संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : सडक़ पर एक साथ दर्जनभर मौतें, असली जिम्मेदार ये हैं
10-Apr-2024 2:54 PM
‘छत्तीसगढ़’ का  संपादकीय :   सडक़ पर एक साथ दर्जनभर  मौतें, असली जिम्मेदार ये हैं

तस्वीर / ‘छत्तीसगढ़’

छत्तीसगढ़ में कल राजधानी रायपुर से कुछ किलोमीटर दूर एक शराब कारखाने के कर्मचारियों को ड्यूटी से वापिस लेकर आ रही बस रास्ते में एक गहरी खदान में गिर गई, और 40-50 फीट नीचे गिरी बस से 12 लाशें निकाली गई हैं, और दर्जनों मजदूर-कर्मचारी जख्मी हैं। प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री ने भी इस घटना पर अफसोस जाहिर किया है। पहली खबर यह बताती है कि बस की हेडलाईट बंद हो गई थी, और ड्राइवर अंधेरी सडक़ पर अंदाज से बस चला रहा था। कारखाने ने मुआवजे और मृतक-परिवारों को नौकरी का वायदा किया है। सरकार ने जांच की घोषणा की है। इतने मेहनतकश लोगों की एक साथ मौत से कायदे से तो प्रदेश की सरकार को हिल जाना चाहिए, और उन तमाम बातों की तुरंत ही कड़ाई से जांच शुरू करनी चाहिए जो कि इस घटना की जिम्मेदार हो सकती हैं। मुसाफिर बसों में अगर हेडलाईट खराब होता है, तो उसकी जगह किसी वैकल्पिक लाईट का अलग से इंतजाम होना चाहिए, लेकिन गाडिय़ों को लेकर यही अकेली बात नहीं है। 

हम छत्तीसगढ़ में हर दिन सडक़ों पर कई मौतें देखते हैं। खासकर कारोबारी गाडिय़ां, बस, ट्रक, ऑटो, और दूसरी मालवाहक गाडिय़ां सडक़ के किसी भी नियम का सम्मान किए बिना इतनी मनमानी से चलती हैं कि यह समझ पड़ता है कि इन्हें सरकार के स्तर पर एक बहुत ही संगठित भ्रष्टाचार का संरक्षण मिला हुआ है। अगर आरटीओ और ट्रैफिक का भ्रष्टाचार इतना संगठित नहीं होता, तो क्या वजह है कि गाडिय़ां ओवरलोड चलतीं, मनमानी रफ्तार से चलतीं, और बहुत से मामलों में ड्राइवर नशे में भी रहते। हकीकत तो यह है कि सरकार चाहे जो हो, हमने अविभाजित मध्यप्रदेश के समय से आरटीओ और ट्रैफिक पुलिस को लोगों की जिंदगी बेचते हुए देखा है, और आम जनता बेबस रहती है क्योंकि वह गुंडागर्दी करती किसी कारोबारी गाड़ी को रोक नहीं सकती, उसका कुछ बिगाड़ नहीं सकती, और उसकी शिकायत पर कोई सुनवाई नहीं रहती। यह भी एक बड़ी वजह रहती है कि जब ट्रैफिक पुलिस आम जनता पर हेलमेट जैसे नियम लागू करना चाहती है, तो जनता के मन में पुलिस के लिए हिकारत रहती है, और वह पुलिस की बातों की इज्जत नहीं करती। संगठित भ्रष्टाचार सडक़ यातायात से जुड़े इन दोनों विभागों की साख को खत्म कर चुका है। अविभाजित मध्यप्रदेश में बहुत पहले एक परंपरा थी कि जो डिप्टी कलेक्टर एक बार आरटीओ बन जाते थे, उनका आईएएस में जाना, या कलेक्टर बनना मुश्किल हो जाता था, क्योंकि सरकार में भी सभी लोग यह जान जाते थे कि ये अफसर कितने भ्रष्ट रहे होंगे। 

कल की इस सडक़ दुर्घटना में कारखाने की स्टाफ बस के फिटनेस की जांच जब हुई भी होगी, तो महज रिश्वत देकर उसके कागज पूरे हो गए होंगे। मुसाफिर गाडिय़ों का यह हाल बहुत सी जिंदगियों को खतरे में डालता है। अभी कुछ दिन पहले इसी अखबार के संपादक ने रायपुर पुलिस को खबर की थी कि बैटरी से चलने वाले ऑटोरिक्शा रात में भी बिना लाईट जलाए चलते हैं क्योंकि लाईट न जलाने से ऑटोरिक्शा कुछ किलोमीटर ज्यादा चल सकता है। ऑटोरिक्शा ओवरलोड तो रहते ही हैं, वे अब रात में बिना लाईट भी चल रहे हैं, तो इससे जिंदगियों को कितना खतरा हो सकता है। शायद पिछले ही बरस बस्तर में एक स्कूली ऑटोरिक्शा की दुर्घटना में बच्चे बड़ी संख्या में मारे गए थे जितने कि किसी एक ऑटोरिक्शा में कानूनी रूप से बिठाई भी नहीं जा सकते थे। ऑटो में तीन लोगों को बिठाया जा सकता है, और इस दुर्घटना में सात बच्चे मारे गए थे, और दो बच्चे बुरी तरह जख्मी हुआ था। हम शहरों में एक-एक दर्जन बड़े मुसाफिरों को बिठाकर ऑटोरिक्शा आते-जाते देखते हैं जो कि चौराहों पर ट्रैफिक पुलिस के सामने रूके भी रहते हैं। बिना संगठित भ्रष्टाचार के ऐसा जानलेवा जुर्म पुलिस से अनदेखा तो रह नहीं सकता। 

