संपादकीय
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उत्तरप्रदेश के पूर्वांचल विश्वविद्यालय में फार्मेसी के चार छात्रों ने इम्तिहान की उत्तर पुस्तिका में बस जय श्रीराम लिख दिया था, और उन्हें 56 फीसदी अंक देकर पास किया गया। जब सूचना के अधिकार के तहत किसी और ने ये उत्तरपुस्तिकाएं मांगीं, तो इसका भांडाफोड़ हुआ। इसके बाद विश्वविद्यालय ने जांच कमेटी बनाई, और इन उत्तर पुस्तिकाओं का पुर्नमूल्यांकन करवाया, तो उन्हें शून्य नंबर मिले। विश्वविद्यालय की जांच में दो शिक्षकों को इस काम के लिए दोषी ठहराया है। एक पूर्व छात्र ने आरटीआई से कॉपियां निकलवाईं, और राजभवन शिकायत की तब जाकर पिछली दिसंबर में जांच का आदेश हुआ था। इस मामले में रिश्वत भी एक वजह हो सकती है, लेकिन जिस तरह से धर्म के नाम का इस्तेमाल किया गया है, उससे तो पक्के धर्मालुओं की धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचनी चाहिए थी, लेकिन जिस तरह छत्तीसगढ़ के महादेव सट्टेबाजी ऐप के नाम से किसी की धार्मिक भावना को आज तक ठेस नहीं पहुंची है, उसी तरह जय श्रीराम लिखकर फेल को पास करवाने के कारोबार से भी भक्तों पर असर पड़ा नहीं दिखता है।
हिन्दुस्तान में ऐसा लगता है कि धार्मिक भावनाएं अब सहूलियत का सामान हो गई हैं, जब किसी से हिसाब चुकता करना हो तब इन भावनाओं को भडक़ाया जाता है, पुलिस या अदालत तक रिपोर्ट लिखाई जाती है, गले काटने के फतवे दिए जाते हैं, और बाकी वक्त लोगों का भक्तिभाव अन्ना हजारे के अंदाज में सोए रहता है। जिस तरह महाराष्ट्र के तथाकथित खादीधारी-गांधीवादी अन्ना हजारे कुछ चुनिंदा और नापसंद नेताओं के भ्रष्टाचार के खिलाफ छांट-छांटकर आंदोलन करते हैं, और बाकी भ्रष्ट लोगों के हाथ मजबूत करते हैं, आज हिन्दुस्तान में धार्मिक भावनाओं का हाल कुछ वैसा ही हो गया है। देश की तीन चौथाई से अधिक आबादी मांसाहारी है, लेकिन कौन कब मांस खाए, और कब न खाए, यह एक बड़ा मुद्दा बना दिया गया है, तेजस्वी यादव के मछली खाने पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने सार्वजनिक मंच से चुनावी सभा में इस पर हमला किया। दूसरी तरफ गोवा और केरल से लेकर उत्तर-पूर्व तक के भाजपा नेता गोमांस की खुली वकालत करते हैं, लेकिन उनसे देश के हिन्दुओं की धार्मिक भावनाएं आहत नहीं होने दी जातीं, ऐसे राज्यों में वोटरों को साधने के लिए गोमांस की गारंटी दी जाती है, और देश में बाकी जगह सरकारें तय करती हैं कि कब किसे क्या खाना चाहिए।
हिन्दुस्तान में जिंदगी के असल मुद्दों को हाशिए पर धकेल दिया गया है, और पन्नों के बीच में इतनी गैरजरूरी बातें लिख दी गई हैं कि असल मुद्दों के लिए कुछ शब्दों की जगह भी न बचें। और हैरानी यह है कि देश की आबादी का एक बड़ा हिस्सा सतही और गैरजरूरी मुद्दों में इस कदर मगन हो गया है कि उसे अपनी खुद की असली दिक्कतों से लेना-देना नहीं रह गया है। पौराणिक कहानियों में जिस तरह से त्यागियों को बताया जाता है, हिन्दुस्तान में आज वोटरों का एक बड़ा हिस्सा वैसा ही त्यागी हो गया है, और वह शेर पालने का खर्च उठाने के लिए पांच सौ लीटर भी पेट्रोल-डीजल लेने की अपनी हिम्मत बताता है। असल जिंदगी में शेर पाने से क्या हासिल होगा इसकी कोई चर्चा नहीं होती है। लोगों की आर्थिक स्थिति अपने बच्चों के दूध के लिए गाय-बकरी पालने की भी नहीं है, लेकिन उनका उन्माद उन्हें शेर पालने का हौसला देता है। यह एक अभूतपूर्व और असाधारण दर्जे की समझ है, जिसकी पूरी दुनिया में शायद ही कोई मिसाल मिले। अपनी राजनीतिक पसंद के लिए लोग अगर हर तकलीफ को अनदेखा करने के लिए, हर तकलीफ को उठाने के लिए तैयार हैं, तो फिर लोकतंत्र के लिए तकलीफ के अलावा इसमें और क्या है? और जब वोटर-आबादी का एक तिहाई हिस्सा ऐसा समर्पित हो जाए, तो इस समर्पण से चुनावी मुकाबला भला क्या हो सकता है?
