संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : ऋषि सुनक से भारतीयों को लगा जोर का झटका
21-Apr-2024 6:10 PM
‘छत्तीसगढ़’ का  संपादकीय : ऋषि सुनक से भारतीयों को लगा जोर का झटका

ब्रिटेन की खबर है कि प्रधानमंत्री ऋषि सुनक ने दूसरे देशों से आकर ब्रिटेन में काम या कारोबार करने वाले लोगों को उनके अपने देश की कमाई पर मिलने वाली टैक्स छूट को 15 साल से घटाकर 4 साल कर दिया है। उल्लेखनीय है कि ऋषि सुनक की भारतवंशी पत्नी की भारत से होने वाली कमाई पर ब्रिटेन में टैक्स न देने को लेकर पिछले बरस यह परिवार बड़े अप्रिय विवादों में घिरा था, और उसके तुरंत बाद टैक्स कानूनों को चुनौती दिए बिना अक्षता मूर्ति ने नियमों से अधिक टैक्स देने की घोषणा की थी। वे भारत में अपने पिता, नारायण मूर्ति से मिली जायदाद, और अपने खुद के काम की कमाई पर ब्रिटेन में बहुत कम टैक्स दे रही थीं, या टैक्स नहीं दे रही थीं। अब तक वहां के कानून में ऐसा ही प्रावधान था, लेकिन अब इस नए कानून के आने से ब्रिटिश पीएम परिवार पर लगी यह तोहमत भी हट सकेगी। वर्तमान प्रधानमंत्री ऋषि सुनक पहले वित्तमंत्री थे, और वित्तमंत्री रहते हुए उनकी पत्नी टैक्स छूट का जिस तरह फायदा उठा रही थी, उसे ब्रिटिश खजाने के साथ नाइंसाफी बताया गया था। उस शर्मिंदगी से उबरने के लिए ऐसा लगता है कि ऋषि सुनक ने इस नए कानून को बनाने में अधिक दिलचस्पी ली है। अभी तक भारत से जाकर ब्रिटेन में काम या कारोबार करने वाले लोगों को वहां अपनी भारतीय आय पर 15 साल तक टैक्स नहीं देना पड़ता था, और सिर्फ ब्रिटिश कमाई पर टैक्स लगता था। एक खबर बताती है कि पिछले पांच बरस में 83 हजार से अधिक भारतीयों ने ब्रिटिश नागरिकता ली थी, यह एक ऐसी योजना के तहत हुआ था जिसमें अतिसंपन्न लोगों को ब्रिटेन में मोटे पूंजीनिवेश के एवज में तुरंत ही वहां नागरिकता मिल जाती थी। अब इन नए टैक्स नियमों की वजह से ऐसा लगता है कि हिन्दुस्तानियों में ‘अंग्रेज’ बनने का आकर्षण कुछ कम होगा। 

ऋषि सुनक की इस पहल को इस संदर्भ में भी देखना चाहिए कि भारत से किसी तरह का रिश्ता रखने वाले दूसरे देशों के बड़े कारोबारियों या सत्तारूढ़ नेताओं को लेकर भारत में जो एक बावलापन अक्सर ही सतह पर दिखता है, वह किसी काम का नहीं रहता, उसकी कोई जमीन नहीं रहती। भारतीय मूल की मां वाली अमरीकी उपराष्ट्रपति कमला हैरिस को लेकर भारत में यह सनसनी फैली थी कि मानो अब अमरीकी रूख भारत के लिए बदल जाएगा। सच तो यह है कि दुनिया के किसी भी देश से दूसरे देश में पहुंचने वाले लोग जहां रहते हैं, काम करते हैं, राजनीति में आकर सत्ता तक पहुंचते हैं, वे उसी देश के होकर रह जाते हैं। सोनिया गांधी इटली से भारत आकर यहां राजनीति की ऊंचाईयों पर पहुंचीं, लेकिन क्या यूपीए सरकार के दस बरसों में वे इटली के साथ किसी तरह की रियायत कर पाईं? ऐसी ही नौबत कमला हैरिस या ऋषि सुनक की रहती है, या कनाडा में मंत्री बनने वाले बहुत से भारतवंशियों की भी रहती है। उनकी जड़ें, उनके डीएनए जरूर भारत से जुड़े रहते हैं, लेकिन वे अपने वर्तमान देश के ही रहते हैं, वहीं के लिए वफादार रहते हैं। सच तो यह है कि जब अपने जन्म या पुरखों के देश के साथ किसी रियायत का मौका आता है तो ऐसे नेता इसलिए हिचक जाते हैं कि उनके जरा भी नर्म बर्ताव उन पर यह तोहमत लगवा सकता है कि वे अपने पुरखों की जमीन के प्रति पूर्वाग्रह दिखा रहे हैं। इसलिए ईमानदार दिखने के लिए उन्हें कड़ाई कुछ अधिक बरतनी पड़ती है, जैसी कि आज ऋषि सुनक के फैसले से दिखाई पड़ रही है। 

