संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : ऐतिहासिक चुनौतियों के मौकों पर किनारे खड़ा हुआ भारत कहां पहुंचेगा?
15-Apr-2024 4:40 PM
‘छत्तीसगढ़’ का  संपादकीय :   ऐतिहासिक चुनौतियों के मौकों पर किनारे खड़ा  हुआ भारत कहां पहुंचेगा?

मध्य-पूर्व के देशों पर एक अलग खतरा मंडरा रहा है। ईरान और इजराइल के बीच बरसों से चली आ रही परोक्ष तनातनी अब आमने-सामने के हमलों में तब्दील हो गई है, और आस-पड़ोस के तमाम देश एक खेमेबंदी में फंसने की नौबत में खड़े हुए हैं। इजराइल पहले से फिलीस्तीनी के खिलाफ जंग छेडक़र बहुत बड़ा जनसंहार करके दुनिया की नजरों में एक युद्ध अपराधी तो बना हुआ ही था, और हालात इतने खराब हो चुके हैं कि इजराइल को दुनिया के इस हिस्से में हर किस्म की शह देने वाला अमरीका भी बेकसूर फिलीस्तीनियों की दसियों हजार की संख्या में मौतों से सहम गया है, और उसने भी इजराइल से बेकसूरों की मौत रोकने को कहा है। इस बीच मानो इजराइल पर परेशानियां कम हों, उसने सीरिया के दमिश्क में ईरानी वाणिज्य दूतावास पर मिसाइल हमला किया, और कुछ दूसरे अफसरों के साथ-साथ ईरान के एक बड़े सीनियर फौजी कमांडर की भी मौत हुई थी। जैसा कि दुनिया भर में माना जाता है, किसी भी देश में किसी दूसरे देश के कूटनीतिक ठिकाने उस दूसरे देश की जमीन ही माने जाते हैं, इसलिए ईरान में इसे अपने पर इजराइली हमला करार दिया, और उसके जवाब में कल सैकड़ों ड्रोन और मिसाइल इजराइल की तरफ रवाना किए जिन्हें इजराइल, अमरीका, और ब्रिटेन की फौजों ने तकरीबन पूरे का पूरा रास्ते में ही खत्म कर दिया। इजराइल की जमीन पर इसका बहुत मामूली सा असर हुआ, लेकिन इस टकराव को लेकर इन दोनों देशों से, और मध्य-पूर्व के इस इलाके से किसी भी तरह का वास्ता रखने वाले देशों में चौकन्नापन दिख रहा है। अमरीका ने अपने पुराने साथी और पिट्ठू इजराइल से यह साफ कर दिया है कि अगर वह ईरान पर जवाबी हमला करेगा, तो उसमें अमरीकी फौज शामिल नहीं होगी। शायद ब्रिटेन का भी यही रूख रहेगा, और ये देश इजराइल पर कोई हमला होने पर तो उसका साथ देंगे, लेकिन उससे परे ईरान पर हमले के लिए नहीं जाएंगे। 

