संपादकीय
भारत की राजनीति में अनगिनत किस्म की ओछी और गंदी बातें कही जाती हैं। लेकिन बिहार में अभी-अभी भाजपा के कोटे से डिप्टी सीएम बने सम्राट चौधरी ने जो कहा है, वह तो एकदम ही अनोखा घटिया मामला है। इतनी नीच बात बोलने वाले नेता कम ही होंगे। सम्राट चौधरी ने कहा कि टिकट बेचने में लालू यादव ने बेटी को भी नहीं छोड़ा, पहले बेटी से किडनी ली, और उसके बाद चुनाव का टिकट दिया। इस चौधरी के इस बयान की निंदा खुद भाजपा के नेता कर रहे हैं, और इसे शर्मनाक बता रहे हैं। भारत में अलग-अलग मौकों पर अलग-अलग पार्टियों के नेता घटिया बातें कहने के रिकॉर्ड बनाते चलते हैं, और आज के बाद जब कभी घटिया बातों की मिसाल दी जाएगी, उनमें यह बयान ऊपर के कुछ बयानों में गिनाएगा।
लेकिन हम राजनीति से परे हिन्दुस्तान की एक हकीकत पर बात करना चाहते हैं, भारत कीएक प्रतिष्ठित प्रत्यारोपण-पत्रिका ने 1995 से लेकर 2021 के बीच के भारत के अंग प्रत्यारोपण के आंकड़े प्रकाशित किए थे। इनके मुताबिक इस दौर में 18.9 फीसदी अंग ही महिलाओं को मिले, यानी 80 फीसदी से अधिक अंग प्रत्यारोपण पाने वाले मरीज पुरूष थे। एक दूसरा आंकड़ा बताता है कि किडनी जैसा सबसे बड़ा जीवनरक्षक अंग देने के मामले में महिलाएं सबसे आगे हैं। पत्नी, मां, बहन, बेटी, और भाभी तक से लोगों को अंग मिलते हैं, और जब महिलाओं को अंग प्रत्यारोपण की जरूरत पड़ती है, तो हिन्दुस्तानी परिवार महिलाओं की जान बचाने में पीछे हटने लगते हैं, और ऑपरेशन का महंगा खर्च नहीं उठाते। एक अध्ययन बताता है कि जब एक महिला को किडनी लगती है तो देने वालों में बहन, मां या बेटी ही होते हैं। जबकि दूसरी तरफ अधिकतर महिलाएं परिवार के पुरूषों के लिए किडनी देने को तैयार रहती हैं। सामाजिक हकीकत यह है कि भारत में मर्द ही अधिक दारू पीते हैं, और लीवर ट्रांसप्लांट की जरूरत पडऩे पर महिलाओं को ही अंगदान करना होता है। महिलाओं पर अंगदान करने के लिए, चाहे वह परिवार के लोगों के लिए हो, चाहे वह ब्लैक मार्केट में बेचने के लिए हो, उन पर भारी पारिवारिक दबाव रहता है। एक विशेषज्ञ डॉक्टर का कहना है कि अगर सौ आदमियों और सौ औरतों को किडनी ट्रांसप्लांट की जरूरत हो, तो ऐसी पूरी संभावना रहती है कि सौ में से सौ मर्द इसके लिए नाम रजिस्टर करा लें, और कुल 50 से 60 महिलाएं नाम दर्ज कराएं।
महिलाओं के जिम्मे परिवार के पुरूषों को अंग देना भी लिखा है, और पिता को किडनी देने वाली बेटी को राजनीति के चलते गाली भी खानी है। बिहार के डिप्टी सीएम सम्राट चौधरी ने जिस अंदाज में लालू यादव को बेटी को टिकट किडनी के एवज में देने की बात कही है, वह पता नहीं कौन सी भारतीय संस्कृति, और कौन से हिन्दुत्व की गौरवशाली सोच, और गरिमामय भाषा है। लालू यादव की बेटी ने पिता को किडनी देने का काम जिस हौसले से किया, और इस बारे में सोशल मीडिया पर पूरे समय तस्वीरें भी पोस्ट करती रहीं, उस साहस के बाद यह घटिया राजनीतिक हमला और अधिक घटिया लगता है। वैसे भी भाजपा लालू यादव पर परिवारवाद का आरोप लगाती है, और अगर लालू ने परिवारवाद के फेर में बेटी को टिकट दिया है, तो उसे किडनी के एवज में बेचने की बात कहना तर्कहीन भी है, घटिया तो है ही।
