संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : एक पेशेवर मुजरिम की तरह कतराता स्टेट बैंक
15-Mar-2024 4:53 PM
‘छत्तीसगढ़’ का  संपादकीय :  एक पेशेवर मुजरिम की तरह कतराता स्टेट बैंक

सुप्रीम कोर्ट के आदेश का स्टेट बैंक ने चुनावी बॉंड खरीदने वाली कंपनियों और लोगों के नाम रकम सहित उजागर कर दिए हैं। चुनाव आयोग की वेबसाइट पर सुप्रीम कोर्ट के आदेश से ये जानकारी पोस्ट हो गई है, और इसके साथ एक अलग जानकारी भी पोस्ट हुई है कि किस-किस राजनीतिक दल को चुनावी बॉंड से कितना पैसा मिला। लेकिन किसी शातिर धूर्त की तरह हिन्दुस्तान के सबसे बड़े बैंक ने सुप्रीम कोर्ट के आदेश से कतराकर निकलते हुए यह पोस्ट नहीं किया है कि किस कंपनी ने किस नंबर के बॉंड खरीदे थे, और किस राजनीतिक दल ने किस-किस नंबर के बॉंड भुनाए थे। इससे यह साफ हो जाता कि किस दानदाता ने किस पार्टी को कितना चंदा दिया, किस तारीख को दिया, और जैसा कि अदालत में जनहित याचिका लेकर जाने वाले लोगों का कहना है, इससे यह भी पता लगेगा कि किस तारीख को किस कंपनी पर किस केन्द्रीय एजेंसी की क्या कार्रवाई हुई, और क्या उसके बाद यह चंदा दिया गया? अब सुप्रीम कोर्ट ने एक बार फिर स्टेट बैंक को लताड़ लगाई है कि उसने चुनाव आयोग को दी जानकारी में बॉंड के नंबर क्यों नहीं दिए हैं। देश को कोई भी जानकारी देने से स्टेट बैंक एक पेशेवर मुजरिम की तरह बच रहा है, और इससे देश के इस सबसे बड़े, सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक की साख को बट्टा लगा है। ऐसा लग रहा है कि यह राजनीतिक खेल में एक हिस्सेदार बन गया है, और सुप्रीम कोर्ट की अवमानना करने से भी यह कतरा नहीं रहा है। देश का एक सबसे महंगा वकील भी इसे सुप्रीम कोर्ट के आदेशों का मतलब नहीं समझा पा रहा है। 

आंकड़े बतलाते हैं कि चुनावी बॉंड से राजनीतिक दलों को जो पैसा मिला है, उसमें देश की बाकी तमाम पार्टियों को मिला कुल पैसा भी अकेली भाजपा को मिले पैसे से कम है। छह हजार करोड़ से अधिक पाने वाली भाजपा के तुरंत बाद इस लिस्ट में 16 सौ करोड़ पाने वाली तृणमूल कांग्रेस है, और अपने को राष्ट्रीय पार्टी बताने वाली कांग्रेस को भी इससे कम पैसा मिला है। कांग्रेस को मिले 14 सौ करोड़ के मुकाबले एक प्रदेश वाली भारत राष्ट्र समिति को 12 सौ करोड़ रूपए मिले हैं। लेकिन इससे अधिक दिलचस्प यह जानकारी है कि चुनावी बॉंड से सबसे अधिक चंदा किस कंपनी ने दिया है। देश के कई प्रदेशों में लॉटरी चलाने वाली एक कंपनी, फ्यूचर गेमिंग एंड होटल सर्विसेस ने 1368 करोड़ के चुनावी बॉंड खरीदे, और इस कंपनी पर पश्चिम बंगाल में लॉटरी की गड़बडिय़ों के जुर्म दर्ज हैं, और बंगाल के ही दर्ज जुर्म के आधार पर ईडी ने इस कंपनी के खिलाफ कार्रवाई की, और खुद ईडी का कहना है कि इसने लॉटरी की बिक्री से मिली कमाई को जमा न करके लॉटरी करवाने वाले राज्य को धोखा दिया है, ईडी का यह भी कहना था कि इस कंपनी ने कई और तरह से भी लॉटरी कानून तोड़ा है। यह कंपनी भाजपा और तृणमूल कांग्रेस के राज्यों में काम कर रही है, और अब ऐसी कंपनी के खिलाफ गंभीर जुर्म भी दर्ज हैं, और कंपनी ने 13 सौ करोड़ से अधिक का चंदा भी दिया है, तो देश को यह जानने का हक तो है ही कि उसने किस पार्टी को कितना पैसा दिया? वोटरों को यह जानने का हक है कि किस पार्टी के राज में किसने क्या कारोबार किया, क्या गड़बड़ी की, और कब कितना चंदा दिया, उसके पहले और उसके बाद कार्रवाई में क्या फर्क हुआ? 

