संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : लाउडस्पीकरों के बीच होते कत्ल देखकर भी हाईकोर्ट कुछ सोचेगा?
23-Apr-2024 4:20 PM
‘छत्तीसगढ़’ का  संपादकीय : लाउडस्पीकरों के बीच होते कत्ल देखकर भी हाईकोर्ट कुछ सोचेगा?

छत्तीसगढ़ के धमतरी में कल एक शादी समारोह में म्यूजिक डीजे पर नाचने के दौरान झगड़ा हुआ, और दो नौजवानों की चाकू के वार से मौत हो गई, और एक गंभीर जख्मी है। डीजे के शोरगुल को लेकर और उसके साथ जुड़ी हुई बाकी तमाम किस्म की अराजकता पर छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट पिछले एक-दो बरस से बड़े कड़े तेवर दिखा रहा है, और राज्य के मुख्य सचिव से एक से अधिक बार इस पर निजी हलफनामा ले चुका है कि लोगों का जीना हराम करने वाला यह शोरगुल कैसे थमेगा? अदालत ने कई किस्म की सख्ती दिखाई है और यह भी कहा है कि इस राज्य के अफसर संगीत के नाम पर इस शोरगुल को रोकना भी नहीं चाहते। अदालत का सरकारी अफसरों के साथ संघर्ष देखें, तो लगता है कि अदालत का कोई बस चल नहीं रहा है, जिस तरह घर में किसी बुजुर्ग की कही हुई बात को बाकी लोग अनसुना करते हों, उसी तरह छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट बोले चले जा रहा है, और अफसरों पर उसका धेले का असर नहीं हो रहा है। शादियों के इस मौसम में पूरे प्रदेश में जगह-जगह न सिर्फ लाउडस्पीकरों को लेकर हाईकोर्ट के हुक्म पैरोंतले रौंदे जा रहे हैं, बल्कि शहर की जिंदगी भी ट्रैफिक जाम में बर्बाद की जा रही है, और शायद ही किसी जगह पुलिस और प्रशासन ने शादी के नाम पर ऐसी अराजकता रोकने की कोशिश भी की हो। 

अब सवाल यह उठता है कि अगर बुनियादी कानूनों को लागू करने के लिए पुलिस और प्रशासन के पीछे हाईकोर्ट के जज लाठी लेकर लगे रहें, तो यह अधिक बड़ा अपमान किसका माना जाए? जजों का, या कि अफसरों का? क्या आईएएस-आईपीएस जैसी बड़ी-बड़ी राष्ट्रीय सेवाओं से आने वाले अफसरों को इतने में तसल्ली हो जाती है कि वे मुख्यमंत्री, राज्यपाल, और हाईकोर्ट जजों के बंगलों को लाउडस्पीकरों की पहुंच से परे रख लेते हैं, अपने घरों में चैन से सो जाते हैं, और बाकी पूरे प्रदेश को अराजक गुंडों के रहमोकरम पर छोड़ देते हैं? हमने इसी प्रदेश में, राज्य बनने के दशकों पहले यह देखा हुआ है कि एक डिप्टी कलेक्टर, और एक डीएसपी रैंक के अफसर पूरे शहर के अवैध कब्जे हटवा देते थे, ट्रैफिक सुधार देते थे, डिप्टी कलेक्टर म्युनिसिपल कमिश्नर अवैध कब्जे तोड़वा देता था। आज छोटी-छोटी कुर्सियों पर आईएएस-आईपीएस बैठे हुए हैं, एक-एक जिले के पांच जिले बन गए हैं, और जहां दो बड़े अफसर रहते थे, वहां अब दर्जन भर से अधिक अफसर अखिल भारतीय सेवाओं के हैं, लेकिन उनका असर खत्म हो गया है। या तो राजनीति इतनी हावी हो गई है कि उसने अफसरों के हाथ बांध दिए हैं, या फिर अफसर ही अपनी महत्व मानी जाने वाली कुर्सियों पर खुद को महफूज बनाकर चलते हैं, और किसी को भी नाराज करना नहीं चाहते। नतीजा यह है कि जनता पीढ़ी-दर-पीढ़ी अराजक होते चल रही है, और उसके मन में नियम-कानून के लिए परले दर्जे की हिकारत मजबूत पैर जमाते जा रही है। अफसरों के दर्जन भर बार चेतावनी जारी करने के बाद भी सडक़ किनारे धंधा करने वाले छोटे-छोटे लाउडस्पीकरों वाले लोग भी जब उनकी बात नहीं सुनते, हाईकोर्ट की चेतावनियों की परवाह नहीं करते, तो यह जाहिर है कि जनता के मन में नियम-कानून का सम्मान पूरी तरह खत्म हो गया है। 

