संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : सत्ता की गुलामी ही करनी है तो फिर म्युनिसिपल के चुनाव क्यों करवाए जाएं?
25-Feb-2024 3:13 PM
‘छत्तीसगढ़’ का  संपादकीय :  सत्ता की गुलामी ही करनी है तो फिर म्युनिसिपल के चुनाव क्यों करवाए जाएं?

किसी प्रदेश में सरकार बदलने से पिछली सरकार के वक्त के कामकाज अगर खुर्दबीन तले आते हैं, तो उससे लोकतंत्र का भला ही होता है। राजनीति में जो लोग अपने भ्रष्टाचार को छुपाना चाहते हैं, वे किसी दूसरी पार्टी की सरकार की कार्रवाई को विच-हंटिंग करार देते हुए उसे बदनीयत की बुरी बात साबित करने लगते हैं। लेकिन हकीकत यह है कि सत्तारूढ़ पार्टी बदलने से पिछली सरकार के भ्रष्टाचार की जांच मुमकिन हो पाती है। और इन दिनों छत्तीसगढ़ में ऐसा ही देखने मिल रहा है। किस तरह राज्य सरकार की बंधुआ मजदूर सरीखी राजधानी की म्युनिसिपल विभागीय मंत्री की चाकरी में लगी रहती है, यह देखना भी हक्का-बक्का करता है। राजधानी रायपुर में म्युनिसिपल-मंत्री रहे शिव डहरिया के रिहायशी इलाके में सामुदायिक भवन पर उनकी बीवी ने अपने एक तथाकथित समाजसेवी संगठन के नाम पर कब्जा कर लिया, और उसके बाद जिस अंदाज में म्युनिसिपल ने वह सामुदायिक भवन इस संगठन को न सिर्फ आबंटित कर दिया, बल्कि इस पर करोड़ों रूपए खर्च भी कर दिए। अब जब इसका भांडा फूटा है, तो पता लग रहा है कि मंत्री-पत्नी के कब्जे के दो बरस बाद म्युनिसिपल ने इसे आबंटित करने का प्रस्ताव पास किया। इस तरह यह भी साबित होता है कि जिन स्थानीय संस्थाओं को अलग से अधिकार मिलते हैं, वे भी राज्य शासन से सैकड़ों करोड़ रूपए पाने के लिए मंत्री-मुख्यमंत्री की मर्जी से कुछ भी करने को तैयार रहती हैं। यह मामला इसलिए भयानक है कि एक निजी संगठन के कब्जे के बाद म्युनिसिपल ने वहां पर क्या-क्या खर्च नहीं किया। और जो भवन समाज के काम आना था, वह इस तरह लोगों के उपयोग के बाहर कर दिया गया। भूतपूर्व मंत्री शिव डहरिया ने अपना बंगला खाली करते हुए वहां के सामानों को जिस तरह उखाडक़र अपना बताकर ले जाने का काम किया था, उससे भी सरकारी संपत्ति की ढेर बर्बादी हुई थी। सामान हो सकता है उनका खुद का हो, लेकिन सरकारी बंगले को तोडफ़ोड़ करके उस सामान को निकालने का उनको क्या हक था? और चाहे कोई भी मंत्री या अफसर रहे, उन्हें सरकारी संपत्ति से खिलवाड़ करने पर जुर्माने और सजा के लिए तैयार भी रहना चाहिए। 

हमारे नियमित पाठकों को याद होगा कि हमने कई बार इस बात को लिखा है कि मंत्रियों और बड़े अफसरों के बंगलों पर उनके विभागों की तरफ से, या किसी ठेकेदार या सप्लायर की तरफ से बहुत से निर्माण कराए जाते हैं, जो कि सरकारी रिकॉर्ड में नहीं रहते। हो सकता है कि सरकारी फाइलें किसी दूसरी जगह वह खर्च बताएं, लेकिन ऐसे बहुत से खर्च होते बंगलों पर हैं। सरकारी की मंजूरी से परे के कोई भी खर्च किसी सरकारी संपत्ति पर कैसे करवाए जा सकते? और हक्का-बक्का करने वाली बात यह है कि मंत्री और अफसर बंगलों पर करवाए गए ऐसे अवैध निर्माण को अपना योगदान गिनाते हैं, और बताते हैं कि वे जहां-जहां रहे, हर बंगले में कुछ न कुछ जोडक़र निकले। सरकार अगर एक ऑडिट करा ले कि बंगले का मूल ढांचा क्या था, और बाद में वहां जुडऩे वाले काम किस मद से कराए गए, तो शायद यह समझ आएगा कि जादू या चमत्कार से बिना घोषित सरकारी खर्च के ये सब काम हुए हैं। यह सिलसिला सरकार में पूरी तरह से मंजूर हो चुके भ्रष्टाचार का एक तौर-तरीका है, और इसका बोझ कुल मिलाकर जनता पर ही पड़ता है। कुछ अफसरों का हाल तो यह है कि उन्होंने राजधानी के पास भिलाई में भिलाई स्टील प्लांट से बंगले ले लिए हैं, क्योंकि वहां स्कूल-कॉलेज बेहतर हैं। और बीएसपी से अस्थाई रूप से आबंटित ऐसे बंगलों में भी उन्होंने करोड़ों के काम करवाए हैं, जो कि जाहिर तौर पर किसी न किसी तरह के भ्रष्टाचार का ही नतीजा हैं। 

