संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : प्रतिबद्ध आत्माओं के परकाया प्रवेश का दौर
28-Feb-2024 3:26 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : प्रतिबद्ध आत्माओं के परकाया प्रवेश का दौर

कार्टूनिस्ट आलोक निरंतर, सकाल मीडिया ग्रुप

राज्यसभा के चुनावों में कई जगहों पर कांग्रेस विधायकों ने भाजपा उम्मीदवारों के लिए वोट डाले। उत्तरप्रदेश में समाजवादी पार्टी के आधा दर्जन से अधिक विधायक भाजपा की तरफ गए। दूसरी तरफ कर्नाटक में भाजपा के एक विधायक ने सत्तारूढ़ कांग्रेस के समर्थन में क्रॉस वोटिंग की, और एक विधायक ने वोट नहीं डाला। इसके साथ-साथ पिछले दिनों झारखंड में सत्तारूढ़ गठबंधन में शामिल कांग्रेस के विधायकों ने बगावती तेवर दिखाए थे, और उन्हें शांत करने के लिए दिल्ली भी बुलाया गया था। अभी सुनाई पड़ रहा है कि हिमाचल में राज्यसभा चुनाव के मतदान से आधा दर्जन कांग्रेस विधायक गायब थे, और वहां पर मौजूदा कांग्रेस मुख्यमंत्री को बदलने की मांग भी हो रही है। कुल मिलाकर देश में गिने-चुने राज्यों में सरकार चला रही, या गठबंधन में भागीदार कांग्रेस पार्टी में बड़े पैमाने पर फूट पड़ रही है, या बगावत हो रही है। और जहां जिस पार्टी में कोई बगावत हो रही है, विधायक या सांसद धोखा दे रहे हैं, पूरी जिंदगी कांग्रेसी कटोरे से मलाई चाटने वाले आज पार्टी को लात मारकर बाहर जा रहे हैं, तो वे सबके सब सिर्फ भाजपा की तरफ जा रहे हैं। यह बात जाहिर है कि इन तमाम लोगों को देश में भाजपा का, और भाजपा में ही अपना भविष्य दिख रहा है। हो सकता है कि इनमें से कई लोग ईडी या आईटी, या सीबीआई और राज्य की भाजपा सरकार की जांच से घिरे हुए हों, लेकिन उससे परे के लोग भी रहस्यमय वजहों से कांग्रेस में काया छोड़ अपनी आत्मा संग कहीं और मंडराते दिख रहे हैं, और फिर बाद में उस नश्वर काया को भी उठाकर ले जा रहे हैं। 

भाजपा के सिद्धांतों के खासे खिलाफ रहने वाले दल, कांग्रेस और समाजवादी पार्टी के लोग, एनसीपी, और राजद के लोग जब भाजपा जाते हैं, तो एक बात साफ हो जाती है कि भारतीय राजनीति में, खासकर चुनावी, और सत्ता-संभावनाओं के खेल में सिद्धांतों का बोझ ढोना अब खत्म हो गया है। अब लोग पुराने वक्त की तरह पेटी-बिस्तरा उठाकर सफर नहीं करते, अब छोटे से, और वह भी पहियों वाले, सूटकेस को लेकर हवाई सफर का वक्त आ चुका है। और सहूलियत का ऐसा फैशन सबसे पहले राजनीति में ही शुरू होता है। आज अंतरात्मा की आवाज मानो सत्ता के ब्लूटूथ से नियंत्रित हो रही है, और लोग हवा के झोंकों की तरह कहीं भी आ-जा रहे हैं। भारतीय राजनीति में यह एक बिल्कुल ही अनोखा दौर है जिसमें अपने बेहतर भविष्य की संभावना, या अपने खतरनाक भविष्य की आशंका को देखते हुए लोग पल भर में फैसले ले रहे हैं। जिस तरह किसी ब्यूटी पार्लर में वैक्सिंग की पट्टी चमड़ी से रोओं को पल भर में अलग कर देती है, उसी तरह आज लोग पार्टी-प्रतिबद्धता से पल भर में अलग हो जा रहे हैं। यह भारतीय राजनीति का वैक्सिंग-काल चल रहा है, और वैक्सिंग का यह काम धीरे-धीरे नहीं होता है, एक झटके से होता है। एक झटके से दूसरी-तीसरी पीढ़ी के कांग्रेसी, जिनके बाप-दादा भी इस पार्टी की सहूलियतों के साथ पीढ़ी-दर-पीढ़ी बड़े हुए थे, उनकी दौलत की विरासत थामे हुए, और राजनीतिक विरासत को छिटकते हुए लोग कांग्रेस को छोड़ रहे हैं। यह रफ्तार इतनी अधिक है कि देश को कांग्रेसमुक्त करने के संकल्प वाली भाजपा आज खुद बहुत हद तक कांग्रेसयुक्त हो गई है, और उसके अपने पुराने निष्ठावान लोग कई जगहों पर कल कांग्रेस से भाजपा में आए लोगों के कार्यक्रमों में दरी बिछा रहे हैं। 

