विचार / लेख
प्रिय दर्शन
1. जिसे गंभीर साहित्य कहते हैं, वह आठवीं से मैंने पढऩा शुरू किया। मां, पापा, मामा- सबने हिंदी में एमए किया था। घर में प्रेमचंद के ‘गोदान’, प्रसाद की ‘कामायनी’ के अलावा ‘चंद्रगुप्त’ और ‘ध्रुवस्वामिनी’, मोहन राकेश का ‘आषाढ़ का एक दिन’ और दिनकर का ‘चक्रवाल’ जैसा विराट संग्रह और ‘रश्मिरथी’ थे। इसके अलावा निराला, महादेवी और पंत के कविता संग्रह थे। अज्ञेय के भी कविता संग्रह थे। आलोचना की कई किताबें थीं जिनमें मेरी दिलचस्पी नहीं थी। इसके अलावा धर्मयुग और सारिका जैसी पत्रिकाएं आती थीं। दिनकर मेरे प्रिय कवि हो चुके थे।
2. लेकिन जिसे धुआंधार पढ़ाई कहते हैं, वह इंटरमीडिएट के बाद शुरू हुई। रांची के दो पुस्तकालयों- रामकृष्ण मिशन लाइब्रेरी और फादर कामिल बुल्के शोध संस्थान को अगले तीन साल में मैंने छान मारा। इसके अलावा कुछ किताबें स्टेट लाइब्रेरी और संतुलाल पुस्तकालय से भी पढ़ीं। इस दौरान दोस्तों से किताबों का लेन-देन भी चला।
3 लेकिन मैंने उन दिनों कुल कितनी किताबें पढ़ी होंगी? कुछ महीने जब रोज़ एक किताब पढऩे की नासमझ धुन थी और जिसके तहत शरतचंद्र के सारे उपन्यास निबटाए गए थे- शायद सप्ताह में एक किताब का औसत पड़ा होगा। यानी साल में 52 किताबें। विश्वविद्यालय के समय के चार साल में यही औसत जोड़ ले और महीनों की रोजमर्रा पढ़ाई भी शामिल कर लें तो अधिकतम 250 किताबें।
4 बाद के वर्षों में पढऩा कम हो गया। बहुत उदार हो कर जोड़ूं तो शायद पंद्रह दिन में एक किताब का औसत। यानी पच्चीस किताबें हर साल। इस ढंग से बीते तीस साल में 750 किताबें। हालांकि यह गिनती बहुत बढ़ा-चढ़ाकर की गई है। कहने का मतलब यह कि अभी तक कुल मिलाकर हजार किताबें भी शायद मुश्किल से पढ़ी हों। यह भी संभव है कि असली संख्या इसकी आधी या उससे भी कम हो।
5. दरअसल आज का आदमी अपने पूरे जीवन काल में मुश्किल से पांच सौ-हज़ार किताबें पढ़ सकता है- भले ही उसके निजी पुस्तकालय में कई हजार किताबें हों। तो कभी किसी ऐसे विद्वान के आतंक में न आएं जिसके बारे में दावा किया जाता है कि उसने हजारों किताबें पढ़ रखी हैं।
6. एक किताब का हवाला मैं अक्सर दिया करता हूं- This Is Not the End of the Book. यह उंबेर्तो इको और जां क्लाद केरियर के बीच की बातचीत पर आधारित है। दोनों बताते हैं कि उनकी लाइब्रेरी में बीस हजार से ज़्यादा किताबें हैं। शायद एक के पास पचास हजार भी। लेकिन दोनों मानते हैं कि उन्होंने इनमें बहुत कम किताबें पढ़ी हैं।
7. दोनों बताते हैं - और यह हम अपने अनुभव से भी जानते हैं- कि कुछ किताबों के बारे में हम दूसरों से इतना सुन चुके होते हैं कि लगता है कि हमने तो इन्हें पढ़ रखा है। कुछ किताबें हम अधूरी पढ़ कर छोड़ देते हैं। कुछ किताबें संदर्भ के लिए बीच-बीच में पलटते हैं। और कुछ किताबें हमेशा अछूती रह जाती हैं।
8. निष्कर्ष क्या है? आप दुनिया की सारी अच्छी किताबें नहीं पढ़ सकते। जो क्लासिकल साहित्य है, उसी का खजाना इतना बड़ा है कि आप उसका एक अंश भी नहीं पढ़ सकते। बहुत सारे अनमोल और अंतर्दृष्टिपूर्ण लेखन से वंचित रह जाना हम सबकी नियति है। समकालीन संदर्भों में भी जो लिखा जा रहा है, उसे भी पूरा पढऩा असंभव है।
9. फिर क्या करें? बस गिनी-चुनी किताबें पढ़ें। लेकिन इनका चुनाव कैसे करें? क्या इसमें अपनों की, अपने आसपास के लोगों की किताबें शामिल हो पाएंगी? क्या हम? तथाकथित महान किताबों के चक्कर में अपने लेखकों को पढऩा छोड़ दें? लेकिन फिर उन्हें हम नहीं पढ़ेंगे तो कौन पढ़ेगा? और हमें ही कौन पढ़ेगा।
10. दुनिया में बड़े और भव्य स्थापत्यों की कमी नहीं, वहां हम घूमने भले चले जाएं, लेकिन आवाजाही अंतत: अपनों के घरों में ही होती है- भले ही वे मामूली और कम कलात्मक या कम भव्य हों। शायद किताबें चुनते हुए भी हमारा पैमाना यही होता है। दुनिया की महान किताबें पढ़ें, लेकिन अपनों की किताबों के लिए भी समय निकालें। अपने समय और समाज की धूल-मिट्टी आखिर इनमें ही मिलती है। बस अपने लोग यह कृपा करें कि एक सुधी पाठक के पढऩे की सीमा समझें और जबरन अपनी किताब उस पर न ठेलें।