संपादकीय
छत्तीसगढ़ सरकार के आदिम जाति विकास विभाग में छात्रावास अधीक्षकों की भर्ती होनी है, और इसके तीन सौ पदों के लिए छह लाख से अधिक आवेदन मिलने की खबर है, और अभी आवेदन करने के तीन दिन बाकी हैं। एक-एक पद के लिए दो हजार से अधिक लोग कतार में लगे हैं। इससे बेरोजगारी का अंदाज भी लगता है। देश के अलग-अलग आर्थिक सर्वेक्षणों में कहीं गरीबी, तो कहीं बेरोजगारी के आंकड़े चौंकाने वाले निकलते हैं, पिछले बरसों में छत्तीसगढ़ में भी बेरोजगारी बहुत कम होने के आंकड़े सामने आए थे। लेकिन ऐसी एक-एक पोस्ट के लिए अगर दो-दो हजार लोग कतार में लगे हैं, तो यह जाहिर है कि बेरोजगार तो बहुत हैं, उनकी गिनती के आंकड़े, और उसके तरीके गड़बड़ हो सकते हैं।
2021 का उत्तरप्रदेश का एनडीटीवी का एक समाचार वीडियो अब तक सोशल मीडिया पर चक्कर लगाता है जिसमें यूपी सरकार के चपरासियों के 62 पदों पर 50 हजार ग्रेजुएट, 28 हजार पोस्ट ग्रेजुएट, और 37 सौ पीएचडी लोगों ने आवेदन किया था। अब सरकारी नौकरी में जो सबसे निचला पद है उसके लिए भी अगर पीएचडी किए हुए लोग अर्जियां दे रहे हैं, तो पानी पिलाने और टेबिल साफ करने में लगे हुए डॉक्टरेट हासिल लोग कैसा नजारा पेश कर रहे होंगे? इस ओहदे के लिए कुल पांचवी पास होने की जरूरत थी। भारत में जब हुनरमंद और काबिल कामगारों की बात होती है, तो आबादी में नौजवानों के अनुपात को गिनाया जाता है कि यह दुनिया में सबसे अधिक नौजवानों वाला देश है। इसके साथ-साथ इसकी आबादी भी तकरीबन बनी हुई है जो कि चीन जैसे देश में गिरना शुरू हो चुकी है, और आने वाले दशकों में चीन कामगारों की बड़ी कमी झेलने वाला है। ऐसे में भारत के नौजवान आंकड़ों के हिसाब से तो उसकी ताकत साबित हो सकते हैं, यह एक अलग बात है कि हकीकत इससे काफी अलग है। देश में स्किल डेवलपमेंट के नाम पर चारों तरफ जो फर्जीवाड़ा चलता है, वह सरकारी योजनाओं का पैसा खाने तक सीमित है। न तो लोगों को ईमानदारी से हुनर सिखाए जाते हैं, और न ही उन्हें काम मिल पाते हैं। दूसरी तरफ जो कामगार सचमुच ही हुनर का काम कर रहे हैं, उनके प्रशिक्षण का कोई इंतजाम नहीं है। और तो और आईटीआई जैसे जो औद्योगिक प्रशिक्षण संस्थान हैं उनकी हालत भी इतनी खराब है कि वहां पढ़ाने और ट्रेनिंग के इंतजाम नाकाफी रहते हैं, और वहां से निकलने वाले लोग सरकारी नौकरियों के मोहताज रहते हैं, वे खुद होकर कोई काम शुरू नहीं कर पाते।
इसलिए कोई देश अगर अपनी आबादी के नौजवान हिस्से पर गर्व कर रहा है, तो वह जायज उसी हालत में होगा जब ये नौजवान हुनर के काम के लायक होंगे, अगर एक-एक सरकारी ओहदे के लिए हजारों लोग कतार में लग जाएंगे, तो इससे दो बातें साबित होती हैं, एक तो यह कि सरकार से परे काम की गुंजाइश नहीं है, और दूसरी बात यह कि निजी क्षेत्रों में अगर काम है भी, तो सरकारी नौकरियों में हराम की कमाई की गुंजाइश बहुत ज्यादा है। ऐसी हकीकत वाला देश आबादी के आंकड़ों पर गर्व करते बैठा रहे, उसके बजाय देश में बचपन से जवानी के बीच पढ़ाई और प्रशिक्षण का एक ऐसा इंतजाम करना चाहिए जो बेरोजगारों की फौज खड़ी न करे, बल्कि लोगों को काम के लायक बनाएं। भारत में ही दक्षिण के कुछ राज्य ऐसे हैं जो पढ़ाई और ट्रेनिंग में अधिक ईमानदार हैं, और वहां के नौजवान अपने प्रदेशों से बाहर, और देश के भी बाहर जाकर काम के लायक हैं। दूसरी तरफ हिन्दी राज्यों और उत्तर भारत को देखें, तो यहां पर न पढ़ाई-लिखाई का कोई महत्व है, और न ही किसी ट्रेनिंग-हुनर का।