यह नौबत देश में ऐसे नियम-कानून होने के मुकाबले अधिक खतरनाक है। अगर नियम-कानून ही न रहे, तो कम से कम जनता उनको तोडऩे की कुसूरवार नहीं रहती है, लेकिन जब छोटी-छोटी बातों को लेकर बड़े-बड़े नियम अदालती फैसलों से लागू होते हैं, और कानून देश को एक अधिक सभ्य जगह बनाने की कोशिश करता है, उस वक्त भी अगर बड़े-बड़े अफसर अपनी छोटी-छोटी रह गई रियासतों में कड़े रूख वाले अदालती फैसलों को भी लागू नहीं करवा पाते, तो यह कानून-व्यवस्था ध्वस्त हो जाने का एक बड़ा सुबूत है। जब जनता कुछ नियम तोडऩे के लिए आजाद रहती है, तो फिर वह चाकू-छुरी लेकर चलने, गाडिय़ों के साइलेंसर फाडक़र चलने को भी अपना हक मान लेती है, और छत्तीसगढ़ के जनजीवन में यह नौबत सिर चढक़र बोल रही है। नमूने के लिए हर जिले की पुलिस ऐसे कुछ लोगों को पकड़ लेती है, लेकिन हकीकत यह है कि उसका अनुपात असल बदअमनी के मुकाबले कुछ भी नहीं है। और दिक्कत यह है कि कानून मानने वाले, शरीफ लोग अधिक तकलीफ पाते हैं क्योंकि उनके मन में यह रंज भी रहता है कि वे हर कानून का पालन करते हैं, लेकिन कानून तोडऩे वालों से तकलीफ झेलते हैं, और सरकार उनकी मदद के लिए मौजूद नहीं हैं, क्योंकि वह तो हाईकोर्ट के सख्त फैसलों को लागू करने के लिए भी मौजूद नहीं है। 

हम अगर फिर से तरह-तरह के लाउडस्पीकरों के हल्ले की बात पर लौटें, तो शादियों के इस मौसम में चारों तरफ लोगों ने मनमानी की है, और कई किलोमीटर तक जाने वाले शोरगुल को भी पुलिस-प्रशासन ने नहीं रोका है। अब तो दूर-दूर तक तरह-तरह की रौशनी फेंकने वाले लैम्प बाजारों में खुले बिक रहे हैं, और न इनके इस्तेमाल पर कोई रोक लगाई जा रही, न ही इनकी बिक्री पर। बहुत जाहिर तौर पर ऐसी लाईटें एक गंभीर प्रदूषण पैदा करती हैं, और ट्रैफिक के लिए खतरा खड़ा करती हैं, लेकिन जब तक ये सत्ता पर काबिज कुछ बड़े लोगों के लिए परेशानी का सबब नहीं बनेंगी, तब तक इनको रोकने की जहमत कोई नहीं उठाएंगे। आज तो हालत यह है कि बाजारों में दुकानदार इतने किस्म के लैम्प बाहर लगाकर रखते हैं कि वे चौराहों की ट्रैफिक लाईट का धोखा भी देते हैं, फिर भी इनको रोकने की कोई कोशिश नहीं होती है। 

ये तमाम बातें नियमों को इस तरह तोडऩा नहीं है कि कहीं कोई एक ट्रक प्रतिबंधित समय में कहीं घुस गई हो। यह तो नियम-कानून तोडऩे का पूरा का पूरा हाईवे चल रहा है, और कोई रोकथाम नहीं है। अब तो हाईकोर्ट पर भी दया आती है कि उसे कितनी बार कितने लोग जाकर बताएं कि उसकी अवमानना हो रही है। अदालत भी शायद यह समझ चुकी है कि उसके बस में बस अपनी अवमानना कराना ही रह गया है, और वह दूसरे लोगों का आ-आकर यह याद दिलाना नहीं चाहती है। वैसे भी हम अखबार का जिम्मा सार्वजनिक मुद्दों पर खुलकर लिखने जितना मानते हैं, और किसी जर्नलिस्ट के एक्टिविस्ट की तरह अदालत जाने के खिलाफ हैं, इसलिए हम खुद होकर तो अदालत के सामने इस बात को नहीं रखते, लेकिन जिन लोगों ने इन मुद्दों पर जनहित याचिकाएं लगाई थीं, उन्हें जरूर लाउडस्पीकरों और उससे जुड़ी कल की हत्याओं के बारे में अदालत को बताना चाहिए, और यह भी बताना चाहिए कि हाईकोर्ट के जांच कमिश्नर नियुक्त हुए बिना प्रदेश में जनता को जहन्नुम की जिंदगी से कोई नहीं बचा सकते। छोटे-छोटे बच्चों, बीमार लोगों, बूढ़ों, दूसरे प्राणियों, और रात-दिन की शिफ्ट में काम करते हुए आराम की जरूरत वालों की जिंदगी नर्क बनी हुई है, और कानून तोडऩे वालों के लिए यह प्रदेश स्वर्ग बना हुआ है। हाईकोर्ट जजों के रिहायशी इलाके, और अदालत का इलाका लाउडस्पीकरों से मुक्त रखा गया होगा, लेकिन अदालत को प्रदेश भर से इसकी रिपोर्ट जरूर बुलवाना चाहिए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)                       

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