विचार / लेख
-डॉ. आर.के. पालीवाल
सर्वोच्च न्यायालय की सख्ती के बाद स्टेट बैंक ऑफ इंडिया ने जिस तेज गति से इलेक्टोरल बॉन्ड की सूचना केंद्रीय चुनाव आयोग को उपलब्ध कराई है चुनाव आयोग ने उसी तेज गति से तमाम सूचना अपनी वेबसाइट के माध्यम से सार्वजनिक पटल पर रख दी है। इस पूरे प्रकरण में यह तो साफ हो गया कि स्टेट बैंक ऑफ इंडिया जैसे सार्वजनिक उपक्रम सरकार के कितने दबाव या डर डर कर काम कर रहे हैं। इलेक्टोरल बॉन्ड के चंदे की सामग्री बाहर आने से यदि विपक्षी गठबंधन इंडिया को नुकसान होने की संभावना होती तो इस तरह हीलाहवाली करने की जगह स्टेट बैंक ऑफ इंडिया सर्वोच्च न्यायालय द्वारा तय समय सीमा से पहले ही सब जानकारी उपलब्ध करा देता।
जो सूचना डिजिटल युग में कुछ सेकंड्स या मिनट में उपलब्ध कराई जा सकती थी उसके लिए स्टेट बैंक आफ इंडिया का तीन महीने से ज्यादा समय मांगना सर्वोच्च न्यायालय के आदेश की जान बूझकर अवमानना करने की श्रेणी में आता है। वह तो सबसे बडी अदालत ने सबसे बड़े सार्वजनिक बैंक को दया कर बख्श दिया अन्यथा उसके चेयरमैन को अपने पद से हाथ धोना पड़ सकता था। केन्द्र सरकार से अपने लाडले बैंक को कोई सजा देने की उम्मीद करना व्यर्थ है क्योंकि स्टेट बैंक तो लोकसभा चुनाव से पहले केन्द्र सरकार की किरकिरी होने से बचाने के लिए ही हीलाहवाली कर रहा था।
यह देखना निश्चित रुप से आशान्वित करता है कि अपने कर्तव्य निभाता निष्पक्ष मीडिया का एक वर्ग जिस तरह से सार्वजनिक हुए इलेक्टोरल बॉन्ड की चीर फाड़ कर रहा है वह निकट भविष्य में केन्द्र और राज्य सरकारों के अधीन कार्य करने वाली आर्थिक अपराध जांच एजेंसियों यथा ई डी, सी बी आई, आई टी, सी आई डी और ई ओ डबल्यू आदि के लिए प्रशिक्षण का काम कर सकता है बशर्ते केन्द्र और राज्यों की सरकारें उन्हें अपना काम ठीक से करने की आज़ादी दें।जिस तरह से मीडिया में नए नए खुलासे हो रहे हैं उनसे पता चलता है कि बहुत सी ऐसी कंपनियों ने सत्ताधारी दल को चंदा दिया है जिन पर केंद्रीय जांच एजेंसियों की छापेमारी हुई है या उन पर आपराधिक मामले दर्ज किए हैं। कई कंपनियां ऐसी भी हैं जिन्हें चंदा देने के बाद सरकारी विभागों से काफी बडा काम मिला है। इसी तरह कई कंपनियों ने सरकारी विभागों से बड़े काम मिलने के बाद चंदा दिया है।कहीं धंधे से पहले चंदा, कहीं चंदे के बाद धंधा, कहीं जांच एजेंसियों की रेड के बाद चंदा, और कहीं एफ आई आर दर्ज होने के बाद चंदा दिया जाना प्रथम दृष्टया यह संदेह पैदा करता है कि दागी और सत्ता से लाभ पाने वाली कंपनियों ने सत्ताधारी दल को खुश करने के लिए विविध रूप से चंदा दिया है जो भ्रष्टाचार की श्रेणी में आता है।
यही कारण है कि विपक्षी दल इसे भ्रष्टाचार के विविध रूपों में देख रहे हैं और इसे जबरन धन वसूली, चौथ और हफ्ता वसूली आदि नाम दे रहे हैं।जिस तरह बहुत से थाने अपराधियों से हफ्ता वसूली के लिए बदनाम होते हैं इस मामले में कुछ उसी तरह की बदनामी केंद्र सरकार को झेलनी पड़ रही है।
केंद्र सरकार को यह उम्मीद नहीं रही होगी कि सर्वोच्च न्यायालय इलेक्टोरल बॉन्ड योजना को असंवैधानिक करार दे कर इसकी पारदर्शिता पर लगाई सरकारी लगाम को तार तार कर देगा। इंडियन एक्सप्रेस जैसे अखबारों की खोजी पत्रकारिता ने चंदा देने वाली कम्पनियों की जन्मकुंडली खंगालना शुरू कर दिया है जिसमे यह जानकारी भी सामने आई है कि कई कंपनियों ने अपने कुल लाभ से भी ज्यादा चंदा दिया है जो अकल्पनीय है। अब देखना यह भी है कि क्या कोई बहादुर फिल्म निर्माता इस विषय पर भी चंदा फाइल्स नाम से फि़ल्म बनाएगा।