विचार / लेख
अशोक पांडे
एक बार एक गुरुजी थे। जाहिर है उनके बहुत सारे चेले थे। उनका एक प्रिय चेला भी था जिसे भोर से आधी रात तक गुरुजी की सेवा का जिम्मा मिला हुआ था। कभी-कभार उससे गलती हो जाती। गुरुजी क्रोधी स्वभाव के थे सो गलती होने पर कभी लात-घूंसा करते कभी चेले का दो-दो दिन तक खाना बंद। चेला अभी लडक़ा ही था सो भले दिनों की आस में बगैर शिकायत किए खटता रहता।
लोग बताते थे गुरुजी किसी जमाने में चीन गए थे। वहां रहने वाले उनके एक भक्त ने उन्हें चीनी मिट्टी से बना एक बहुत महंगा कप तोहफे में दिया था। गुरुजी सुबह-शाम की चाय उसी कप में पीते। चाय पीते हुए वे अपने चीनी भक्त की अमीरी और कप की अद्वितीयता के बारे में कुछ न कुछ जरूर कहते। यह सब अनगिनत बार सुन चुकने के बाद चेले के भीतर समूची चीनी प्रजाति के प्रति ऐसी नफरत जमा हो गई कि वह सपने में कई बार उस चीनी भक्त की ठुकाई कर चुका था जिसे उसने कभी देखा तक न था।
‘हे ईश्वर! हे ईश्वर!’ उस दिन बर्तन धोते हुए चेले की तंद्रा टूटी तो उसके मुंह से बस यही निकल रहा था। उसके हाथ से फिसल कर चीनी कप चकनाचूर हो चुका था। अब गुरुजी उसकी खाल उधेड़ देंगे। उसने बगीचे की तरफ निगाह की जहाँ गुरुजी भक्तों को दोपहर का प्रवचन दे रहे थे।
बहुत देर विचार करने के बाद चेला गुरुजी के सामने जाकर खड़ा हो गया।
‘क्या बात है बेटे?’ आसपास लोग थे सो गुरुजी ने नकली लाड़ जताते हुए पूछा।
‘गुरुजी, मृत्यु क्यों आती है?’
ऐसे विषयों पर अनर्गल बोलते जाने की गुरुजी की पचास साल की प्रैक्टिस थी। आँखें बंद कीं और बोलने लगे,‘मृत्यु तो एक प्राकृतिक प्रक्रिया है। उसने हर किसी के पास पहुंचना है। हर प्राणी और हर वस्तु की मृत्यु अवश्यंभावी है। हमने मृत्यु के सामना न तो भय से करना चाहिए न क्रोध से। लेकिन तुम पूछ क्यों रहे हो?’
‘गुरुजी ऐसा है कि मैं लम्बे समय से आपकी गद्दी के नीचे से थोड़े-थोड़े पैसे चुरा रहा था। मेरी जरूरत भर के पैसे इक_े हो गए हैं। बहुत सुन ली आपकी बकबक। जा रहा हूँ मोमो-चाऊमीन का ठेला लगाने और’ टूटे हुए कप के टुकड़े जेब से निकाल कर सामने फेंककर भागता हुआ चेला पलट कर चिल्लाया, ‘तुम्हारे इस सडिय़ल कप की भी ना वो हो गई जो सबकी होती है! क्या कहते हैं। प्राकृतिक प्रक्रिया!’