भारतीय राजनीति का यह दौर कुछ लोगों को निराश कर सकता है, लेकिन सत्ता पर काबिज और उसके आदी हो चुके नेताओं को अगर देखें तो उनकी आत्मा का परकाया प्रवेश उसी रफ्तार से होता है, जिस रफ्तार से सत्तारूढ़ पार्टी का विस्तार हो रहा है, वह मजबूत हो रही है, और उसका अश्वमेध यज्ञ का घोड़ा ध्वज लिए हुए जितनी दूर तक जा रहा है। ऐसी राजनीति के अंगने में सिद्धांत, नैतिकता, पीढिय़ों के अहसान की जगह भी कहां है? और ऐसा भी नहीं है कि दूसरी बहुत सी पार्टियां ऐसे ही किस्म के दल-बदल से परहेज करते आई हों। जिसकी गांठ में जितने नोट लिपटे होते हैं, वे राजनीति की मंडी में उतनी ही खरीददारी कर पाते हैं, आज कई किस्म की करेंसी, और कई किस्म के हथियार भाजपा के पास हैं, इसलिए वह भारतीय लोकतंत्र की सबसे बड़ी खरीददार है। ऐसा भी नहीं कि दूसरी पार्टियों का बस चले तो वे इस ग्रेट इंडियन शॉपिंग फेस्टिवल से कोई परहेज करें। 

अब यह तो भारतीय राजनीति के लोगों के सोचने की बात है कि सिद्धांतों पर कितना दांव लगाया जाए? जब मतदाताओं के एक बहुत बड़े, शायद सबसे बड़े हिस्से से नैतिकता और सिद्धांतों की संवेदनशीलता और समझ खत्म हो चुकी हैं, तो फिर इस बोझ को लादे हुए कोई चुनाव प्रचार क्यों करे? राजनीति में कामयाबी और सत्ता की ताकत ही सब कुछ है। इसी से तमाम पुराने जुर्म और कुकर्म ढोए जा सकते हैं, इसी मौके पर समझदारी न दिखाने से लोगों के इतिहास की कब्र फाडक़र उनके दफन-जुर्म निकल भी सकते हैं। ऐसे में हर नए दल-बदल के साथ दल-बदल शब्द की गंदगी धुलती चली जा रही है। अब दल-बदल अछूत या बुरा शब्द नहीं रह गया है, अब वह उसी तरह एक जीवनशैली बन गया है, जिस तरह कई बड़े अदालती मामलों में हिन्दुत्व को एक जीवनशैली साबित किया जाता है, कि वह धर्म नहीं है, जीवनशैली है, वे ऑफ लाईफ है। 

भारतीय राजनीति तमाम किस्म की नैतिकता, और परंपराओं के बोझ से मुक्त अब उन्मुक्त नृत्य कर रही है, जो कि कुली की तरह लदे बोझ के साथ मुमकिन नहीं था। भारत की बाकी तमाम पार्टियों को यह समझना होगा कि बाजार और कारोबार के जो नियम रहते हैं कि पैसा पैसे को खींचता है, कुछ वैसे ही नियम अब भारतीय राजनीति के हो गए हैं कि ताकत ताकत को खींचती है। जिस तरह बड़े शहरों में एक अकेले खंभे पर बहुत बड़े-बड़े होर्डिंग लगे रहते हैं, और जिन्हें यूनीपोल कहा जाता है, भारतीय राजनीति अब वैसी ही यूनीपोलर होते दिख रही है, और भाजपा बहुत हद तक अकेली पार्टी बनने की राह पर बढ़ रही है। वैसे तो राजनीति में बहुत से ऐसे पल आते हैं जब उसके मुद्दे रातों-रात बदल जाते हैं, लेकिन फिलहाल तो सिर्फ भाजपा विरोधी रहे नेताओं की अंतरात्मा की आवाज ही बदल रही है। यह सिलसिला तब तक थमते नहीं दिखता है, जब तक भाजपा की जीत का सफर धीमा न पड़े, और आज ऐसे कोई आसार दिख नहीं रहे हैं। लोग अब कौमार्य खोने से अधिक आसानी से आत्मा खो रहे हैं, और आने वाले दिन और अधिक उत्तेजक रहने का आसार दिख रहा है।   

 (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक) 

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