विचार / लेख

गोतियारिन
27-Feb-2024 10:13 PM
गोतियारिन

-स्मिता
बिरिंदा से मेरी मुलाकात बहुत भीड़ भाड़ और हलचल के बीच हुई थी। एक स्त्री का दूसरी स्त्री से मिलना बहुत सहज घटना है लेकिन एक प्रेमिल संबंध का बन जाना उस मुलाकात को थोड़ा सा विशिष्ट जरूर बना जाता है।

गीत चतुर्वेदी की एक किताब के टर्म में पोएटिक ऑफ फैमिलियराइजेशन या पॉलिटिक्स ऑफ फैमिलियराइजेशन का उल्लेख आता है । जिसका अर्थ होता है किसी जानी पहचानी सी बात को इस तरह से पेश किया जाए कि वह एकदम अनजानी सी लगे। 

तो यह मुलाकात भी बिलकुल इस तरह से चलती है जैसे बहुत अनोखी , अनजान सी डगर में अस्पर्शी हैं।

हम बातों बातों में आपस में गोतियारिन बन गए थे। बिरिंदा ने भरी महफिल के बीच में मेरा हाथ पकड़ा और अपने साथ ले गईं। उनकी परंपरा के अनुसार हमें साथ खाना खाकर अपना धर्म निभाहना था।

मुझे उसका हाथ उतना ही पाक और सुंदर लगा जैसे मैंने 10 दिन पहले ही उत्तराखंड के एक कस्बे सहसपुर में देखा था। वह परदानशीन नवविवाहिता थी जो अपना बुरका चेहरे से थोड़ा सा हटा कर एक दुकान में आती है और बड़े इत्मीनान से उखडू बैठकर अपने हाथों से सड़ी पहाड़ी आलू वाली टोकनी से अच्छे अच्छे आलू चुनती है।

उसकी खूबसूरत आंखें और हाथ तो कम से कम इस काम के लिए नहीं बने थे लेकिन वह अपने राशन के लिए दिए महीने के पैसे से कुछ बचाना चाहती हो। शायद उसकी जुगनू सी चमकती आंखें बचे हुए रेजगारी के पैसे से अपने मियां के लिए इत्र या गुलाब के फूल खरीदने के लिए खरचना चाह रही थी।

बिरिंदा भी उसी औरत की तरह अपने और मेरे कांटो से भरे जीवन में कुछ जंगली बुरांश के फूल टांक देना चाहती थी ।

हम साथ में गरम भात के साथ आलू के करारे भुजिया खा रहे थे। जिसका करारापन गोवा के कतली मछली के रवा फिश सा था।

मयाली पहाड़ के नीचे की झील उसका स्थाई ठिकाना है । और उसकी पास के बने पहाड़ में बसे खडसा गांव में उसका घर। वह मुझे अपने गांव और घर ले जाने को उत्सुक है।

मैं उसकी आंखों में देखते हुए उसकी जिंदगी की कहानी में घुस जाती हूं। पति, बेटा बहु से इतर उसका घर संसार यहां के पानी, नदियों, जंगल और पहाड़ों में है। 

उसका प्रेम स्थिर और नि:शब्द है हमारे बीच पसरे हुए मौन में भी उसके खुरदुरे हाथ का दबाव अपनी उष्णता के साथ बना हुआ है। जिसने बाहर की दुनिया नहीं देखी है मानो मेरी आंखों के माध्यम से ही सारे संसार की थाह लेना चाहती हैं।

उसके बच्चे आए हुए मेहमानों के प्लास्टिक के बोतल और पॉलिथीन उठाते हैं। मैं उसके एवज में पैसे देना चाहती हूं। लेकिन गोतियारो से पैसे नहीं लिया जाता है । सिर्फ प्रेम दिया जाता है।

मैं उसके गांव जाकर सरई पेड़ों से रिसते झांझ का पानी पीना चाहती हूं। दुबारा अपने मिलने के उस वायदे को पूरा करना चाहती हूं। जब गर्मी के किसी दिन वह सरला पेड़ के पत्ते तोड़ कर लाएगी, उसे उबालकर और सुखाकर मेरे लिए डूबू भात पकाएगी।

उसके गीत अब भी मेरे कानों में रस घोल रहें है। उसकी भात के पसिया की महक और उससे निकलता धुंआ उस परदानशीन के इत्र की महक में घुलमिल जाता है।

सारे संसार की स्त्रियों का प्रेम उस जंगली ठोढ़ीन के प्रेम की तरह निर्दोष है। गांव के लोग बिरिंदा को ठोढ़ी गांव के मायके होने के कारण कभी कभी इस नाम से भी पुकारते है । जैसे मुझे मयालीन कहा जाता है।

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