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दलित इतिहास माह: आखिर कौन है जातिवादी, कहाँ है जातिवाद?
22-Apr-2024 2:37 PM
दलित इतिहास माह: आखिर कौन है जातिवादी, कहाँ है जातिवाद?

अदिति नारायणी पासवान

अप्रैल को ‘दलित इतिहास माह’ के तौर पर मनाया जाता है। ये महीना हर साल हम दलितों को ये याद दिलाता है कि हम अपने होने का जश्न मनाएं। ये जश्न संघर्षों और यादों का प्रतीक है।

ये महीना पूरे साल दुनियाभर में रहने वाले दलितों को एकजुटता की एक जि़ंदा मिसाल बनकर प्रेरणा देता है, चाहे वो कनाडा में रहते हों, ऑस्ट्रेलिया में, ब्रिटेन में या फिर अमेरिका में।

ऐसा नहीं है कि अप्रैल महीने में सिफऱ् बाबा साहेब का ही जन्म हुआ था। इसी महीने में जाति व्यवस्था के ख़िलाफ़ संघर्ष करने वाले कई और नायकों ने भी जन्म लिया था। इनमें बाबू जगजीवन राम और महात्मा ज्योतिबा फुले भी शामिल हैं। 4 अप्रैल को हिंदुस्तान की आज़ादी की एक बहादुर योद्धा झलकारी बाई का बलिदान दिवस भी होता है।

दलित समुदाय के लोग अक्सर जाति व्यवस्था की गहरी दरारों में गिरकर गुम हो जाते हैं। उन्हें मुख्यधारा की शब्दावलियों और जश्नों में सदा के लिए भुला दिया जाता है, और आखऱिकार उन्हें आने वाली पीढिय़ों की यादों से भी हमेशा के लिए मिटा दिया जाता है।

अप्रैल का महीना हमें एक ऐसा झरोखा मुहैया कराता है कि हम अपने उन पुरखों की समृद्ध विरासत को याद कर सकें। हमारे इन पूर्वजों ने दलित समुदाय को हमेशा दबाकर और हाशिए पर धकेले रखने वाली जाति व्यवस्था के खिलाफ जो लड़ाइयां लड़ीं और जो कुर्बानियां दीं। हम इस महीने में उनके योगदान का मान-सम्मान करते हैं।

दलितों के संघर्ष का लंबा इतिहास

1757 में हुआ प्लासी का युद्ध हो, जिसमें दुसाधों ने मुगल सम्राट के खिलाफ जंग लड़ी और उसे शिकस्त दी। या फिर, 1857 की बगावत। झलकारी बाई से लेकर मंगू राम और ऊदा देवी तक, इनमें से कितने लोगों के बारे में आप कितना जानते हैं?

इतिहास के पन्ने ऐसी तमाम दास्तानों से भरे पड़े हैं, जहाँ आजादी की लड़ाई लडऩे से लेकर, राष्ट्र निर्माण तक में हमारी भूमिकाओं की या तो अनदेखी की गई या फिर उसे मिटा दिया गया।

लेकिन दलितों का सबसे बड़ा संघर्ष तो उनका रोजमर्रा का संघर्ष ही है। दलितों ने ये लड़ाई पानी के लिए, छुआछूत से निजात पाने के लिए, मेहनत का मान सम्मान पाने के लिए, मंदिरों में प्रवेश करने तक के लिए लड़ी हैं। मैं ये दावा तो नहीं करूंगी कि सदियों से हमारे हालात में कोई बदलाव नहीं आया है।

सामाजिक सुधारों को लेकर हमारी संस्कृति में जो मूल्य रचे बसे हैं। हमारे धर्म का जो बदलाव के मुताबिक़ ढलने का मिज़ाज है, और सबसे बड़ी बात ये कि हमारे संविधान में सामाजिक न्याय की जो बुनियाद पड़ी है, उन सबने मिलकर ये सुनिश्चित किया है कि हमें भागीदारी मिल सके।

बदलावों के बीच जातिवाद पर चर्चा

आज जाति हमारी रोज़मर्रा की बातचीत का हिस्सा बनती जा रही है। हमारे इर्द-गिर्द जाति को लेकर हो रही चर्चाओं की वजह से आज जाति पर आधारित चेतना और उसके प्रति संवेदनशीलता बढ़ी है।