भारत और इसके प्रदेशों में इस किस्म की सरकारी बर्बादी, और सार्वजनिक जगहों का बेजा इस्तेमाल सत्ता अपना विशेषाधिकार मानकर चलती है। सरकारी भवनों को कितनी आसानी से लोग अपनी संस्था या अपने कारोबार के लिए आबंटित करवा लेते हैं, और फिर उस पर सरकार का ही खर्च करवाते रहते हैं, यह देखना भयानक है। हमारा ख्याल है कि नगरीय प्रशासन मंत्री रहे शिव डहरिया की पत्नी को जिस तरह से एक सरकारी संपत्ति देने के बाद भी उस पर लगातार म्युनिसिपल की मोटी रकमें खर्च हुई हैं, उसके खिलाफ आर्थिक अपराध का जुर्म दर्ज होना चाहिए, और मंत्री से सपत्नीक उसकी वसूली भी होनी चाहिए, और इस पूरे मामले में जितने अफसर शामिल हैं, उनके खिलाफ भी मुकदमा चलना चाहिए। राजनीतिक शिष्टाचार के नाम पर पिछली सरकारों के जुर्म माफ कर देने का हक किसी भी अगली सरकार को नहीं रहता। नई सत्तारूढ़ पार्टी चाहे तो अपने पार्टी संगठन से किसी को कुछ भी दे दे, लेकिन सरकार को नुकसान पहुंचाने वाले, भ्रष्टाचार करने वाले, जनता के हक छीनने वाले काम माफ कर देने का हक किसी सरकार को नहीं रहता। ऐसा होते दिखे तो किसी जनसंगठन को अदालत तक जाना चाहिए, और वहां की दखल से जुर्म दर्ज करवाना चाहिए। सरकारी खजाने की शक्ल में जनता का जो पैसा रहता है, उसके बेजा इस्तेमाल के खिलाफ कार्रवाई करवाने का हक जनता को रहना चाहिए। 

आज सुबह से छत्तीसगढ़ में शराब घोटाले से जुड़े हुए छापे पड़ रहे हैं। राज्य की आर्थिक अपराध जांच एजेंसी यह कार्रवाई ईडी की लिखवाई गई एक एफआईआर के आधार पर कर रही है। इसमें पिछले पांच बरस प्रदेश में सबसे ताकतवर रहे कई अफसरों और शराब कारखानेदारों की भी जांच शुरू हुई है। इनमें से पिछले एक मुख्य सचिव तो राज्य बनने के बाद से आज तक लगातार सिर्फ ताकत की कुर्सियों पर रहे हैं, और उनके खिलाफ अगर ईडी, आईटी ने जांच में गलत काम पाए हैं, तो यह अंदाज लगाना आसान है कि सत्ता के अपने दो दशक में ऐसे अफसरों ने क्या नहीं किया होगा? कोई भी नई सरकार संविधान की शपथ लेकर काम संभालती है। हमारा ख्याल है कि कोई भी आर्थिक अपराध, भ्रष्टाचार, या दूसरे किस्म का जुर्म सामने आने पर सरकार को उस पर अनिवार्य रूप से कार्रवाई करनी चाहिए, वरना यह संविधान की शपथ के खिलाफ काम होगा। देश के कुछ राज्य लगभग परंपरागत रूप से हर पांच बरस में सत्ता पलट देते हैं, और ऐसे में पिछली सरकारों के जुर्म उजागर होने, उस पर कार्रवाई होने की संभावना बढ़ भी जाती है। अगर जनता ही इतनी जागरूक हो जाए कि सत्ता के भ्रष्टाचार देखते हुए भ्रष्ट कार्यकाल के बाद सत्तारूढ़ पार्टी को हटा ही दे, तो भी भ्रष्टाचार की जड़ें इतनी मजबूती से नहीं जम पाएंगी, जैसी कि वे दस-पन्द्रह बरसों के शासनकाल में जम जाती हैं। देश में प्रशासनिक अधिकारी तैयार करने वाली मसूरी प्रशासन अकादमी को भी चाहिए कि वह कई राज्यों के ऐसे कामकाज का अध्ययन करवाकर उन्हें मिसाल की तौर पर प्रशिक्षणार्थी अफसरों को पढ़ाए, कि काम कैसे-कैसे नहीं होना चाहिए।  (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक) 

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