संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : फिलीस्तीन के समर्थन में अमरीकी छात्र आंदोलन से सीखने की जरूरत..
01-May-2024 4:50 PM
‘छत्तीसगढ़’ का  संपादकीय :  फिलीस्तीन के समर्थन में अमरीकी छात्र आंदोलन से सीखने की जरूरत..

फोटो : सोशल मीडिया

अमरीका के इतिहास में ऐसा कम ही होता है कि किसी विश्वविद्यालय में पुलिस घुसे। न्यूयॉर्क के कोलंबिया विश्वविद्यालय में फिलीस्तीन के समर्थन में कई दिनों से छात्रों के प्रदर्शन चल रहे हैं जो कि अब बढ़ते-बढ़ते दो दर्जन अमरीकी विश्वविद्यालयों सहित पश्चिम के कोई आधा दर्जन देशों में फैल चुके हैं। और ऐसे में विश्वविद्यालय प्रशासन की अर्जी पर पुलिस यूनिवर्सिटी में घुसी, और छात्रों को गिरफ्तार किया। ये छात्र अपने आंदोलन को पूरी तरह शांतिपूर्ण और छात्रों तक सीमित रख रहे हैं, और एक छात्र नेता ने इजराइल के खिलाफ नस्लभेदी टिप्पणी की थी, तो उसे आंदोलन से तुरंत ही अलग कर दिया गया। गैरछात्रों के भी इस आंदोलन में आने पर रोक लगाई गई है, और जगह-जगह चल रहे ये आंदोलन विश्वविद्यालय के इजराइल से जुड़े किसी भी अनुदान, रिसर्च ग्रांट, शैक्षणिक संबंध खत्म करने की बात कह रहे हैं। अमरीकी विश्वविद्यालयों का इजराइल के साथ गहरा रिश्ता है, और गाजा पर इजराइल की बमबारी को देखते हुए अमरीकी नौजवानों का एक मुखर तबका झंडे उठाए खड़ा है कि ऐसे हमलावर देश से उनके विश्वविद्यालय का कोई भी संबंध नहीं रहना चाहिए। यह आंदोलन कोलंबिया विश्वविद्यालय से शुरू होकर बहुत सी दूसरी जगहों पर फैला है, और अब यह ऑस्ट्रेलिया, इटली, ब्रिटेन जैसे दूसरे पश्चिमी देशों तक पहुंच गया है। अमरीका में ही अब तक हजार से अधिक छात्र गिरफ्तार किए जा चुके हैं, और ये छात्र अमरीकी विश्वविद्यालयों के ऐसे किसी भी कंपनी से लेन-देन और रिश्ते खत्म करने की मांग कर रहे हैं जो कि गाजा पर हो रहे हमलों से किसी भी तरह की कमाई कर रही हैं। इसमें अमरीकी कंपनियां भी हैं। यह बात याद रखने की है कि फिलीस्तीन के गाजा पर चल रहे इजराइली हमलों से अब तक 34 हजार से अधिक फिलीस्तीनी मारे गए हैं। 

अमरीका में छात्र आंदोलनों की यह ताजा लहर, ताजा हवा का एक झोंका है। यह नौजवान पीढ़ी में अपने देश से परे के मुद्दों से भी जुडऩे, और उनके प्रति जागरूक रहने का एक बड़ा सुबूत है। फिलीस्तीनी अपनी ही जमीन पर शरणार्थी की तरह बेघर जी रहे लोग हैं, जिनसे अमरीकी विश्वविद्यालयों या छात्रों का कोई भला नहीं हो सकता। उनका भला तो अतिसंपन्न इजराइली सरकार, वहां की कंपनियां, और वहां से जुड़े हुए कारोबारियों से हो सकता है क्योंकि अमरीकी विश्वविद्यालय निजी क्षेत्रों के साथ मिलकर हजारों किस्म के शोध करते हैं, ग्रांट पाते हैं। ऐसे में विश्वविद्यालय छात्र-छात्राओं के समूह अगर फिलीस्तीन के साथ खड़े हैं, और विश्वविद्यालय के इजराइल से किसी भी तरह के संबंध तोडऩे पर अड़े हैं, तो यह अपने हितों के खिलाफ जाकर एक सार्वजनिक हित की बात करने की मिसाल है, और इसके लिए अमरीकी छात्र आंदोलन की तारीफ की जानी चाहिए। जो नौजवान पीढ़ी अपने देश में वोट डालने के लायक हो जाती है, उस पीढ़ी को अपने देश-प्रदेश से लेकर दुनिया के बाकी हिस्सों के मुद्दों पर सोचना-विचारना भी चाहिए, और जिस देश की युवा पीढ़ी ऐसी नहीं रहती, और मुर्दा सरीखी रहती है, जैसी कि आज हिन्दुस्तान में है। 

