विचार / लेख

कांग्रेस मय भाजपा और आर एस एस!
15-Apr-2024 9:07 PM
कांग्रेस मय भाजपा और आर एस एस!

-डॉ. आर.के. पालीवाल
जब से राजनीति सेवा से ज्यादा स्वार्थ सिद्ध करने का धंधा बन गई है तब से हवा का रुख सूंघकर चुनावी वर्ष में नेताओं का दल बदल करना बहुत आम बात हो गई है । जिन पूर्व मंत्रियों,सांसदों और विधायकों को अपने या अपने जीवन साथी और बच्चों को लोकसभा, राज्यसभा या विधानसभा के टिकट नहीं मिलते वे टिकट मिलने की संभावना वाले किसी भी दल में घुसने की योजना बनाने लगते हैं। कभी अपने विशिष्ट चाल चरित्र और चेहरे पर गर्व करने वाली भारतीय जनता पार्टी ने पिछ्ले कुछ समय से जिस तरह से दूसरे दलों के छोटे बड़े नेताओं को भाजपा में घुसाने की मुहीम चलाई है उसने भाजपा के चाल चरित्र और चेहरे को पूरी तरह बदल दिया। अब संघ के पुराने लोगों को नई भाजपा का चेहरा पहचानने में काफी मशक्कत करनी पड़ती है। रोजाना पहले से ज्यादा कांग्रेसमय होती भाजपा में जिस तरह से कांग्रेसियों की आमदरफ्त तेजी से बढ़ रही है कुछ दिन बाद उससे भाजपा में दो धड़े उसी तरह साफ साफ दिखाई देने लगेंगे जैसे इलाहाबाद के संगम तट पर काफी दूर तक गंगा और यमुना का पानी एक दूसरे से मिलने के बाद भी अलग अलग दिखाई देता है।

पिछ्ले कुछ वर्षों में जिस तरह से भारतीय जनता पार्टी ने कांग्रेस और अन्य विपक्षी दलों से भाजपा में आने वाले नेताओं के लिए दरवाजे, खिड़कियां और रोशनदान तक खोल दिए हैं उससे भाजपा का वोट प्रतिशत निश्चित रूप से थोड़ा बढ़ सकता है लेकिन वर्तमान भाजपा अब मिस्सी रोटी के आटे की तरह हो गई है जिसमें गेहूं और चने के आटे को एक साथ मिलाने के बाद भी अलग अलग रंग में पहचाना जा सकता है। कांग्रेस की संस्कृति से आए लोग आर एस एस की संस्कृति से नाभिनाल संबद्ध रहे पुराने भाजपाइयों से एकमेव होने में सहज महसूस नहीं करते। यह स्वाभाविक भी है। उदाहरण के तौर पर पाकिस्तान में जिस तरह से विभाजन के समय भारत से पाकिस्तान आए लोगों को मुहाजिर के तौर पर देखा जाता है वैसा ही हाल दूसरे दलों से निकलकर नए दल में आए लोगों के साथ होता है। नजमा हेपतुल्ला के मामले से भी इसे समझा जा सकता है। अपनी सक्रिय राजनीतिक पारी का लंबा हिस्सा कांग्रेस में बिताकर अपने तीसरे पहर में भाजपा में आने के बाद शुरूआती आवभगत का दौर बीतने पर वे नेपथ्य में चली गई। उन्हें कांग्रेस में जिस तरह का मान सम्मान मिला भाजपा में आकर उसमें कोई वृद्धि होती नहीं दिखी।

ज्योतिरादित्य सिंधिया और हेमंता बिश्व शरमा जैसे कुछ नेता ही ऐसे हैं जिन्हें दल बदलकर भाजपा में केंद्र सरकार के कैबिनेट मंत्री और मुख्यमंत्री जैसे सम्मान के पद मिले हैं। इसका कारण यह है कि इन नेताओं और इनके पीछे चलने वाले नेताओं ने मध्यप्रदेश और असम जैसे प्रमुख राज्यों में भाजपा की राज्य सरकार बनवाई है। संभव है कि इन राज्यों में भाजपा की स्थिति मजबूत होने पर उन्हें भी वैसे ही किनारे कर दिया जाए जैसे भाजपा ने अपने कद्दावर नेता शिवराज सिंह चौहान और वसुंधरा राजे को मध्यप्रदेश और राजस्थान की राजनीति के शीर्ष से बहुत दूर कर दिया है। 
       
जिस तरह से भाजपा विशेष रूप से कांग्रेस के नेताओं को थोक में अपनी तरफ मिला रही है उससे भाजपा के राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ से जुड़े पुराने नेताओं का असहज होना भी स्वाभाविक है और भाजपा के अंदर भी दो स्पष्ट खेमे बनना भी स्वाभाविक है। यह भारतीय राजनीति में उतना ही स्वाभाविक है जैसे आम भारतीय परिवारों में घर की बेटी और घर की बहू के प्रति अलग व्यवहार होता है। कालांतर में यह दो धाराओं के अंदरूनी कलह के रूप में भी सामने आ सकता है। ऐसा लगता है कि अभी भाजपा का हाइ कमान केवल आसन्न लोकसभा चुनाव पर फोकस कर रहा है इसलिए भविष्य के बारे में नहीं सोच रहा। धुर विरोधी विचारधारा के लोगों का बड़ी संख्या में भाजपा में प्रवेश क्या गुल खिलाएगा यह काफी हद तक लोकसभा चुनाव के परिणाम पर भी निर्भर करेगा।

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