भारत में किसी हुनर वाले कामकाज की क्वालिटी का कोई पैमाना नहीं है, कामगार कुछ जानते हैं, या नहीं, इसके मूल्यांकन का कोई जरिया नहीं है, ऐसे में ग्राहकों को किस दर्जे के कामगार मिल रहे हैं, इसका भी कोई ठिकाना नहीं रहता। दूसरी तरफ देश में छोटे-छोटे कामों में जो सामान या पुर्जे लगता हैं, उनकी क्वालिटी का भी कोई ठिकाना नहीं रहता। इन दोनों का मेल जब होता है, तो सब कुछ स्तरहीन और घटिया नजर आता है। देश में उत्कृष्टता की संस्कृति ही नहीं रह गई है, और लोग असंगठित क्षेत्र के हुनरहीन लोगों पर आश्रित रह गए हैं। शहरी इलाकों की कुछ संगठित सेवाओं को छोड़ दें, तो देश के अधिकतर कामगार बिना खूबियों वाले हैं, और देश में सेवाओं के नाम पर स्तरहीन काम अधिक हो रहा है। काम भी स्तरहीन, और सामान भी घटिया, कुल मिलाकर देश में सामानों और सेवाओं की जो उत्पादकता होनी चाहिए, वह बहुत ही नीचे दर्जे की है। लोगों का खर्च पूरा हो जाता है, लेकिन उन्हें सही क्वालिटी का काम नहीं मिलता। दक्षिण भारत के कुछ राज्यों से सीख लेकर बाकी के हिन्दुस्तान को शिक्षण-प्रशिक्षण की ईमानदारी बरतनी चाहिए, और सरकारों को घटिया सामानों का बनना बंद करना चाहिए, तभी जाकर देश को उसके दिए दाम की सही उत्पादकता मिल सकेगी।
यहां पर एक दूसरी बात जरूरी यह है कि मिडिल स्कूल तक की पढ़ाई के बाद सरकारों को बड़ी रफ्तार से आगे की किताबी पढ़ाई, और किसी हुनर का प्रशिक्षण, इन दोनों के रास्ते अलग करने चाहिए। जो लोग किताबी पढ़ाई में बहुत अच्छे नहीं हैं, उन्हें प्राइमरी और मिडिल के बाद उनके नंबर देखकर किसी तकनीकी प्रशिक्षण, या रोजगार के लिए तैयार करने वाले दूसरे हुनर की तरफ मोडऩा चाहिए, और उनके बालिग हो जाने तक कुछ किस्म के हुनर के लायक उन्हें ढालना चाहिए। पांच-सात बरस की ऐसी ट्रेनिंग से बालिग होते ही ये लोग अपने खुद के रोजगार के लायक रहेंगे, या इतनी ट्रेनिंग पा लेने के बाद इन्हें कहीं नौकरी मिल भी जाएगी। लेकिन सरकारें अगर ऐसे अलोकप्रिय फैसलों से बची रहेंगी, तो फिर वे अगली पीढिय़ों को नहीं बचा पाएंगी। आज पढ़े-लिखे बेरोजगार बिना किसी हुनर के मां-बाप की छाती पर मूंग दलते बैठे रहते हैं, या फिर बेरोजगारी के लिए सरकारों को कोसते रहते हैं। नौजवान पीढ़ी के एक बड़े हिस्से को 8वीं की पढ़ाई के बाद अलग-अलग हुनर की ट्रेनिंग में डालना चाहिए, और उसी से भारत एक मैन्यूफेक्चरिंग केन्द्र बन सकेगा। महज किताबें पढ़े हुए ठलहा नौजवान इस देश में कामगार ताकत नहीं बनेंगे, बल्कि वे बेरोजगार की शक्ल में बोझ रहेंगे। केन्द्र और राज्य सरकारों को देश के अगले दस-बीस बरस की कामगारों की जरूरतों का अंदाज लगाकर नौजवान पीढ़ी को उसी हिसाब से ढालना चाहिए, इसके अलावा न तो बेरोजगारी घटाने का कोई जरिया है, और न ही अर्थव्यवस्था में नौजवान पीढ़ी की भूमिका बढ़ाने का।