हिन्दुस्तान का एक हिस्सा मणिपुर देश के इतिहास के सबसे बुरे दौर से गुजर रहा है, लेकिन सैकड़ों लाशें गिर जाने पर भी बाकी हिन्दुस्तान के लोगों के माथों पर शिकन नहीं आई, और वे मणिपुर को हिन्दुस्तान के बजाय पड़ोसी म्यांमार का हिस्सा अधिक मानते रहे। ऐसी मुर्दा हिन्दुस्तानी नौजवान पीढ़ी को अमरीका का आज का छात्र आंदोलन दिखाना चाहिए कि दुनिया के किसी दूसरे कोने में हो रही बेइंसाफी पर नौजवान पीढ़ी का क्या रूख रहना चाहिए। यह एक अलग बात है कि अमरीका के छात्र आंदोलन हो सकता है कि नवंबर में वहां होने जा रहे राष्ट्रपति चुनाव पर कोई निर्णायक असर न डाल सकें, लेकिन अगर चुनाव में मुकाबला बहुत कड़ा रहेगा, तो टक्कर की ऐसी नौबत में छात्रों का रूख तय कर सकता है कि फिलीस्तीन के मुद्दे पर अमरीका के किस राष्ट्रपति को चुनना बेहतर होगा। हम अमरीकी चुनाव को लेकर कोई भविष्यवाणी करने की हालत में नहीं हैं, लेकिन वहां ऐसा माना जाता है कि डोनल्ड ट्रंप की रिपब्लिकन पार्टी के गोरे वोटरों के बीच फिलीस्तीन को लेकर हमदर्दी नहीं रहती है, लेकिन मौजूदा राष्ट्रपति जो बाइडन की डेमोक्रेटिक पार्टी में ऐसे हमदर्द अधिक हैं। ऐसे में इन छात्र आंदोलनों का नुकसान किसे झेलना पड़ेगा यह बता पाना अभी आसान नहीं है, लेकिन अमरीका का इतिहास बताता है कि वियतनाम पर अमरीका के हमले के खिलाफ भी वहां के छात्र उठ खड़े हुए थे। और यह कैसा गजब का संयोग है कि 2 मई 1964 को इसी न्यूयॉर्क के इसी कोलंबिया विश्वविद्यालय में चार सौ छात्रों ने वियतनाम पर अमरीकी हमले के खिलाफ आंदोलन शुरू किया था, और न्यूयॉर्क शहर में जुलूस निकाला था। इसके बाद अमरीकी सरकार के खिलाफ यह आंदोलन जगह-जगह कई विश्वविद्यालयों में फैला था। दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद के खिलाफ भी अमरीकी विश्वविद्यालयों ने आंदोलन किया था, और ऐसी कंपनियों से विश्वविद्यालय के रिश्ते तोडऩे की मांग की थी जो रंगभेदी दक्षिण अफ्रीकी सरकार के साथ कारोबार करती हैं। खुद अमरीका के भीतर रंगभेद के खिलाफ अमरीकी छात्रों के सभी नस्लों के नौजवान आंदोलन करते रहे हैं। 

हिन्दुस्तान में छात्र आंदोलन या नौजवान आंदोलन मुर्दा पड़े हुए हैं। यह नौबत इस देश के लोकतंत्र के लिए भी खतरनाक है। लोग 18 बरस की उम्र से वोट डालने का हक पा लेते हैं, लेकिन उन्हें अपने देश-प्रदेश के असल जलते-सुलगते मुद्दों की जानकारी पाने की भी फुर्सत नहीं है। उन्हें काम धेले का नहीं है, और जागरूकता पाने के लिए वक्त घड़ी का नहीं है। आज लोकतंत्र के बहुत से पहलुओं को देखकर अगर कलेजा ठंडा करने की जरूरत लगती है, तो हिन्दुस्तान के बाहर देखना पड़ता है। हिन्दुस्तान के नौजवानों का एक बड़ा हिस्सा आज धर्म के चक्कर में इस हद तक डूब गया है कि उसे धर्म ही सबसे बड़ा कर्म लगने लगा है। यह धर्म हिन्दुस्तानी जनचेतना पर अफीम की तरह असर कर रहा है, और लोगों की लोकतंत्र के प्रति जागरूकता को संवेदनाशून्य बना चुका है। इस देश की नौजवान पीढ़ी को आज इस वक्त अमरीकी विश्वविद्यालयों में चल रहे छात्र आंदोलन को देखना चाहिए, और फिर यह सोचना चाहिए कि क्या हिन्दुस्तान में छात्र फिलीस्तीन के लिए न सही, अपने खुद के लिए आवाज उठाने का हौसला रखते हैं?  (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक) 

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