आज के वक्त जब दुनिया भर के लोग दूसरे देशों में जाकर वहां बहुत कुछ हासिल करते हैं, उस वक्त उनकी कामयाबी के बाद यह सोच लेना कि उनकी पहली वफादारी अपने जन्म के देश से होगी, बहुत बड़ी खुशफहमी है, और बेईमानी की उम्मीद है। हर किसी को अपने मौजूदा काम, मौजूदा देश, और मौजूदा विचारधारा के प्रति वफादार रहना चाहिए। अपने डीएनए से वफादारी किसी वैज्ञानिक शोध के लिए तो ठीक हो सकती है, लेकिन लोकतंत्र में इसकी कोई जगह नहीं हो सकती। आज अंतरराष्ट्रीय संबंधों में हर किसी को अपने वर्तमान के साथ ईमानदार रहना चाहिए, और तमाम लोग ऐसे रहते भी हैं, तभी वे कामयाब हो पाते हैं। हिन्दुस्तान के लोगों की एक दिक्कत यह भी है कि वे दुनिया भर में बसे हुए भारतवंशियों की कामयाबी को भारत की कामयाबी मान बैठते हैं। ये सारे लोग जो भारत से जाकर अपनी पीढ़ी में या अगली पीढ़ी में कामयाब हुए हैं, वे उन देशों के माहौल की वजह से, और अपनी मेहनत की वजह से कामयाब हुए हैं। हिन्दुस्तान में अगर सफलता की इतनी ही संभावनाएं रहतीं, तो सुंदर पिचई अमरीका जाकर गूगल के मुखिया बनने के बजाय भारत में किसी कंपनी के मुखिया बने होते, या उन्होंने यहां वैसी कोई कंपनी खड़ी कर दी होती। लेकिन चुनावी बॉंड का यह ताजा मामला बताता है कि भारत में कंपनियों को किस तरह के माहौल में काम करना पड़ता है, और उनके आगे बढऩे की संभावनाएं किस तरह कदम-कदम पर घटती जाती हैं। भारत को तो दूसरे देशों में सफल भारतवंशियों को देखकर यह आत्ममंथन करना चाहिए कि उसकी अपनी जमीन पर कारोबार या राजनीति में इतनी खरपतवार क्यों है कि यहां प्रतिभा की फसल ठीक से फल-फूल नहीं पाती। अमरीका या ब्रिटेन जैसे देश में कारोबारी अपनी राजनीतिक विचारधारा को लेकर भी खुलकर सक्रिय रहते हैं, और उन्हें उसका कोई नुकसान भी शायद नहीं उठाना पड़ता। भारत को हर दिन कुछ घंटे आईने के सामने बैठकर यह देखना चाहिए कि इतनी प्रतिभाशाली लोग देश के बाहर जाकर ही प्रतिभा को इस तरह साबित क्यों कर पाते हैं? साथ-साथ दूसरे देशों में भारतवंशियों की कामयाबी का जश्न हिन्दुस्तान की कामयाबी की तरह मनाना बंद भी करना चाहिए, ऐसे झूठे गौरव, और ऐसी असली खुशी के बीच कोई तालमेल नहीं रहता।                

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