विचार / लेख
अणु शक्ति सिंह
गीता प्रेस इसलिए भी निन्दित है कि उसने ईश्वर को मनुष्यों का आराध्य या मित्र भर नहीं रहने दिया, उसे सबसे बड़ा डर बना दिया।
हालाँकि यह डर कुछ हद तक सभ्यता को नियंत्रित रखने में सहायक था। एक तरह से हिन्दू धर्म के लिए अनाधिकारिक रूल बुक की तरह भी काम कर रहा था, हम बड़े स्तर पर देखें तो गीता प्रेस के गुटकों और चालीसाओं में एक खास तरह का डर वर्णित किया जाता है।
आपने इस कथा का पाठ नहीं किया तो ईश्वर का दंड मिलेगा। इस भगवान की अवहेलना की तो ऐसे पाप के भागी होंगे। गरुड़ पुराण के वर्तमान रूप में औरतों और दलितों के लिए ऐसे दंड वर्णित हैं कि रूह काँप जाए।
बानगी देखिए, पति की बात नहीं सुनने वाली स्त्रियों की तुलना जोंक से की गई है। वैसे ही व्यवहार की बात भी की गई है।
इनके एक प्रमुख लेखक स्वामी रामसुख दास गृहस्थ जीवन पर अपनी निर्देशिका में लिखते हैं, ‘पति से मार खाने वाली औरतों को यह मानना चाहिए कि उनके पूर्व जन्म का पाप कट रहा है।’
आश्चर्य यह है कि गीता प्रेस पिछले कई दशकों से धर्म ग्रंथों के अतिरिक्त बड़ी संख्या में वही लिजलिजी किताबें छाप रहा है। कल्याण पत्रिका की बात तो छोड़ ही दी जाए। विधवा विवाह से लेकर सती प्रथा उन्मूलन तक का विरोध इसने किया है। कई पीढिय़ों से बहुसंख्यक समाज में लडक़े और लड़कियाँ इसे पढक़र ही अमूमन अपना मानस तैयार कर रहे हैं।
ऐसा नहीं होता तो भक्तों का यह रेला देखने को नहीं मिलता। मैं यह मानती हूँ कि नौ साल से जो हो रहा है, गीता प्रेस ने उसकी पीठिका सौ साल पहले से तैयार कर दी थी।
हाँ, एक करोड़ लौटाने के बारे में, 2017 से 2022 के दरमियान इस प्रेस के कुल व्यापार में बाईस करोड़ का उछाल आया है। यह डॉक्यूमेंटेड यानी वाइट मनी का आंकड़ा है। हमारे देश में काले धन की लीला तो लोग जानते ही हैं।
जब इतने पैसे यूँ ही बरस रहे हों तो कोई नाखून काटकर शहीद क्यों न बने? अर्थात् थोड़े पैसे छोडक़र वाहवाही क्यों न हासिल करे?