संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : शहरी सिटीबसें घाटे का सौदा नहीं, पूंजीनिवेश मानकर चलने की जरूरत
16-Mar-2024 3:33 PM
‘छत्तीसगढ़’ का  संपादकीय :   शहरी सिटीबसें घाटे का सौदा नहीं, पूंजीनिवेश मानकर चलने की जरूरत

केन्द्र सरकार की शहरीकरण योजना के तहत देश के अलग-अलग शहरों में बसें चलाने के लिए हमेशा से मदद दी जाती रही है, और अब बैटरी से चलने वाली गाडिय़ों का चलन बढऩे से इलेक्ट्रिक बसों के लिए केन्द्र की योजना मौजूद है। सार्वजनिक परिवहन या पब्लिक ट्रांसपोर्ट के बिना शहरों का विकास मुमकिन नहीं है। इसलिए देश के महानगरों और उपमहानगरों में केन्द्र और राज्य की मिलीजुली मेट्रो परियोजनाएं बन चुकी हैं, और कई जगहों पर उन पर काम जारी भी है। लेकिन मेट्रो स्टेशन पहुंचने के लिए छोटी-बड़ी बसों की जरूरत पड़ती है, और मेट्रो से उतरने के बाद भी लोगों को अपने ठिकानों पर पहुंचने के लिए फिर कोई दूसरे साधन लगते हैं क्योंकि मेट्रो हर गली-मोहल्ले में तो जा नहीं सकती। इसलिए मेट्रो के साथ-साथ छोटी-बड़ी बसों का जाल बिछाना अभी तक दिल्ली में भी चल रहा है जहां मेट्रो शुरू हुए बहुत बरस हो चुके हैं। आज बीस बरस बाद भी दिल्ली मेट्रो दस अलग-अलग लाइनों पर चल रही है, ढाई सौ से अधिक स्टेशन हैं, साढ़े तीन सौ किलोमीटर पटरियां हैं, लेकिन जिसे लास्ट माइल कनेक्टिविटी कहते हैं, वह अब भी पूरी नहीं हो पाई है। नतीजा यह है कि बहुत सी जगहों पर लोग अपने निजी वाहनों पर अब भी आश्रित रहते हैं। लेकिन जो शहर अब तक मेट्रो नहीं पा सके हैं, वहां पर तो सब कुछ बसों पर ही निर्भर रहता है, अब इलेक्ट्रिक बसें आ जाने से बिना प्रदूषण, और बिना अधिक शोरगुल के आरामदेह बसें चल सकती हैं, और वे शहरी सडक़ों से गाडिय़ों की भीड़ घटा सकती हैं। 

भारत के अधिकतर पुराने शहरों में सडक़ें बसों के लायक चौड़ी नहीं है। जिन शहरों में अंग्रेजों के फौजी ठिकाने रहे, वहां तो उन्होंने सौ बरस बाद की जरूरत का भी ध्यान रखते हुए चौड़ी सडक़ें बनवाई थीं, लेकिन बाद के बरसों में जो हिन्दुस्तानी शहर बने, वे कल्पनाहीन, बिना योजना के, और शून्य संभावनाओं वाले थे। नतीजा यह हुआ कि वे बड़े आकार के कस्बे से अधिक कभी कुछ नहीं बन पाए। अब वहां बसे लोगों की महत्वाकांक्षाएं अगर जोर मारती भी हैं, तो भी न तो वहां शहरी विकास की अधिक संभावनाएं मौजूद हैं, और न ही भारत में शहरीकरण की ऐसी समझ रही कि सार्वजनिक परिवहन को समय रहते बढ़ावा दिया गया हो। हमारी बात में, समय रहते, इन दो शब्दों का बड़ा महत्व है। एक बार जब किसी शहर का जनजीवन निजी वाहनों का मोहताज हो जाता है, तो फिर उसके बाद लोगों की इस आदत को पब्लिक ट्रांसपोर्ट की तरफ मोडऩा मुश्किल हो जाता है। लोगों को अपने दुपहिए-चौपरियों की आदत पड़ जाती है, और फिर उन्हें पब्लिक ट्रांसपोर्ट की परेशानियां दिखने लगती हैं। इसलिए सार्वजनिक परिवहन को जितनी जल्दी और जितने बड़े पैमाने पर लागू किया जाए, उसकी कामयाबी की संभावना उतनी ही अधिक रहती है। जो सचमुच ही विकसित दुनिया है, उसमें शहरों के पब्लिक ट्रांसपोर्ट को पूरी तरह मुफ्त कर दिया जाता है, क्योंकि इस पर होने वाले खर्च को निजी वाहनों की भीड़ और प्रदूषण से बचने का मुआवजा मान लिया जाता है। अगर पब्लिक ट्रांसपोर्ट में हिन्दुस्तान की तरफ नफा-नुकसान देखा जाता रहेगा, तो शहरों के प्रदूषण को कितना भी खर्च करके रोका नहीं जा सकेगा। शहरी ट्रांसपोर्ट लोगों को रेवड़ी नहीं रहता, वह शहरों को सांस लेने लायक जगह बनाए रखने का दाम रहता है। या तो सरकार पब्लिक ट्रांसपोर्ट को बहुत रियायती या तकरीबन मुफ्त कर ले, या फिर वह शहरी प्रदूषण से बीमार होने वाले लोगों के इलाज पर खर्च कर ले, बोझ तो सरकारी जेब पर ही पडऩा है।  