यहाँ तक कि बॉलीवुड किरदारों में भी बदलाव आते देख रहे हैं। लगान में जहाँ ‘कचरा’ का किरदार दिखाया गया था लेकिन आज बॉलीवुड फिल्मों में दलित किरदारों को अधिक जुझारू, अक्लमंद और सक्षम इंसान के तौर पर पेश किया जा रहा है। ‘चक्रव्यूह’, ‘मांझी दि माउंटेन मैन’, ‘सैराट’, ‘दहाड़’, ‘जय भीम’, ‘कांतारा’ और ‘कटहल’ जैसी फिल्में इस बदलाव की मिसाल हैं।

इसके बावजूद हर दिन मैं सवर्ण-समृद्ध तबक़े से ताल्लुक़ रखने वाले ऐसे लोगों का सामना करती हूँ, जो इस बात पर जोर देते हैं कि जातिवाद कोई बड़ी सामाजिक समस्या नहीं है क्योंकि उनकी नजर में जाति आधारित भेदभाव समाप्त हो चुका है। लेकिन जैसे ही शादी का मौका आता है वे सजातीय जीवनसाथी की तलाश शुरू कर देते हैं, अँग्रेज़ी के अखबारों में वैवाहिक विज्ञापनों के कॉलम जाति के आधार पर ही बँटे होते हैं और लोग केवल अपनी जाति के वर या वधू ढूँढते हैं, ये वही लोग हैं जो कहते हैं कि जाति के आधार पर भेदभाव नहीं करते।

ऐसे बुनियादी विरोधाभास मुझे ये सोचने पर मजबूर कर देते हैं कि लोग कैसे बेफिक्री से ये दावा कर लेते हैं किसी को उसकी जाति की वजह से कोई भेदभाव नहीं झेलना पड़ता, वे कहते हैं कि उन्होंने अपने ख़ानदान में कभी किसी को जातिवादी व्यवहार करते नहीं देखा।

जातिवाद को लेकर मिथ गढऩे की कोशिशें

इसके अलावा जाति और उसकी ऐतिहासिक बुनियाद को लेकर भी नई कहानियाँ गढ़ी जा रही हैं। जाति को परिभाषित करने के लिए धार्मिक शास्त्रों से लेकर, जाति शब्द की उत्पत्ति का इतिहास खंगाला जा रहा है। वर्ण और जाति का अंतर बताने के लिए ढेरों किताबें लिखी जा चुकी हैं। व्हाट्सऐप यूनिवर्सिटी की दुनिया में ‘जाति’ शब्द की विचित्र समझ से जुड़ी जानकारियां भरी पड़ी हैं।

जाहिर है, अंग्रेजी का कास्ट शब्द पुर्तगाली भाषा के ‘कैस्टस’ से बना है। इसी बात का चतुराई से इस्तेमाल करके कहा जाता है कि जाति एक पश्चिमी परिकल्पना है, जिसे अंग्रेजों ने हमें साम्राज्यवाद के पंजों में जकडऩे के लिए इस्तेमाल किया था।

वैसे मैं न तो इस शब्द की उत्पत्ति को लेकर कोई सवाल खड़ा करती हूँ और न ही इस बात से इनकार करती हूँ कि विदेशियों ने इसका दुरुपयोग किया। मुझे जो बात सबसे ज़्यादा तकलीफ देती है, वो दलितों की मौजूदा हालात। आज अपनी ताकत दिखाने के लिए आखऱि कौन दलितों का बलात्कार कर रहा है? आज के समाज में हम कहां खड़े हैं?

हम अपनी ऐतिहासिक भूमिका को दोबारा हासिल करना चाहते हैं, ताकि भविष्य में हम इज्जत की जिंदगी जी सकें।

ऐसे बहुत से लोग हैं जिनको पूरा यकीन है कि देश में कोई जातिवादी भेदभाव नहीं है। वो ये भी बताना नहीं भूलते कि उन्होंने अपने बुजुर्गों को दलितों के साथ अच्छा व्यवहार करते देखा है। मुझे तो पानी जैसी बुनियादी जरूरत की चीज के लिए अपने समुदाय का सदियों का संघर्ष अच्छी तरह याद है।

मगर कई बार उनके ऐसे दावे सुन-सुनकर दिल-दिमाग थक जाता है कि देश में अब जातिवादी व्यवहार नहीं होता, जब भी कोई ये कहता है कि उसने तो जातिवाद नहीं देखा, तो इस बात की पक्की संभावना होती है कि वो किसी सवर्ण-समृद्ध परिवार में पैदा हुए होंगे।

