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निजी अस्पतालों में गैर-जरूरी सिजेरियन डिलीवरी का काला बाजार
03-May-2024 2:03 PM
निजी अस्पतालों में गैर-जरूरी सिजेरियन डिलीवरी का काला बाजार

 अंकित

लेबर वार्ड के बिस्तर पर पड़ी नीलम को डॉक्टर ने कहा है कि सब कुछ बढिय़ा चल रहा है और आज रात 10 बजे तक तेरा बच्चा इस दुनिया में कदम रखेगा। बीते नौ महीनों से गर्भ में अपने बच्चे को सँभाले हुई नीलम को अब इसी घड़ी का इंतजार है। पर थोड़े समय बाद डॉक्टर नीलम के पास आती है और कहती है- ‘तुम्हारे बच्चे की जान खतरे में है और समय बहुत कम है। ऑपरेशन करना पड़ेगा, नहीं तो बच्चा मर भी सकता है।’ नीलम ऐसा कुछ सुनने के लिए तैयार नहीं थी। थोड़ी देर पहले नीलम का खिलखिलाता चेहरा अब भय की मूरत बन गया है। बीते महीनों में उसने डॉक्टर के कहे अनुसार अपनी देख-रेख में कोई कमी नहीं रखी थी, वह हक्की-बक्की हुई डॉक्टर की इस बात का कारण नहीं समझ पा रही थी।

यह डरावनी घटना अकेली नीलम की कहानी नहीं, बल्कि आज भारत में हर रोज 23000 के करीब औरतों के साथ यही हो रहा है। सिजेरियन ऑपरेशन द्वारा बच्चों को जन्म देने की पीड़ा को महसूस करना इसे ठीक ढंग से जाने बिना संभव नहीं है। पहली बार सुनने में लग सकता है कि यह एक आम सर्जरी की तरह ही है, जो हर रोज होती ही रहती है। पर बात तब विशेष चर्चा का विषय बन जाती है, जब हमें यह पता लगता है कि यह बहुत गैर-जरूरी है और आज अंधा पैसा कमाने का एक जरिया बन चुका है।

सिजेरियन या सी-सेक्शन डिलीवरी क्या है?

जब से मनुष्यता ने आधुनिक युग में कदम रखा है, तब से लेकर आज तक के तकनीकी विकास से इंसान के लिए दुनिया की किसी भी बड़ी बीमारी या शारीरिक परेशानियों से लडऩा कोई बड़ी बात नहीं है। विज्ञान के इसी विकास की देन है यह तकनीक-सी-सेक्शन डिलीवरी। आमतौर पर एक सेहतमंद माँ अपने बच्चे को बिना किसी विशेष डॉक्टरी मदद के जन्म देती है जिसे योनि-प्रसव, क़ुदरती या नॉर्मल डिलीवरी भी कहा जाता है, पर कुछ हालतों में ऐसा भी होता है जब शारीरिक कमजोरी, ख़ून की कमी, इंफे़क्शन के बढऩे या हादसों में जख्मी होने के कारण बच्चे को क़ुदरती तौर से जन्म देने के लिए माँ सक्षम नहीं होती। ऐसी हालत में सी-सेक्शन डिलीवरी की जाती है, जिसमें बच्चेदानी के ऊपरी चमड़ी समेत सात अलग-अलग परतों को चीरकर बच्चे को बाहर निकाला जाता है। यह बात सुनने में जितनी पीड़ादायी है, असल में इससे कई गुणा दर्दनाक है। लेकिन जहाँ ऊपर बताए गए कारणों से तकनीक की कमी के कारण सच में कितनी ही औरतों और बच्चों की मौत हो जाती थी, वहाँ यह तकनीक विज्ञान का एक तोहफा साबित होती है। पर सवाल यह है कि आज इस तकनीक का इस्तेमाल इंसानी भलाई के लिए किस हद तक किया जा रहा है?

