संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : विश्वविद्यालयों को भ्रष्ट कुलपति कैसे विश्वस्तर पर पहुंचा सकते हैं?
12-Apr-2024 4:05 PM
‘छत्तीसगढ़’ का  संपादकीय :  विश्वविद्यालयों को भ्रष्ट  कुलपति कैसे विश्वस्तर पर पहुंचा सकते हैं?

भोपाल के राजीव गांधी प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय में करीब 20 करोड़ रूपए के घोटाले के आरोप में कुछ अरसा पहले वहां कुलपति रहे एक प्राध्यापक को पुलिस ने तलाश करते-करते छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में गिरफ्तार किया है। तीन मार्च को उनके खिलाफ जालसाजी का केस दर्ज हुआ, और तब से वे मोबाइल बंद करके फरार थे। एक रिश्तेदार के घर रायपुर में छुपे हुए उन्हें आधी रात पकड़ा गया। कुलपति के अलावा उस वक्त के रजिस्ट्रार और कुछ दूसरे अफसर भी फरार या गिरफ्तार हैं, और एक बैंक मैनेजर भी। ऐसी कुछ दूसरी खबरों को देखें तो कुछ अरसा पहले हैदराबाद में तेलंगाना विश्वविद्यालय के कुलपति को 50 हजार रूपए की नगद रिश्वत लेते हुए गिरफ्तार किया गया था। पिछले बरस तमिलनाडु में सरकारी फंड की अफरा-तफरी में वहां के कुलपति को गिरफ्तार किया गया था जो कि जाने-माने कृषि विशेषज्ञ भी थे। इनके खिलाफ कर्मचारी संघ ने ही शिकायत दर्ज कराई थी, और कुछ दूसरी शिकायतें भी उनके खिलाफ थीं। अभी भोपाल तकनीकी विश्वविद्यालय के कुलपति की गिरफ्तारी जिस मामले में हुई है, उसमें विश्वविद्यालय के करीब 20 करोड़ रूपए कुछ निजी खातों में डाल दिए गए थे, और गैरकानूनी तरीके से 25-25 करोड़ के चार एफडी बनाए गए थे। 

अब अगर भारतीय विश्वविद्यालयों की व्यवस्था देखें, तो कुलपति आमतौर पर पढ़ाई से परे तमाम किस्म की बातों में दिलचस्पी लेते दिखते हैं, खासकर खरीदी और कंस्ट्रक्शन में। ठेकेदारों से कमीशन लेने में कुलपति खुद चेक लेकर घर चले जाते हैं, और वहां पर केलकुलेटर से कमीशन का हिसाब करके, नगद रकम लेकर फिर चेक देते हैं। कहने के लिए उनका दर्जा बड़े-बड़े अफसरों से भी ऊपर रहता है, लेकिन अपनी इसी तरह की हरकतों के चलते हुए वे मंत्रालयों के बाबुओं से भी डरे-सहमे रहते हैं, और कुछ कुलपति हमने ऐसे भी देखे हैं जो राज्यपालों के करीबी निजी सहायकों को हर महीने रिश्वत देते हैं ताकि राजभवन में उनके खिलाफ कुछ हो न सके। विश्वविद्यालयों की व्यवस्था परले दर्जे की भ्रष्ट हो चुकी है, और अगर देश में अब भी कुछ विश्वविद्यालयों की इज्जत बाकी है, तो वह उनके भ्रष्टाचारमुक्त होने की वजह से नहीं है, बल्कि वहां पढ़ाई बहुत अच्छी होने की वजह से है जो कि कुलपति की वजह से नहीं है, बल्कि कुलपति के होने के बावजूद है। विश्वविद्यालयों के कई प्राध्यापक आज भी अपने पढ़ाने को लेकर गौरव पाते हैं, और ऐसे ही लोगों की वजह से हिन्दुस्तान के कुछ गिने-चुने विश्वविद्यालय दुनिया के बेहतर विश्वविद्यालयों की फेहरिस्त में जगह पाते हैं। 