हमारा ख्याल है कि भारतीय समाज में महिलाओं की जो स्थिति है, उसे लेकर कई किस्म के अध्ययन सामने आने चाहिए, और जनता के बीच उन पर चर्चा होनी चाहिए। लोगों को इस बात का अहसास भी नहीं होगा कि भारत के बच्चों में जब कैंसर की पहचान होती है, तो तकरीबन तमाम लडक़ों को तो इलाज के लिए अस्पताल लाया जाता है, लेकिन लड़कियों को जांच में कैंसर मिलने के बाद भी अमूमन इलाज से परे रखा जाता है। शायद यह मान लिया जाता है कि लड़कियां शादी के बाद दूसरे के घर जाएंगी, तो वे अपने परिवार की आय बढ़ाने वाली नहीं रह जाएंगी। भारत के अधिकतर परिवारों की आर्थिक स्थिति ऐसी रहती है कि कमाऊ और गैरकमाऊ सदस्यों के बीच कई किस्म के फर्क होने लगते हैं। इसीलिए लडक़ी की पढ़ाई से लेकर लडक़ी के इलाज तक कई किस्म का भेदभाव होता है, और यह बढ़ते-बढ़ते अंग प्रत्यारोपण तक पहुंच जाता है, जिसमें शायद यह भी मान लिया जाता है कि अगर पुरूष कमाऊ है, तो उसे अंग पाने का अधिक हक होना चाहिए, और उसके अंग नहीं लिए जाने चाहिए। दूसरी तरफ घर और बाहर कहीं भी, या दोनों जगह काम करने वाली महिला के लिए भी यह मान लिया जाता है कि वह कम कमाने वाली है, परिवार की मुखिया नहीं है, इसलिए वह किसी अंग के बिना भी काम चला सकती है। यह सोच बचपन से ही लडक़ी का इलाज न कराने वाली सोच का एक किस्म का विस्तार ही है।
भारतीय गरीब परिवारों के भीतर महिला और लडक़ी के पोषण आहार के आंकड़े ही अलग रहते हैं। वे परिवार के पुरूष और लडक़ों के खानपान से काफी नीचे भी रह सकते हैं। देश की उत्पादकता बढ़ाने के लिए लड़कियों और महिलाओं का बराबरी का योगदान हो सकता है, अगर उन्हें बराबरी से खानपान, पढ़ाई और इलाज मिले, और काम के समान अवसर मिलें, समान मजदूरी, और तनख्वाह मिले। आज हालत यह है कि दुनिया के कई देशों में सुअर जैसे जानवरों में जेनेटिक फेरबदल करके उसके कुछ अंग इंसानों में प्रत्यारोपित किए जा रहे हैं। जाहिर है कि ऐसे सुअर को अधिक महत्व के साथ रखा जाएगा, जिसे ट्रांसप्लांट के मकसद से ही किसी खास इंसान के जींस डालकर रखा गया है। बात सुनने में बहुत बुरी लग सकती है, लेकिन हिन्दुस्तान में महिलाओं को बच्चे पैदा करने, उन्हें पालकर बड़ा करने, परिवार का रोज का कामकाज करने, बुजुर्गों की सेवा करने के साथ-साथ जरूरत पडऩे पर अंग देने के लिए भी रखा जाता है। फिर भी उनमें से बहुतों की कोई इज्जत नहीं की जाती। ऐसे भारतीय परिवार पश्चिमी देशों में इंसानों के अंग प्रत्यारोपण के लिए रखे जाने वाले जानवरों की बेहतर देखरेख से कुछ सीख सकते हैं।