आज भारत में हर रोज करीब 23000 बच्चे सिजेरियन के द्वारा पैदा होते हैं। अगर हम इस गिनती को सरकारी अस्पतालों और निजी अस्पताल में हुई डिलीवरियों में बाँट दें तो सरकारी अस्पतालों में होने वाली कुल डिलीवरियों में सिजेरियन डिलीवरी 14त्न है, वहीं निजी अस्पतालों में यह गिनती 54 से 60त्न तक है, यानी निजी अस्पताल में होने वाले हर 100 डिलीवरियों में से लगभग 60 डिलीवरियाँ सिजेरियन द्वारा की जा रही हैं।

राज्य विशेष आँकड़ों के मुताबिक पंजाब के सरकारी और निजी अस्पतालों में यह अनुपात क्रमवार 34त्न और 51त्न है। तेलंगाना के निजी अस्पतालों में हर 100 में से 89 बच्चे सिजेरियन द्वारा पैदा हो रहे हैं और बिहार के सरकारी और निजी अस्पतालों में क्रमवार यह गिनती 6त्न सरकारी अस्पतालों में और 48.8त्न निजी अस्पतालों में होते हैं।

ऊपर दिए गए आँकड़ों से यह बात साफ है कि निजी अस्पतालों में सिजेरियन द्वारा होने वाली डिलीवरियाँ सरकारी अस्पतालों के मुकाबले करीब चार गुना ज़्यादा है। कई राज्यों में तो यह अनुपात 5 से 6 गुना तक हैं, पर इसका मतलब यह भी नहीं है कि सरकारी अस्पतालों की स्थिति बहुत अच्छी है। यहाँ अन्य कारणों से होने वाले ऑपरेशनों को भी टाला जाता है, जिसे लेकर सरकारी स्वास्थ्य व्यवस्था आज निंदनीय स्थिति में है, जिस पर विस्तार से चर्चा की ज़रूरत है।

निजी अस्पतालों में बढ़ते सिजेरियन के मामलों का कारण है, इससे होने वाली अपार कमाई। खर्चे के नजरिए से क़ुदरती ढंग से जन्म देने के मुकाबले माँ के परिवार को सिजेरियन से जन्म देने में लगभग 8 से 10 गुना तक ज्यादा खर्च करना पड़ता है। भारत में सिजेरियन आपरेशनों के लिए अस्पताल में दाखिल होने से लेकर छुट्टी मिलने तक आमतौर पर 30 से 50 हज़ार का खर्चा आ जाता है। ज़्यादा महँगे अस्पतालों में तो यह खर्चा और भी बढ़ जाता है और यहाँ तक कि लाखों तक भी पहुँच जाता है। एक तो गैर-जरूरी तौर पर ऑपरेशन किए जाते हैं, साथ ही गैर-जरूरी तौर पर दाखिल रखकर भी लोगों की जेबों पर डाका मारने की कोशिश की जाती है। इस प्रकार ‘डॉक्टरी सेवा’ के नाम पर डकैती की जा रही है।

यही क़ीमत एक सरकारी अस्पताल में भले ही कम है, मगर इन अस्पतालों की स्थिति किसी रिफ्य़ूजी कैंप से भी कहीं बदतर है, जहाँ बेड की कमी के कारण एक बेड पर दो-दो मरीजों को रहना पड़ता है। इसके अलावा अन्य सुविधाओं और स्टॉफ की कमी के कारण स्थिति और गंभीर होती है। इससे एक और बात साफ जाहिर होती है कि लगभग आधे से ज़्यादा ऑपरेशन गैर-जरूरी होते हैं, जहाँ इन मामलों में माँ बच्चे को एक कुदरती और सुरक्षित तरीके से जन्म दे सकती हैं, मगर फिर भी सेहतमंद महिलाओं को इस प्रक्रिया के लिए राजी करने के लिए अस्पताल में काफी नाटक खेला जाता है। यहाँ अस्पताल में दाखिल किसी गर्भवती महिला की डिलीवरी के कुछ घंटे पहले एक सिलसिलेवार ढंग से ऐसा माहौल बनाया जाता है, जिससे वह और उसका परिवार इसके लिए मान जाए। आइए नीलम की कहानी से लेबर रूम में चलते इस ड्रामे को समझने की कोशिश करते हैं-