वो क्या जाने पीर पराई

ऐसे में सवाल ये है कि जिस शख़्स ने कभी जाति के नाम पर होने वाले ज़ुल्म झेले ही नहीं, वो भला हमारी कई पीढिय़ों के दर्द को कैसे समझ सकेगा? आप दलितों को कहने दें कि उन्होंने जातिवाद का दर्द नहीं झेला। जो पीडि़त और शोषित रहे हैं, जरा वो भी तो अपनी जुबान से एलान करें कि उनकी तकलीफों का अंत हो गया है।

अगर किसी ने जातिवाद को नहीं झेला, तो ये उसका सौभाग्य है लेकिन ये हकीकत नहीं है कि जातिवाद नहीं है। सामाजिक सच्चाइयों के प्रति ऐसी बेखबरी तकलीफ पहुँचाती है। जातिवाद की बातें सुनकर और खासतौर से तब, जब मैं एक दलित महिला के तौर पर अपने तजुर्बे साझा करती हूँ तो लोगों के चेहरों पर जो हैरानी का भाव उभरता है वो उनकी जहालत की गवाही दे रहा होता है।

उनकी नादानी हमारे संघर्ष को हाशिए पर धकेल देती है। और जब हम अपने तजुर्बे बयान करते हैं तो हमें ये एहसास दिलाया जाता है कि हम ये सारी बातें आरक्षण पाने के लिए कह रहे हैं। आरक्षण न तो कोई खैरात है, और न ही ये पुरानी करतूतों का प्रायश्चित है। ये उस समानता और बराबरी की तरफ बढऩे के लिए हमारा अधिकार है, जिसके लिए बाबासाहेब ने संघर्ष किया था, और जिसके लिए हम अब भी लड़ाई लड़ रहे हैं।

आज विदेशी ताकतें हमारा देश छोडक़र जा चुकी हैं और हमारे देश में कोई ये नहीं कहता कि वो जाति व्यवस्था में यक़ीन करता है, या फिर जातिवादी बर्ताव करता है।

तो फिर ये सब कौन कर रहा है?

ऐसे में मेरे ज़हन में सवाल उठते हैं कि फिर आखिर दलित लड़कियों से बलात्कार करके उन्हें कौन जिंदा जला रहा है? सीवर साफ करते हुए दलित क्यों मर रहे हैं? आज भी घोड़े पर चढऩे के लिए क्यों गोली मारी जा रही है? आज भी मूंछें रखने पर दलितों का क़त्ल क्यों हो रहा है? आज भी क्यों ताकत दिखाने का सार्वजनिक मंच किसी दलित के शरीर को समझा जाता है? ये जुल्म कौन ढा रहा है?

मैं मिसालों के जरिए ख़ुद को पीडि़त के तौर पर पेश करने की कोशिश नहीं कर रही हूँ लेकिन, सवाल ये है कि ऐसा कौन कर रहा है? अक्सर सुना जाता है कि फलाँ दलित नेता सत्ता का भूखा है। निश्चित रूप से हम सत्ता के केंद्र में रहना चाहते हैं। सदियों से हम हुकूमतों के हाशिए पर धकेले जाते रहे हैं। अब हम सत्ता का स्वाद चखना चाहते हैं।

हम एक ऐसा नेटवर्क, ऐसा इकोसिस्टम बनाना चाहते हैं, जहां अमेजन में काम करने वाले, सिएटल में रहने वाले लोग हमें भी जानते हों ताकि वो हमारा बायोडेटा आगे बढ़ा सकें। हम भी कैम्ब्रिज में रहने वालों से अपना परिचय बढ़ाना चाहते हैं, जिससे वो हमें हमारे करियर में आगे बढऩे में मदद कर सकें।

हमें इन सबसे वंचित रखा जाता रहा है। अब हम ये सब चाहते हैं और हम अपना ये अधिकार मज़बूती से जताने का इरादा भी रखते हैं।

दलित इतिहास माह में आइए स्वीकार करें कि हम सब जातिवादी हैं। हम सभी किसी न किसी रूप में जातिवादी बर्ताव करते हैं। जाति हमारी चेतना की गहराइयों में रची बसी है। एक संस्थागत व्यवस्था के रूप में जाति के गहरी जड़ें जमाए होने की इस सच्चाई को अगर हम स्वीकार नहीं कर सकते हैं, तो फिर बाबासाहेब के नाम पर सोशल मीडिया पर पोस्ट लिखना बेमानी है।

सबसे पहले हमें ये मानना होगा कि जाति का अस्तित्व है। इसको स्वीकार करना होगा, इसके प्रति संवेदनशील होना होगा। उसके बाद ही हम खुद को जाति की बंदिशों से आज़ाद करने की चर्चा शुरू कर सकते हैं। (bbc.com/hindi)

(लेखिका दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाती हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)

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