- पारदर्शिता व  काले धन पर अंकुश और दानदाता की गोपनीयता। इस कानून को पारदर्शी बताना हास्यास्पद  है क्योंकि इसमें दानदाता का नाम गुप्त  है। पारदर्शी कानून द्वारा ही काले धन पर अंकुश लगाया जा सकता है। इसके अंतर्गत घाटे में रहने वाली कंपनी भी इलेक्टोरल बांड के जरिए राजनीतिक दलों को दान कर सकती है। लोकतंत्र में मतदाता के जानने का अधिकार दानदाता की गोपनीयता से अधिक महत्वपूर्ण है-  यह बात सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में स्पष्ट तौर पर कही है। इस बात पर कॉरपोरेट और नेताओं को छोडक़र सभी सहमत होंगे। केंद्र सरकार ने इस कानून को चुनावी रिफॉर्म करार  दिया था।  यह देश को लोकतंत्र से दूर ले जाने वाला कानून साबित हुआ।

गोपनीय दानदाताओं की पूरी सूची एस बी आई तथा अन्य केंद्रीय एजेंसियों  के लिए गोपनीय नहीं होती। स्वाभाविक रूप से शासन को भी इसकी जानकारी होती होगी। यह गोपनीयता किसके लिए है यह बात जग जाहिर है । कॉर्पोरेट जो भी काम करते हैं अपने फायदे के लिए ही करते हैं ।  राजनीतिक दलों को चंदा देने का उद्देश्य हम सब जानते हैं । इस मामले में ह्नह्वद्बस्र श्चह्म्श ह्नह्वश यानी प्रतिदान से इंकार नहीं किया जा सकता ।

इस बात में कोई संदेह नहीं है कि राजनीतिक दलों को चुनाव लडऩे व अन्य कार्यों के लिए पैसे की जरूरत होती है ।  इस फंड के लिए राजनीतिक दलों को कई अनैतिक व अवैध कार्य भी करने पड़ते हैं। इसे रोकने के लिए उनके लिए फंड की व्यवस्था जरूरी है एक ऐसा कानून बनाया जा सकता है कि कारपोरेट और अमीर लोग सीधे चुनाव आयोग को चंदा दें और उसका बंटवारा उनके सांसद और विधायिका में प्रतिनिधित्व के समानुपातिक हो (वैसे सत्तारूढ़  दल को लगभग उसके प्रतिनिधित्व के अनुपात में ही चंदा मिला है)।

 दानदाताओं के नाम भी सार्वजनिक किए जाने चाहिए ताकि पारदर्शिता बना बनी रहे  । ऐसा करने से  ह्नह्वद्बस्र श्चह्म्श ह्नह्वश  यानी प्रतिदान की संभावना भी कम हो जाएगी क्योंकि चंदा किसी एक दल को नहीं चुनाव आयोग को दिया जाएगा।

 सुप्रीम कोर्ट के संविधान पीठ का यह ऐतिहासिक निर्णय लोकसभा चुनाव के थोड़ा पहले आया है। इस  निर्णय को टालने, रोकने और रद्द करने के प्रयास जरूर किए जाएंगे। सुप्रीम कोर्ट और देश की जनता को भी  जागरूक रहने की जरूरत है।  भविष्य में क्या होगा यह तो आने वाला वक्त ही बताएगा। इस ऐतिहासिक निर्णय के लिए देश के सर्वोच्च न्यायालय और माननीय न्यायाधीशों को साधुवाद। इलेक्टोरल बांड पर इस निर्णय को मैं जस्टिस डिलेड जस्टिस डिनाइड न कह कर देर आयद दुरुस्त आयद जरूर कहूंगा।

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