विचार / लेख

ऐसे लोगों को बहसें मुबारक
06-May-2024 1:36 PM
ऐसे लोगों को बहसें मुबारक

प्रिय दर्शन

1. बहस हारने या जीतने के लिए नहीं होती। वह किसी नतीजे तक पहुंचने के लिए होती है। हालांकि नतीजे तक पहुंचना आसान नहीं होता, लेकिन किसी भी बहस का लक्ष्य उस तरफ बढऩा जरूर होना चाहिए। अगर बहस कहीं नहीं बढ़ती तो दोनों पक्ष हारते हैं।

2. दलीलों को तीर-तलवार-भाले-खंजर की तरह इस्तेमाल नहीं करना चाहिए। उनका काम किसी को घायल करना या चोट पहुंचाना नहीं होता। वे किसी बहस में कोई नया सिरा जोडऩे के होती हैं।

3. लेकिन दलीलें मिलती कहां से हैं - तर्क से, अध्ययन से, अनुभव से और आस्था से भी। आप कहां खड़े हैं, किस रास्ते चलते हुए आए हैं, जीवन के साथ आपने या जीवन ने आपके साथ क्या किया है- इसके आधार पर आपका विचार तय होता है, आपके तर्क तय होते हैं, आपकी दलीलें तय होती हैं।

4. मगर यही जीवन, यही अभ्यास तय करता है कि आखिर हम बहस क्यों कर रहे हैं? किसी नतीजे तक पहुंचने के लिए या किसी को नीचा दिखाने के लिए या बहस को भटकाने के लिए या कोई पुराना हिसाब चुकाने के लिए? बहस करते हुए हम जितना दूसरों को घेरते हैं उतना ख़ुद भी घिरते जाते हैं।

5. केदारनाथ सिंह की चर्चित कविता है- धूप में घोड़े पर बहस’। कविता में एक निरर्थक और एक दूसरे से असंपृक्त बहस जारी है। बहस में तीन लोग शामिल हैं। लेकिन उनके बीच कोई तारतम्य न होते भी बहस में कई बहुत मासूम दुख चले आते हैं, निजी अनुभवों और पछतावों की छाया चली आती है। बहस करते हुए दरअसल हम खुद को खोल रहे होते हैं।

6. बहस करते समय यह ध्यान रखें कि किससे बहस कर रहे हैं। उसका इरादा क्या है? बहस में कई बार बहुत अच्छी और आकर्षक लगने वाली दलीलें भी गलत नतीजों तक ले जा सकती हैं। बहुत अच्छे वक्ता बहस जीतने के लिए गलत दलीलों की मदद लेते हैं या अनजाने में बहस के कुछ महत्वपूर्ण पहलू छोड़ देते हैं।

7. दरअसल बहस का सबसे महत्वपूर्ण उपकरण तर्क है। लेकिन तर्क की भी सीमा होती है। आधुनिकता के तर्कवाद ने हमें एक अंधी सुरंग में भी धकेला है। गांधी बहुत तार्किक नहीं थे। जहां तर्क उन्हें अपर्याप्त लगता था, वहां वे अपनी अंत:प्रेरणा की शरण ले लेते थे।

8. लेकिन तर्कवाद की सीमा समझने का मतलब तर्क-विरोधी होना नहीं होता। तर्क का अतिशय सहारा अक्सर कुतर्क की ओर ले जाता है।

और कुतर्क सबसे पहले तर्क को बेमानी बनाता है और फिर पूरी बहस को।

9. वैसे सोशल मीडिया पर बहसें अक्सर अनियंत्रित होती हैं। कोई भी कुछ भी बोल कर निकल सकता है। इसमें बहुत ऊर्जा जाती है। वैचारिक बहसें व्यक्तिगत छींटाकशी में बदल जाती हैं। लोग एक ही बात को जबरन खींचते रहते हैं।

10. शायद कुछ लोगों को इसी से ऊर्जा मिलती है। बहस से नहीं, बहस को पटरी से उतार कर। ऐसे लोग खुद को पीडि़त दिखाने में भी फौरन देर नहीं करते। ऐसे लोगों को बहसें मुबारक।

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