नीलम के बच्चे के जन्म होने में अभी लगभग 5 से 6 दिन का समय बाकी है, मगर डॉक्टर उसे कहती है, ‘आज रात 10 बजे के करीब तुम्हारा बच्चा इस दुनिया में कदम रखेगा, सब कुछ बढिय़ा चल रहा है।’ रात का समय बीत जाता है, लेकिन नीलम की डिलीवरी नहीं होती। कुछ समय बाद डॉक्टर फिर से आती है और कहती है कि ‘तुम्हारे बच्चे की जान खतरे में है और समय बहुत कम है, ऑपरेशन करना पड़ेगा नहीं तो बच्चा मर भी सकता है।’ इसके लिए वह यह बहाना देती है कि तुम्हारे बच्चे की धडक़न ठीक ढंग से नहीं चल रही (इसके अलावा दूसरे झूठे कारण भी दिए जाते हैं, जैसे गले में प्लेसेंटा फँस गया है, पोजीशन बिगड़ गया है, आदि)। इसी दौरान नीलम को ‘पिटोसिन’ नाम का एक इंजेक्शन लगाया जाता है। यह इंजेक्शन बहुत ही गंभीर स्थिति में लगाया जाता है, जो एक उत्प्रेरक का काम करती है, यह बच्चेदानी की मांसपेशियों को सिकुडऩे पर मजबूर करती है, जिससे एक नावाजिब प्रसव पीड़ा शुरू हो जाती है, जो एक कुदरती प्रसव पीड़ा से कई गुना ज्यादा दर्दनाक होती है। कानूनी तौर पर इस इंजेक्शन के लिए माँ-बाप के हस्ताक्षर की जरूरत होती है, जिसके लिए डॉक्टर एक नया नाटक करते हैं। वह फिर से जिंदगी और मौत का हवाला देकर माँ-बाप को राजी कर लेते हैं। ऐसी स्थिति में अक्सर ही माँ-बाप डॉक्टर पर भरोसा कर यह सोचते हैं कि डॉक्टर ने कहा है तो सही ही कहा होगा। मगर उनके इसी भरोसे का फ़ायदा उठाया जाता है। इसके बाद इस नाटक का अंत हो जाता है और ऑपरेशन थिएटर अपनी तैयारी में जुट जाते हैं। यहाँ से नीलम के परिवार के लिए अगले कुछ घंटो तक जारी रहने वाली बड़े ख़र्चों की लड़ी शुरू हो जाती है।

नीलम की कहानी में उन्नीस-बीस का फर्क जोड़ दें, तो यह आज लगभग हर रोज 23000 औरतों के साथ हो रहा है। सिजेरियन के बाद 90त्न माएँ अपने अगले बच्चों को भी नॉर्मल डिलीवरी से जन्म नहीं दे पाती। ऑपरेशन के बाद शरीर में भारी खून की कमी होती है, जिसे गरीबी के कारण ज्यादातर औरतें पूरा नहीं कर पाती। इसके अलावा गंभीर देखभाल की जरूरत होती है, जिसका खर्चा उठाना एक और विपदा है। गाँव-घरों में जहाँ सरकारी स्वास्थ्य व्यवस्था की भारी कमी है, जहाँ औरतों को डिलीवरी के लिए दूर शहर के चक्कर काटने पड़ते हैं, वहाँ वह अक्सर निजी अस्पतालों के इस नाटक और गोरखधंधे  फँसकर रह जाती हैं।

मगर यह कहानी सिर्फ लेबर रूम पर ही ख़त्म नहीं हो जाती। आज पूरी दुनिया में जगह -जगह निजी अस्पतालों का एक जाल है। कैंसर जैसी बड़ी बीमारियों के इलाज के लिए कोई आम आदमी सरकारी अस्पतालों से उम्मीद नहीं कर सकता। जहाँ देश की अच्छी स्वास्थ्य व्यवस्था का बखान करने वाले नेता ख़ुद अपने इलाज के लिए विदेशों में शरण लेते है, वहाँ आम लोगों के लिए क्या उम्मीद हो सकती है। मगर आज स्वास्थ्य व्यवस्था के बाजार बन जाने के लिए कौन जिम्मेदार है? आज हम एक ऐसे समाज में जी रहे है, जहाँ किसी भी चीज का उत्पादन मुनाफ़ा कमाने के लिए होता है। उसी तरह विज्ञान की हर बेहतरीन खोज भी मुनाफाखोरों के हत्थे चढक़र मुनाफ़ा कमाने का एक औजार-भर रह जाती है। इसलिए यह तब तक खत्म नहीं हो सकता, जब तक इस मुनाफे के लिए काम करती व्यवस्था की जगह हम ऐसा समाज नहीं बना लेते, जहाँ विज्ञान और उत्पादन लोगों की ज़रूरतों को पूरा करे और जहाँ तमाम सुविधाएँ सभी की पहुँच में हों।

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