भोपाल, हैदराबाद, और तमिलनाडु के कुछ कुलपति तो भ्रष्टाचार में पकड़ा गए हैं, लेकिन अधिकतर कुलपति बच निकलते हैं। पूरा विश्वविद्यालय जानता है कि वे कितने भ्रष्ट हैं, गोपनीय परीक्षा कार्य से लेकर हर किस्म की छपाई तक उनका कमीशन बंधा रहता है, और फिर भी उनके खिलाफ आमतौर पर कार्रवाई नहीं होती। हमने बहुत से विश्वविद्यालय कर्मचारी संघों की शिकायतें देखी हैं जो कि पहली नजर में वजनदार लगती हैं, लेकिन राज्य सरकार और राजभवन दोनों ही ऐसी शिकायतों को अनदेखा करते रहते हैं। इससे कई तरह के सवाल खड़े होते हैं। पहली बात तो यह कि अगर कुलपतियों को ठेकेदारी और सप्लाई का धंधा तय करना है, तो इसके लिए किसी प्राध्यापक को कुलपति बनाने की क्या जरूरत है? किसी भी अच्छे बड़े अफसर को कुलपति बनाया जा सकता है, और कई मौकों पर ऐसा हुआ भी है। अगर कुलपति को शिक्षा की उत्कृष्टता के बजाय खर्च के कामों में ही दिलचस्पी लेनी है, तो एक भूतपूर्व प्राध्यापक के बजाय एक वर्तमान या भूतपूर्व अफसर इस काम में अधिक काबिल हो सकते हैं। कुलपति को तो रूपए-पैसे के, टेंडर-ठेके और सप्लाई के कामों से अपने आपको परे रखकर अकादमिक उत्कृष्टता की कोशिश करनी चाहिए, जो कि अब दिखना बंद हो चुकी है।

यह बात कुछ अटपटी लगती है कि जिन संस्थानों का नाम विश्वविद्यालय है, उनका दायरा सिकुड़ते चल रहा है। जिन प्रदेशों में पहले एक-एक विश्वविद्यालय ही होते थे वहां पर अब दर्जनों विश्वविद्यालय होने लगे हैं, और छत्तीसगढ़ के कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता विश्वविद्यालय को देखें तो इसने 20 बरस की अपनी जिंदगी में किसी साल एक हजार से अधिक छात्र नहीं पाए हैं। अब करोड़ों रूपए सालाना खर्च करके अगर असली और कागजी कुल जमा हजार-पांच सौ लोगों को ही पत्रकारिता पढ़ाना है, और इस दर्जे की पढ़ाना है कि वहां से कोई अच्छे पत्रकार न निकल सकें, तो फिर ऐसे विश्वविद्यालयों की जरूरत क्या है? और एक साधारण कॉलेज जितनी ही क्षमता से ऐसे कागजी विश्वविद्यालय चलें, तो इनमें विश्व स्तर की क्या बात है? क्या सरकार के लिए यह बेहतर नहीं होता कि इसे किसी दूसरे मौजूदा विश्वविद्यालय में विलीन कर दिया जाए, और वहां पत्रकारिता का एक विभाग चलाया जाए जो कि प्रशासनिक जिम्मेदारियों से मुक्त होकर सिर्फ पेशेवर पढ़ाई पर ध्यान दे सके? 

भारत की उच्च शिक्षा व्यवस्था की हालत भारत की प्राथमिक शिक्षा से जरा भी बेहतर नहीं है। कहने के लिए इस देश की बहुत बड़ी नौजवान कामकाजी फौज को ताकत की तरह गिनाया जाता है, लेकिन यहां के विश्वविद्यालयों से निकलने वाले छात्र-छात्राओं का हाल कहीं भी अंतरराष्ट्रीय स्तर के कामकाज के लायक नहीं रहता। गिने-चुने उत्कृष्ट संस्थान हैं जिनमें सबसे आगे जो जेएनयू है, उसे गद्दार साबित करने में राष्ट्रवादी ताकतें हर दिन 25 घंटे काम करती हैं, और राजस्थान के एक भाजपा विधायक जेएनयू कैम्पस से हर दिन इस्तेमाल किए गए तीन हजार कंडोम ढूंढने का सार्वजनिक दावा करते थे। जो संस्थान दुनिया भर में देश की उत्कृष्टता स्थापित करते हैं, उन्हें देश का दुश्मन साबित करते हुए उसका मनोबल तोड़ा जाता है। एक तरफ किसी मामूली और भ्रष्ट सरकारी अफसर की तरह के कुलपति जो कि राजनीतिक असर से नियुक्त किए जाते हैं, और दूसरी तरफ विश्वविद्यालयों में बढ़ती हुई सरकारी दखल। मानो यह भी काफी नहीं था तो अब कुलपतियों की जमात में अनगिनत लोग परले दर्जे के भ्रष्ट भी होने लगे हैं, और जिस तरह आरटीओ रिश्वत लेते हैं, उसी तरह कुलपति भी रिश्वत लेने लगे हैं। ऐसे में इस देश में उच्च शिक्षा किस किनारे पहुंच सकती है?      (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)   

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