संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : ...जात और धरम के भरम में डूबा देश कितना बढ़ेगा आगे?
08-Mar-2024 6:20 PM
 ‘छत्तीसगढ़’ का  संपादकीय :   ...जात और धरम के भरम में  डूबा देश कितना बढ़ेगा आगे?

दिल्ली के एक चर्चित अंकित सक्सेना हत्याकांड में अदालत ने तीन कातिलों को उम्रकैद सुनाई है। अंकित की एक मुस्लिम लडक़ी से मोहब्बत थी, और उसी वजह से पास ही रहने वाले इस मुस्लिम परिवार के दो मर्दों और एक औरत ने खुली सडक़ पर अंकित को चाकुओं से गोदकर मार डाला था। दोनों परिवारों में पहचान थी, और अलग-अलग धर्म का होना ही सबसे बड़ा मुद्दा था। हिन्दुस्तान में धर्म तो बड़ा मुद्दा है ही, जात के बाहर शादी करना भी मरने-मारने की वजह बन जाता है, और समाज में बहुत से ऐसे लोग हैं जो कि ऑनर-किलिंग के नाम पर विजातीय प्रेमविवाह करने वाले अपने बच्चों को मार डालते हैं। उन्हें अपनी जाति के भीतर एक तथाकथित स्वाभिमान की फिक्र अधिक रहती है, और जात-धरम के बाहर की शादी उन्हें अपने खानदान पर कलंक की तरह लगती है। हिन्दुस्तान में आज हिन्दू लड़कियों के मुस्लिम लडक़ों से शादी करने पर उसे लव-जिहाद कहते हुए उसके खिलाफ एक साम्प्रदायिक माहौल बना हुआ है, और जिस देश में जिस काल में बहुसंख्यक वर्ग में साम्प्रदायिक सोच आ जाती है, उस देश में उस दौर में अल्पसंख्यक तबके भी वैसी ही सोच के शिकार हो जाते हैं। यह क्रिया की प्रतिक्रिया का मामला रहता है। 

हम किसी एक जात या धरम की वकालत किए बिना देश के माहौल की बात करना चाहते हैं कि आधुनिकीकरण, शहरीकरण, आर्थिक विकास, नौजवान पीढ़ी की आत्मनिर्भरता, और बढ़ती हुई शिक्षा के साथ-साथ समाज की जिंदगी में जिन बातों की अहमियत बढऩी चाहिए थी, वह दिखाई नहीं देती है। आज भी जातियों के संगठन लोगों की जिंदगी का रूख तय करते दिखते हैं, और उन संगठनों के दबाव में परिवार भी अपने बच्चों को अकेला छोड़ देने को मजबूर हो जाते हैं। छत्तीसगढ़ जैसे प्रदेश में ओबीसी की कुछ जातियों में जाति संगठन इतने मजबूत और ताकतवर हैं कि किसी भी विजातीय शादी के खिलाफ वे संबंधित परिवार का इतना मजबूत सामाजिक बहिष्कार करते हैं कि बहुत से लोगों का हौसला टूट जाता है, वे लाखों रूपए का जुर्माना पटाकर, माफी मांगकर, जात में शामिल होने की कोशिश करते हैं। आज शहरीकरण के साथ-साथ जाति संगठन की प्रासंगिकता खत्म हो जानी चाहिए थी, लेकिन बहुत संपन्न, शिक्षित, और शहरी लोग भी अपनी जाति संगठन के गुलामों की तरह रह जाते हैं। धर्म का मामला भी ऐसा ही है। कई जगहों पर मां-बाप अगर अपने बच्चों की दूसरे धर्म में शादी के लिए तैयार भी हो जाते हैं, तो उन पर अपने धर्म के लोगों का दबाव इतना अधिक रहता है कि वे जाहिर तौर पर बरसों तक अपने ही बच्चों से रिश्ते नहीं रख पाते। 