अब हम भारत जैसे देश के नजरिए से दुनिया की आज की हालत को देखते हैं, तो एक तरफ भारत का सबसे पुराना देश रूस लंबे समय से यूक्रेन पर हमला करके वहां उलझा हुआ है, और इसने नाटो देशों को भी मजबूर कर दिया है कि वे यूक्रेन का साथ देकर रूस को खोखला करने की कोशिश करें। ऐसे में भारत ने जंग से परे, रूस से लेन-देन जारी रखा है, और उसने पश्चिम के उस आर्थिक बहिष्कार को अनदेखा कर दिया है जिससे नाटो देश रूस को दीवालिया करने का सपना देख रहे थे। भारत में अमरीका और बाकी नाटो देशों के साथ अपने संबंध बिगाड़े बिना रूस के सस्ते तेल का सौदा जारी रखा है, और इस मामले में वह चीन के अलावा दुनिया में रूस का सबसे बड़ा मददगार बना हुआ है। भारत ने रूस और यूक्रेन के बीच सही और गलत की बात उठाए बिना अपने देश के आर्थिक हित देखे हैं कि उसे सस्ता तेल कहां से मिल सकता है। कुछ इसी तरह की नौबत भारत के सामने इजराइल और अमरीका को लेकर आ खड़ी हुई है कि वह इजराइल के कुल निर्यात का सबसे बड़ा आयात करने वाला देश तो है ही, ईरान के साथ भी उसके बहुत अच्छे संबंध हैं। और इस ताजा फौजी तनाव के पहले के कई महीनों से फिलीस्तीन पर जो इजराइली जंगी हमला चल रहा है, उसमें भी भारत ने अब तक अपने को अलग रखा है जो कि भारत की पुरानी परंपरागत विदेश नीति से अलग बात है। ऐसा लग रहा है कि भारत अपनी आज की विदेश नीति में अपने राष्ट्रीय हितों को सबसे ऊपर रख रहा है, और न तो वह किसी ऐतिहासिक परंपरा को जारी रखने के तनाव में है, और न ही वह अंतरराष्ट्रीय मध्यस्थ बनने के उकसावों और न्यौतों पर ध्यान दे रहा है। उसने अपने आपको किसी भी द्विपक्षीय तनाव में शामिल होने से रोक रखा है, और वह बारीकी से दुनिया के रूख को देख भर रहा है। फिलीस्तीन जैसा जरूरतमंद और मुसीबतजदा देश गांधी के भारत से इससे बेहतर उम्मीद कर रहा होगा, लेकिन भारत ने किसी नैतिक दबाव में अपने वर्तमान हितों को छोडऩे से परहेज किया है। विदेश नीति के बेहतर जानकार लोग यह बता सकेंगे कि भारत का यह रूख अंतरराष्ट्रीय मामलों में उसकी वैश्विक लीडरशिप की किसी भी संभावना को बेहतर या बदतर, क्या करेगा, लेकिन आज का रूख तो दिखता यही है कि भारत अपने राष्ट्रीय हितों से परे के तमाम मामलात से दूर, विश्व समुदाय की किसी भी तरह की अगुवाई से दूर बैठा हुआ है। हम इस रूख के अच्छे या बुरे होने, इससे नफा या नुकसान होने पर नहीं जा रहे हैं, लेकिन फिलीस्तीन के साथ जैसा जुल्म हो रहा है उसे देखते हुए अगर हिन्दुस्तान की चुप्पी नहीं टूट रही है, तो यह विश्व इतिहास में किसी महान देश की तरह तो दर्ज नहीं होगी। नेहरू और इंदिरा को छोड़ भी दें, तो भी गांधी ने अपने पूरे जीवन फिलीस्तीनियों के हक को लेकर जितना लिखा है, वही भारत का ऐतिहासिक रूख था, लेकिन वह आज कायम नहीं रह गया है। 

दुनिया में रूसी हमले से शुरू हुई रूस-यूक्रेन की जंग का बड़ा असर देखने मिल रहा है, रूस के जितने खोखले हो जाने की उम्मीद पश्चिम कर रहा था, वैसा तो कुछ भी नहीं हुआ है, बल्कि तीन दिन पहले इकॉनामिस्ट पत्रिका के एक पॉडकास्ट में बताया गया कि रूस की हालत जंग के पहले के मुकाबले बेहतर हो रही है। अमरीका सहित बाकी नाटो देशों का बहुत बड़ा पंूजीनिवेश यूक्रेन की मदद की शक्ल में इस मोर्चे पर हो चुका है, और रूस को खोखला करने का मकसद पूरा भी नहीं हुआ है। दूसरी तरफ मध्य-पूर्व में फिलीस्तीन पर इजराइली फौजी युद्ध-अपराधों से अमरीका सहित कुछ और इजराइल-समर्थक देशों की फजीहत चल ही रही थी। ऐसे में बैठे-ठाले इजराइल ने सीरिया में ईरानी वाणिज्य दूतावास पर हमला करके एक नया बवाल खड़ा कर दिया। अब मध्य-पूर्व के इस इलाके की यह दोहरी तनातनी अमरीका जैसे देश को आगे कितना उलझाएगी, यह अभी साफ नहीं है, लेकिन एक दूसरी बात बड़ी साफ है। रूस-यूक्रेन के वक्त से चीन रूस के साथ मजबूती से बना हुआ है, और अभी शायद वह ईरान के साथ खड़ा रहेगा। जंग में साथ देना एक अलग बात है, लेकिन अगर रूस, फिलीस्तीन, और ईरान, इन सारे मोर्चों पर अगर चीन एक बड़ी, और अमरीका से परे की भूमिका निभाता है, तो यह दुनिया के शक्ति संतुलन में अमरीका के लिए एक परेशानी की बात हो सकती है। यहां पर अभी हम ताइवान जैसे मुद्दे पर चीन और अमरीका के सीधे टकराव की जटिलता को और नहीं जोड़ रहे हैं, लेकिन यह बात साफ है कि इजराइल का हमलावर रूख कुल मिलाकर अमरीका के लिए एक बड़ी दिक्कत खड़ी कर रहा है। आगे ये तमाम टकराव चाहे जहां पहुंचें, भारत अगर इन पर तटस्थ और निरपेक्ष बना रहेगा, वह बीच-बचाव की किसी कोशिश में भी शामिल नहीं रहेगा, तो वह दुनिया में महत्व का एक मौका खोने का खतरा उठाएगा। देखते हैं आगे क्या होता है।     

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