लोगों के मन में राजनीतिक प्रतिबद्धता रहे यह तो अच्छी बात है, लेकिन यह प्रतिबद्धता उनसे सही और गलत में फर्क करने की ताकत अगर छीन ले, तो यह प्रतिबद्धता आत्मघाती होती है। भारतीय लोकतंत्र आज ऐसे ही दौर से गुजर रहा है। आज तकनीकी रूप से चुनाव कराना कामयाब होने को लोकतंत्र मान लिया गया है, और थोक में दल-बदल को संवैधानिक। इन दोनों मकसदों को पाने के लिए कितना जायज, और कितना नाजायज किया जा रहा है, यह बात अगर लोगों के लिए मायने नहीं रखती है, तो फिर ऐसा चुनाव लोकतंत्र के लिए भला क्या मायने रख सकता है? यह नौबत भयानक है। हिन्दुस्तान सहित बहुत से देश ऐसे रहे हैं जहां पर कुछ बड़े नेताओं का व्यक्तिवाद बड़ा लोकप्रिय रहा है। उन्हें तर्कों से परे समर्थन मिलते रहा है, लेकिन जब इसके साथ-साथ धर्मान्धता और साम्प्रदायिकता का एक घोल बन जाता है, तो फिर उसके नशे का न तो कोई जवाब हो सकता, न ही कोई तोड़ हो सकता। भारत आज ऐसे ही दौर से गुजर रहा है। इसके साथ-साथ जब न सिर्फ चुनावी राजनीति, बल्कि तमाम पांच बरसों की राजनीति, और जनधारणा प्रबंधन जैसे काम एक बहुत ही अनोखे पेशेवर अंदाज में किए जाने लगे हैं, तो हिन्दुस्तान के अधिकतर राजनीतिक दलों को इस बदले हुए माहौल में टिके रहने की तरकीब समझ नहीं आ रही है। और लोकतंत्र को कानून के दायरे में कई किस्म की राजनीतिक और चुनावी तरकीबों की इजाजत देता है, और देश में आज वही हो रहा है।
यह बात शुरू हुई थी फार्मेसी के इम्तिहान में विज्ञान की बातें लिखने के बजाय जय श्रीराम लिखकर आने वालों को पास करने से। जब खालिस विज्ञान की जगह खालिस धर्म ले ले, तो आज के वक्त को कुछ हजार साल पहले चले जाना चाहिए, और इन बरसों के विज्ञान को अछूत मानकर उसकी सहूलियतों से परहेज करना चाहिए। छत्तीसगढ़ में भाजपा के एक विधायक रिकेश सेन ने एक हिन्दू धार्मिक कार्यक्रम में कल भाषण देते हुए कहा कि देश के अंदर धर्म परिवर्तन कराने की कोई कोशिश करे तो उसकी गर्दन काटकर रख देना। एक तरफ जब सुप्रीम कोर्ट देश में नफरती-जहरीली बातों पर रोक लगा रहा है, कड़ाई बरत रहा है, तब गला या सिर काट देने की बातें पचाने की ताकत इस देश का चुनाव आयोग ही रखता है। और चुनाव आयोग की असाधारण पाचन क्षमता की डॉक्टरी जांच सुप्रीम कोर्ट को भी करवाना चाहिए क्योंकि आयोग की यह पाचन शक्ति लोकतंत्र को ही पचाकर खत्म कर रही है, और चुनाव को उसने महज एक मशीनी काम बनाकर रख दिया है। आज यहां पर हमने कुछ कतरा-कतरा बातों को जोडऩे की कोशिश की है, इसे पढऩे वाले लोग भी इससे जुड़ी हुई कुछ और बातों को जोडक़र देख सकते हैं।