आज 21वीं सदी में आकर जब लोगों की जिंदगी में पढ़ाई, रोजगार, रोज की जिंदगी की सहूलियतें, कामयाबी की अहमियत रहनी चाहिए, अधिकतर लोगों की जिंदगी में जाति और धरम की अहमियत सबसे ऊपर चलती है। हिन्दुस्तान अभी तक कई अलग-अलग सदियों में एक साथ जी रहा है। जो लोग इसके सामाजिक रिवाजों को तोडऩे का हौसला दिखाते हैं, वे बिना किसी अधिक तकलीफ के जिंदा भी रह सकते हैं। यह एक अलग बात है कि यह हौसला दिखाने का हौसला बहुत कम लोगों में रहता है। लोग छोटी-छोटी टेक्नॉलॉजी के लिए तो विकसित देशों की तरफ देखते हैं, लेकिन उन देशों की सामाजिक उदारता की परंपराओं की तरफ नहीं देखते। नतीजा यह है कि हमने मोबाइल फोन और इंटरनेट तो दूसरे देशों से ले लिया है, वहां के सोशल मीडिया का इस्तेमाल भी करते हैं, लेकिन अपने देश की नई पीढ़ी की हसरतों की जरूरतों को कुचलते रहते हैं। हर दिन देश में दर्जनों आत्महत्याएं होती हैं क्योंकि जालिम जमाना प्रेमीजोड़ों को मिलने नहीं देता। दूसरी तरफ खुदकुशी से कुछ कम निराशा वाले हजारों गुना अधिक लोग ऐसे रहते हैं जो कि मरते तो नहीं हैं लेकिन जीते-जीते मरे सरीखे जरूर हो जाते हैं। दुनिया के उदार देशों से तुलना करें, तो उन देशों में धर्म, जाति, नस्ल, रंग, राष्ट्रीयता कोई मुद्दा ही नहीं रह गए हैं। वहां पर बच्चे शादी के बाद हों या पहले, यह भी कोई मुद्दा नहीं रह गया है। ऐसे सारे समाज अपने खुशहाल और मानसिक सेहतमंद लोगों की वजह से आगे भी बढ़ते हैं, क्योंकि समाज के थोपे हुए कोई प्रतिबंध उनकी हसरतों को कुचलने के लिए ओवरटाइम नहीं करते। हमारा मानना है कि किसी भी देश की नौजवान पीढ़ी की आगे बढऩे की संभावनाएं इस बात से जुड़ी रहती हैं कि वह पीढ़ी किसी भी तरह की निराशा और कुंठा से कितनी आजाद है। जब नौजवान कंधे परिवार और समाज के लादे गए प्रतिबंधों को ढोते हुए अपने ही सपनों को कुचलने के लिए मजबूर रहते हैं, तो फिर ऐसी युवा पीढ़ी कामयाबी की राह पर अपनी पूरी क्षमता का सफर नहीं कर पाती। 

सिर्फ आत्महत्याओं और ऑनर-किलिंग के आंकड़े पूरी हकीकत नहीं बताते, समाज के भीतर कुंठा में डूबी हुई युवा पीढ़ी अपनी निराशा का शिकार रहती है, और यह निराशा समाज को उसकी उत्पादकता नहीं दे पाती। हिन्दुस्तान में शहरीकरण चाहे जितना बढ़ गया हो, सामाजिक पाखंड भी उसी अनुपात में बढ़ते जा रहा है, जबकि समाज विज्ञान की सामान्य समझ कहती है कि शहरीकरण से जात-धरम का फौलादी ढांचा कमजोर होना चाहिए था। हिन्दुस्तान में आज जात और धरम की जिंदगी में अहमियत सामान्य और तर्कसंगत सीमा से बहुत अधिक है। यह कुछ उस किस्म की है कि लोग दिन में 8 घंटे पूजा करें, और आधे घंटे काम करें। जिंदगी में तीन चीजों का क्या अनुपात रहना चाहिए, यह मामला हिन्दुस्तान में पूरी तरह, और बुरी तरह गड़बड़ा गया है। लोग जात और धरम के नाम पर ऐसे भरम में डूब गए हैं कि उनकी समझ खत्म हो गई है। लोगों के लिए अपनी पैदा की हुई औलादों की अहमियत हिंसक सामाजिक नियमों से भी कम रह गई है। समाज में यह सब घटते नहीं दिख रहा है, बल्कि बढ़ते दिख रहा है। इससे और कुछ नहीं होगा, महज भड़ास में डूबी यह पीढ़ी देश को उसकी पूरी संभावना तक नहीं ले जा पाएगी।  (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक) 

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