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सामाजिक कार्यकर्ता चुनाव में पिट क्यों जाते हैं ?
31-Mar-2024 1:54 PM
सामाजिक कार्यकर्ता चुनाव में पिट क्यों जाते हैं ?

अपूर्व गर्ग

सोनम वांगचुक 21 दिनों तक लद्दाख और पर्यावरण के सवाल पर आमरण अनशन पर बैठे ।उनका संघर्ष अब भी जारी है । सोनम वांगचुक के बाद लेह में 70 महिलाएं अनशन पर बैठीं हैं ।

्रस्नस्क्क्र के विरोध में 16 साल तक भूख हड़ताल करने वाली आयरन लेडी इरोम शर्मिला का संघर्ष भी इतिहास के सुनहरे पन्नों में दर्ज है ।

इरोम की लड़ाई याद करते हुए जब मैं सोनम वांगचुक पर सोचता हूँ कि वो भी यदि चुनाव लड़ें तो क्या होगा?

क्या इरोम की तरह 90 वोट मिलेंगे?

नर्मदा बचाओ आंदोलन की नेता मेधा पाटकर की तरह मुंबई चुनाव में मिली बुरी हार जैसा हश्र होगा ?

वैसे स्वामी अग्निवेश ने भी 2004 में प्रधानमंत्री वाजपेयी के खिलाफ चुनाव लडऩे का ऐलान किया था और बाद में सेक्युलर वोट न बँटे इसलिए नाम वापिस ले लिया था।

हमारे देश में अब तक एक्टिविस्ट जिन्होंने अपने आंदोलन से दुनिया में जगह बनाई, पर राजनीति में पिटते रहे और चुनावी मुकाबले में बिल्कुल टिक न पाए!

सबसे बुरा झटका इरोम शर्मिला को लगा, जिन्होंने मुख्यमंत्री बनने का सपना देखकर मणिपुर की सेवा करनी चाही थी पर जनता ने उनकी जमानत ही जब्त करवा दी थी।

आखिर क्यों सामाजिक कार्यकर्ता चुनावी लड़ाई में पिट जाते हैं?

सामाजिक कार्यकर्ता ही नहीं लाखों की रैली निकलने वाले ट्रेड यूनियन नेता भी कुछ सौ वोट्स में सिमटते रहे।

शराब बंदी के आंदोलन में जो समर्थन देगा वो उस आंदोलन के नेता को चुनाव में वोट नहीं देगा।

ट्रेड यूनियन आंदोलन में आर्थिक हितों की सुरक्षा जो चाहेंगे वो अपने ट्रेड यूनियन नेता को या उनकी पार्टी को चुनाव में कितना समर्थन दे रहे ये तस्वीर देश के सामने है, कहने की जरूरत नहीं। आर्थिक सुरक्षा चाहिए पर वोट डालते समय उन्हें अपनी जात, क्षेत्र, धर्म सब दिखता है पर मुद्दा गायब हो जाता है।

उन्नाव कि पीडि़ता के साथ उन्नाव खड़ा रहा पर जब उसकी माँ ने चुनाव लड़ा तो वो ज़मानत तक नहीं बचा पाई।

जब तक आप सामाजिक मुद्दों को लेकर लड़ते हैं मीडिया आप को कवरेज देता है पर जैसे ही चुनाव लडऩे की सोचकर इस व्यवस्था को बदलने का चुनाव करते हैं, एक-एक लाइन के कवरेज से वंचित हो जाते हैं ।

अपनी चुनावी बात, मुद्दों को रखने के लिए कौन सा प्लेटफार्म बचता है ?

एक्टिविस्ट के पास न वैसी चुनावी कार्यकर्ताओं की प्रोफेशनल टीम होती है न फण्ड और न प्रचार-प्रसार के साधन और न ही ऐसा विस्तृत नेटवर्क जिससे जनता के दिमाग के दरवाजे खोल सकें ।

दरअसल, जनता के दिमाग में सदियों से चुनाव को लेकर जो सोच बनी है जो विचार हैं और जो परंपरा है वो पूरी तरह से सदियों से

स्थापित नैरटिव के आधार पर चलती है। सीधे शब्दों में जनता के दिमाग पर पूंजीवादी सामंती मूल्यों के जाले छाए हुए हैं । इन धारणाओं को दूर करने के लिए और अपनी बात जन-जन तक पहुँचाने के लिए मजबूत संगठन चाहिए। चुनावी बात रखनी है तो चुनावी संगठन होना चाहिए जो अपनी पार्टी की बात जनता तक पहुंचा सके।

सिर्फ पर्यावरण आंदोलन या सामाजिक आंदोलन या ट्रेड यूनियन आंदोलन कर इस व्यवस्था में चुनाव जीतना तो दूर जमानत तक नहीं बचती यही इतिहास है।

एक्टिविस्ट हैं चुनाव लडऩा है तो अपने विचारों के अनुरूप पोलिटिकल पार्टी में शामिल होकर लड़ें तो बेहतर है या मजबूत संगठन है तो जनता के हर तबके को शामिल कर अपनी मजबूत पार्टी बनाने चाहि।

किसी एक आंदोलन में हीरो बनकर या तपकर निकलने के बाद चुनाव जीता जा सकता तो इरोम शर्मिला गुमनाम न होतीं।

ये बात इसलिए लिख रहा हूँ क्योंकि खबर है अंकिता भंडारी को न्याय दिलवाने की लड़ाई लडऩे वाले शायद पहली बार निर्दलीय उम्मीदवार के तौर पर लडऩे वाले हैं।

अंकिता को न्याय मिले ये सब दिल से चाहते हैं। सवाल है जो जनता अंकिता के मुद्दे पर पूरा समर्थन दे रही वो

वोट कितना देगी?

उन्नाव पीडि़ता की माँ का ताजा उदाहरण सामने है।

दो बातें हो सकती हैं या तो पूरी मजबूती के साथ व्यापक संगठन बनाते हुए पूरे संसाधनों का इस्तेमाल कर चुनाव लड़ें या स्वामी अग्निवेश की तरह वैचारिक आधार पर किसी को समर्थन दें।

आगे जो भी हो। हर ऐसा एक्टिविस्ट सफल रहे हमारी तो ऐसी शुभकामनाएं रहेंगी ही।

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