अगर सुप्रीम कोर्ट की अवमानना में जेल जाने के पहले स्टेट बैंक के चेयरमैन चुल्लू भर पानी में डूब मरने के बजाय अदालती आदेश के मुताबिक कही गई जानकारी दे देते हैं, तो देश के कई जनसंगठन यह विश्लेषण कर सकेंगे कि एक राज्य तक सीमित पार्टी तृणमूल कांग्रेस को इतना अंधाधुंध चंदा कैसे मिला है, और जिन्होंने चंदा दिया उनके पश्चिम बंगाल में कौन से कारोबारी हित हैं? ऐसा ही विश्लेषण बाकी पार्टियों के राज वाले प्रदेशों में, या पूरे देश में किया जा सकता है कि चंदे से धंधा किस तरह प्रभावित हुआ है। जिस जनहित याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने यह ऐतिहासिक फैसला दिया, उस याचिका का मकसद भी यही है कि सरकारी कार्रवाई का डर, चंदा, और फिर कारोबारी रियायत, इनका आपस में क्या संबंध है यह मतदाताओं के सामने रखा जाए। एक सीरियल के नाम पर इस नौबत को देखें तो सब जानकारी सामने आने से यह समझ पड़ेगा कि ये रिश्ता क्या कहलाता है? सुप्रीम कोर्ट को यह भी सोचना चाहिए कि अगर देश का एक बैंक अगर अदालत को उसकी औकात दिखाने पर उतारू है, तो उसके साथ क्या सुलूक करना बेहतर होगा? यह वही स्टेट बैंक है जहां देश का सबसे अधिक सरकारी कामकाज होता है, और जहां पहुंचने वाले आम लोग कर्मचारियों को घंटों लंच मनाते देखते हैं। बैंक सुप्रीम कोर्ट से भी लंच की तीन महीने की छुट्टी मांग रहा था, ताकि उसके बाद जानकारी दे, यह तो अदालत को समझ आ गया कि बैंक उसे बेवकूफ समझ रहा है, और उसने बैंक को जेल की तस्वीर दिखाई, तो कुछ घंटों में ही सारी जानकारी निकल आई। लेकिन इसके बाद भी स्टेट बैंक ने दानदाता और दानपाता के बीच रिश्ता बताने वाली जानकारी अब तक छुपाकर रखी है, और हमारा ख्याल है कि स्टेट बैंक चेयरमैन को तिहाड़ जेल दिखाना चाहिए, ताकि वे वहां एक दिन रहकर देख सकें कि कोई ब्रांच कैसे खोली जा सकती है। 

जो भी आधी-अधूरी जानकारी सामने आई है, वह बताती है कि देश का सबसे बड़ा राजनीतिक चंदा देने वाला एक लॉटरी कंपनी का मालिक है, जो एक-एक महीने में सैकड़ों करोड़ के बॉंड खरीद चुका है। फिर जो भी लोग यह समझते हैं कि राजनीतिक दलों को चंदा बैंकों के मार्फत ही मिलता है, वे परले दर्जे के मासूम लोग हैं। भारत जैसे लोकतंत्र में अधिकतर चुनावी कमाई, खर्च, और राजनीतिक जमाखर्च यह सब कुछ अब भी कालेधन से ही होता है। चुनावी कालेधन की बात करें तो देश के बड़े-बड़े अफसर भी चुनावी खर्च पर्यवेक्षक बनकर भी देश में एक भी चुनाव को अवैध करार नहीं करवा पाते हैं, क्योंकि शायद चुनाव आयोग और सरकार की ऐसी नीयत भी नहीं रहती है। ऐसे में चुनावी दलों को बॉंड के मार्फत चंदा देने को ही पूरा नहीं समझ लेना चाहिए। इसके साथ ही सुप्रीम कोर्ट को भी अपनी यह जिम्मेदारी समझ लेनी चाहिए कि जब सरकार, संसद, और चुनाव आयोग जैसी अलग-अलग संस्थाओं को लोकतंत्र कायम रखने में सीमित दिलचस्पी रह गई है, तो ऐसे में अदालत के कंधों पर एक अभूतपूर्व जिम्मेदारी आ जाती है। चुनावी बॉंड के इस मामले में अगर अदालत जरा भी समझौतापरस्त हो गई रहती, और कुछ जजों को रिटायरमेंट के बाद वृद्धावस्था-पुनर्वास की फिक्र रहती, तो हो सकता है कि चुनावी बॉंड की यह जानकारी भी जनता के सामने नहीं आ पाती। अब अदालत को स्टेट बैंक के मुखिया को कटघरे में बुलाना चाहिए, ताकि उन्हें आते-जाते कैमरे दिखा सकें, और लोगों को पता चल सके कि देश में सबसे लंबा लंच खाने वाला इंसान कौन हैं।  

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