संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : पार्टियों और सरकारों की खुली सोशल ऑडिट जरूरी
14-Apr-2024 4:31 PM
‘छत्तीसगढ़’ का  संपादकीय : पार्टियों और सरकारों की खुली सोशल ऑडिट जरूरी

इन दिनों हिन्दुस्तान में चुनावी मौसम चल रहा है। पिछले छह महीने ऐसे ही गुजरे। पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों को मिनी आम चुनाव कहा जा रहा था, और अब जब आम चुनाव की प्रक्रिया शुरू हो गई है, तो 4 जून के नतीजों के बाद यह समझ पड़ेगा कि क्या इन नतीजों का पांच राज्यों के विधानसभा-नतीजों से कोई मेल बैठ रहा है। फिलहाल भाजपा और उसके सहयोगी दल, कांग्रेस और उसके सहयोगी दल, और इन दोनों गठबंधनों से बाहर की क्षेत्रीय पार्टियां, इन सबके चुनावी घोषणापत्रों का दौर चल रहा है। अलग-अलग किस्म की संभव और असंभव दिखने वाली घोषणाएं की जा रही हैं, और मीडिया भी इनके कवरेज में मगन हो गया है। आखिर पार्टियां अगले पांच बरस के लिए सत्ता में आने पर जनता को जिस किस्म के सपने दिखाती हैं, उनका समाचार-महत्व तो होता ही है।

लेकिन कुछ गैरराजनीतिक संगठनों को चुनावी घोषणापत्रों का सोशल ऑडिट करना चाहिए, और सरकारों के कार्यक्रमों का भी। छत्तीसगढ़ में भाजपा की रमन सिंह सरकार के चलते हर आदिवासी परिवार को गाय बांटने की योजना कुछ महीनों के भीतर ही हवा हो गई थी। इसी तरह खाड़ी के बजाय बाड़ी से आने वाले तेल की रतनजोत की योजना भी काफूर हो गई थी। छत्तीसगढ़ में भूपेश बघेल की पिछली सरकार में पिछले चुनावी वायदे की शराबबंदी होना तो दूर रहा, शराब का हजारों करोड़ का अवैध कारोबार जरूर हो गया। भूपेश सरकार ने नरवा-गरवा-घुरवा-बाड़ी नाम की जो अतिमहत्वाकांक्षी ग्रामीण विकास योजना बनाई थी, उसका कोई इस्तेमाल विधानसभा चुनाव में नहीं किया गया। आज देश में भाजपा घोषणापत्र जारी कर रही है, लेकिन दस बरस के मोदीराज में जो बड़े फैसले लिए गए थे, उसका कोई भी जिक्र पिछले पांच बरस में भी कभी नहीं हो रहा। नोटबंदी को देश के कालेधन पर सर्जिकल स्ट्राईक कहा गया था, और आतंक पर भी। इन दोनों की सेहत पर नोटबंदी से कोई फर्क नहीं पड़ा, और सिर्फ गरीबों की मौत हुई, छोटे कारोबारी बर्बाद हुए, लोगों की महीनों की कमाई मारी गई, बैंकों पर और रिजर्व बैंक पर दसियों हजार करोड़ का बोझ पड़ा, और हासिल आया शून्य। कुछ लोगों का तो यह भी कहना है कि कारोबारियों के पास जितने नकली नोट पड़े हुए थे, वो भी आपाधापी के उस दौर में बैंकों में खपा दिए गए, और नोटबंदी से ऐसे लोगों ने फायदा उठा लिया, और ईमानदार लोग भारी नुकसान में रहे। 

चुनाव के वक्त कई किस्म के वायदे किए जाते हैं, उनमें से कुछ पूरे होते हैं, कुछ पूरे नहीं भी होते हैं। लेकिन वायदों से परे पांच बरस सरकार जितने तरह के दूसरे काम करती हैं, उनको चुनाव में क्या कहकर, क्या दिखाकर लोगों के सामने पेश किया जाता है, यह भी देखना चाहिए। चुनावी घोषणापत्र तो पार्टियों के होते हैं, लेकिन पार्टियां अपने आपको सत्ता और विपक्ष में बंटी हुई होती हैं, और सरकार को भी अपने कार्यकाल को लेकर जवाबदेह रहना चाहिए, खासकर सत्तारूढ़ पार्टी को। अगर सरकार चलाते हुए बहुत बड़े-बड़े ऐतिहासिक और नाटकीय फैसले लिए गए, लेकिन उनका नतीजा यह रहा कि उन्हें चुनाव के दौरान गिनाया भी न जा सका, तो यह बात साफ है कि उनसे कोई फायदा नहीं हुआ, बल्कि जनता को वे फैसले याद न आ जाएं, इसकी कोशिश सत्तारूढ़ पार्टी करती रहती है। इसलिए किसी पार्टी के दो घोषणापत्रों की तुलना तो ठीक है, सत्तारूढ़ पार्टी के प्रमुख कार्यक्रमों को अगर चुनावों में छोड़ दिया जा रहा है, तो उन्हें लेकर भी सवाल होने चाहिए। 

भारत में जनसंगठनों की जगह एकदम खत्म हो गई है। एक-दो ही ऐसे संगठन हैं जो चुनावों के वक्त उम्मीदवारों की दौलत, पढ़ाई, और उनके जुर्म के इतिहास का विश्लेषण सामने रखते हैं। लेकिन पिछली सरकार के कार्यकाल का एक व्यापक विश्लेषण भी जनता के सामने आना चाहिए, और हिन्दुस्तान में मीडिया तो अब यह काम करता नहीं, कर सकता नहीं, इसलिए किसी जनसंगठनों को ही यह बीड़ा उठाना पड़ेगा। किसी सरकार के दस-दस, बीस-बीस हजार करोड़ के कार्यक्रमों का अगर इतना भी योगदान नहीं रहा कि मौजूदा सत्तारूढ़ पार्टी उन्हें जनता के सामने गिना सके, तो यह जाहिर है कि ऐसे कार्यक्रम बहुत बुरी तरह असफल हुए हो, और चाहे चुनाव आयोग की ऐसी शर्तें न रहे, तो भी जनसंगठनों को जनता के सामने सच्चाई को सही संदर्भों में रखना चाहिए, ताकि उसका फैसला एक जानकार का फैसला हो सके। 

देश में आज सूचना का अधिकार कानून तो लागू है, लेकिन उसके चलते हुए भी सूचना न देने पर सरकारी विभाग आमादा रहते हैं। सुप्रीम कोर्ट और चुनाव आयोग की मेहरबानी से देश में आज पहले के मुकाबले बहुत अधिक जानकारी तक जनता की पहुंच बन गई है। हाल ही में चुुनावी बॉंड को लेकर सुप्रीम कोर्ट का ये फैसला आया है उससे भी यह बात साबित होती है कि सूचना का अधिकार कितनी अहमियत रखता है, और उसी की वजह से यह साफ हो पाया है कि किस कारोबारी ने किस तारीख पर, कौन सा नोटिस मिलने के बाद, किन पार्टियों को कितना चंदा दिया है, और किस तरह उस कारोबारी के खिलाफ जांच बंद हो गई है। पार्टियों के चुनावी घोषणापत्रों के मुकाबले उनके सत्ता के कार्यकाल की कई दूसरी बातें अधिक अहमियत रखती हैं, और पांच बरस पहले के चुनावी घोषणापत्र से इस बार तुलना करना तक तो ठीक है, लेकिन बाकी बातों का हिसाब भी सार्वजनिक रूप से होना चाहिए।             

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