भारत के शहरीकरण को लेकर एक कल्पनाशील योजना की जरूरत है जो कि घिसे-पिटे ढर्रे पर चलते हुए हासिल नहीं हो सकती। व्यस्त होते शहरों में निजी कारों पर टैक्स बढ़ाया जाना चाहिए, और पार्किंग के नियम कड़ाई से लागू करके लोगों को मजबूर किया जाना चाहिए कि वे सार्वजनिक गाडिय़ों से ही आना-जाना करें। पिछले बीस बरस में दिल्ली में मेट्रो से जितना आना-जाना हो रहा है, वह अगर आज पूरी तरह बसों का मोहताज रहता, तो दिल्ली की सडक़ों का इंच-इंच उन बसों से पट गया रहता। इसी तरह एक बस में चलने वाले मुसाफिरों को देखें, और फिर उन्हें उतनी कारों में चढ़ाने की कल्पना करें, तो सडक़ पर 25 गुना अधिक जगह लग गई होती। इसलिए शहरों को जिंदा रहने लायक बचाए रखने के लिए दूसरे तरह के टैक्स लगाकर बसों को इतना सस्ता या मुफ्त कर देना चाहिए कि लोग निजी दुपहियों से भी बसों को सस्ता पाएं। और फिर बड़ी बसों के रूट से परे छोटी बसों का जाल भी बिछाना चाहिए ताकि लोग अपनी गाडिय़ों से पूरी तरह आजादी पा सकें। 

दिक्कत यह है कि भारत में सरकारी कामकाज अलग-अलग विभागों में टापुओं की तरह बंटे रहते हैं। कोई दो विभाग मिलकर काम करने के पहले इस सोच में पड़ जाते हैं कि खरीदी और निर्माण का किसका मौका चूक जाएगा। ऐसे तंग नजरिए के चलते शहरों की नई जरूरतें किसी एक विभाग के तहत नहीं आ पातीं, और हर योजना की लागत और उसकी वापिसी सिर्फ रूपयों की शक्ल में नहीं गिनी जा सकती। आज किसी म्युनिसिपल में बसों को पर्यावरण बचाने वाला माना जाए, तो म्युनिसिपल के पर्यावरण विभाग को यह संतान अच्छी नहीं लगेगी, उसे पेड़, बगीचे, और तालाब तक शायद अपना काम सीमित लगे। इसलिए आज की बदली हुई जरूरतों के मुताबिक केन्द्र और राज्य सरकारों, और म्युनिसिपलों को अपना नजरिया बदलना होगा, और 21वीं सदी की बदली हुई जरूरतों के मुताबिक अपने पुराने ढांचे में फेरबदल करना होगा। निर्वाचित जनप्रतिनिधियों और सरकारी अफसरों को दशकों तक यह समझ नहीं आता था कि गरीबों को रियायती या मुफ्त राशन देना, मुफ्त इलाज देना, मुफ्त पढ़ाना, मुफ्त दोपहर का भोजन देना घाटे का नहीं फायदे का सौदा रहता है। देश का सामाजिक ढांचा विकसित करने की लागत शुरू-शुरू में लोगों को समझ नहीं आई थी, लेकिन बाद में समझ पड़ा था। इसी तरह भारत जैसे देश को अभी जागना होगा, और सौ बरस बाद मलाल करने के बजाय अभी से शहरों के फेंफड़े बचाए रखने के लिए सार्वजनिक परिवहन पर पूंजीनिवेश करना होगा। अभी केन्द्र सरकार राज्यों में जिस तरह से कुछ सीमा तक मदद कर रही है, उसे अधिक कल्पनाशील तरीके से आगे बढ़ाना होगा, किसी शहर से मिलने वाले जीएसटी का एक हिस्सा उस शहर के सार्वजनिक यातायात के लिए रखा जा सकता है, और इस तरह के और भी कई फार्मूले निकाले जा सकते हैं।    (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक) 

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