आए दिन कहीं न कहीं मुसाफिर बस का एक्सीडेंट होते रहता है, और हर जगह से सुनाई पड़ता है कि बस अंधाधुंध रफ्तार से जा रही थी। निजी बसों में एक-दूसरे से आगे निकलने और मुसाफिर हासिल करने का गलाकाट मुकाबला चलता है, और इसी वजह से अंधाधुंध रफ्तार दिखती है। जब इनकी रफ्तार, इनके प्रेशर हॉर्न, सडक़ों पर इनका थम जाना नहीं रूकता है, तो जनता के मन में पुलिस के किसी भी निर्देश के लिए कोई सम्मान नहीं रह जाता। आरटीओ विभाग भारत के अधिकतर प्रदेशों में सबसे भ्रष्ट विभागों में से एक रहता है, और मध्यप्रदेश के समय से यह वहां से लेकर छत्तीसगढ़ तक संगठित भ्रष्टाचार का अड्डा बना हुआ है। सडक़ों की अधिकतर मौतों को हम इसी काली कमाई का नतीजा मानते हैं। इसके अलावा शहरों में ट्रैफिक विभाग में पोस्टिंग के लिए भी बड़े लेन-देन की परंपरा रही है, और हर महीने भुगतान की भी चर्चा रहती है। ऐसे में सडक़ों पर बेकसूर आम जनता की जिंदगी की नीलामी तो पहले ही लग चुकी रहती है। 
हमारा ख्याल है कि इस हादसे को मुख्यमंत्री के स्तर पर इस नजरिए से भी देखा जाना चाहिए कि प्रदेश के भ्रष्टाचार से सडक़ें कैसी खून से सन रही हैं। ऊंचे ओहदों पर बैठे ताकतवर लोग, और समाज में ताकत रखने वाले लोग अपनी बड़ी गाडिय़ों में चलते हैं, और उन्हें हादसों से नुकसान कम पहुंचता है। सडक़ों पर सबसे अधिक दुपहिया वाले मारे जाते हैं, और बाकी लोग मुसाफिर या कारोबारी गाडिय़ों में चलने वाले गरीब लोग। संपन्न और ताकतवर लोगों के मारे जाने की घटनाएं कम होती हैं। इन पर अफसोस जाहिर करके इन्हें इतिहास मान लेना ठीक नहीं है। इतिहास अगर किसी जगह अपने आपको सबसे अधिक दोहराता है, तो वह सडक़ हादसों की शक्ल में। जब तक अब तक के हादसों से सबक नहीं लिया जाएगा, सत्ता इस कमाई का लालच छोड़ नहीं पाएगी, तब तक बेकसूर अकाल मौतें होती ही रहेंगी। हम सडक़ सुरक्षा के बारे में लगातार लिखते हैं, सरकार का एक महकमा इसका अभियान चलाता है, लेकिन सरकार के ही दूसरे महकमे ऐसी कोशिशों पर पानी फेर देते हैं। जनता के बीच के कुछ लोगों को भी यह सोचना चाहिए कि संगठित सरकारी भ्रष्टाचार के खिलाफ किस तरह लोगों को जागरूक किया जा सकता है, किस तरह सडक़ों पर भ्रष्टाचार को घेरा जा सकता है, और कहां अदालत की मदद ली जा सकती है। बीती रात जिस घटना में दर्जन भर से अधिक लोग मारे गए हैं, उसकी दंडाधिकारीय जांच की घोषणा हुई है। यह जांच उसी दर्जे का अफसर करेगा जिस दर्जे के अफसर मोटी रकम देकर आरटीओ बनने के चक्कर में पड़े रहते हैं। अब ऐसी जांच से क्या उम्मीद की जा सकती है? सडक़ें आम लोगों के लिए रहती हैं, और अपनी लड़ाई उन्हीं को लडऩी पड़ेगी, जनता के समूह अगर ओवरलोड गाडिय़ों को घेरकर पुलिस को मौके पर बुलाने लगेंगे, तो हो सकता है कि कुछ सुधार हो सके। इसी तरह नियम तोडऩे वाली तमाम गाडिय़ों को घेरकर रोकने की जागरूकता अगर जनता में आएगी, तो ही उनके बच्चे महफूज रह सकते हैं। 

(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)     

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