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माई लॉर्ड ! पत्नी जायदाद नहीं है
07-May-2024 7:46 PM
माई लॉर्ड ! पत्नी जायदाद नहीं है

-नासिरुद्दीन
चूंकि स्त्री पत्नी है इसलिए उसके साथ किसी भी तरह से बनाया गया यौन रिश्ता ग़लत नहीं हो सकता है। मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय का हालिया एक फ़ैसला तो कुछ ऐसा ही मानता है।

दरअसल, एक महिला ने अपने पति पर जबरिया ‘अप्राकृतिक’ यौन संबंध बनाने का आरोप लगाया था।

महिला ने भारतीय दंड संहिता की धारा 377 के तहत कार्रवाई की मांग की। कोर्ट के मुताबिक, पत्नी के साथ ‘अप्राकृतिक’ यौन संबंध अपराध नहीं माना जा सकता और मुकदमा ख़ारिज कर दिया।

यही नहीं मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक, कोर्ट ने यह भी कहा कि यह बलात्कार की श्रेणी में भी नहीं आता है क्योंकि क़ानून 15 साल से ज्य़ादा उम्र की पत्नी के साथ कैसे भी बनाये गये और किसी भी तरह बनाये गये यौन रिश्ते को बलात्कार नहीं मानता।
अदालत ने ऐसा फ़ैसला कैसे दिया?

कोर्ट जब ऐसे फ़ैसले देती है तो लगता है क्या वाक़ई क़ानून की आंख पर पट्टी ही बंधी होती है या वह लकीर का फक़ीर होती है?

कोर्ट ऐसा कैसे कह सकती है कि पत्नी के साथ किसी भी तरह से किसी भी तरह का बनाया गया यौन संबंध ठीक है या वह अपराध की श्रेणी में नहीं लाया जा सकता है? या ज़बरदस्ती के लिए पति पर मुक़दमा नहीं किया जा सकता है? मगर कोर्ट ने ऐसा ही कहा।

कोर्ट जब सुनवाई करती है या फ़ैसले देती है तो यह यांत्रिक प्रक्रिया नहीं होती। कोर्ट क़ानून को विस्तार भी देती है और कई बार वह नई व्याख्या भी देती है। उसे समय के साथ अपनी व्याख्या में बदलाव की भी ज़रूरत होती है। तब ही वह राह दिखाने वाली मानी जाती है। इसीलिए सोचने वाली बात है, आज के वक़्त में ऐसे फ़ैसले कैसे दिये जा सकते हैं?

यही तो पितृसत्ता है न!
हमारा समाज पितृसत्तात्मक है। यानी उसकी धुरी पितृसत्ता है। मर्दों की भलाई सोचने वाली सत्ता। यह विचार है। इसकी जड़ें भी काफ़ी गहरी हैं। इसकी शाखें कहां तक फैली हैं, इसका अंदाज़ा लगा पाना मुश्किल है।

पितृसत्ता को बनाए रखने में समाज में स्थापित संस्थाओं का भी बड़ा योगदान होता है। अदालतें भी ऐसी ही संस्था हैं। इसलिए पितृसत्ता का असर गाहे-बगाहे वहां भी दिख जाता है। यहां से विचार बनते हैं। फ़ैसले के रूप में आने वाले विचारों पर पितृसत्ता का असर दिखता है।

वह कई बार मर्द के पक्ष में खड़ी दिखती हैं। इस फैसले पर भी इसका असर साफ़ देखा जा सकता है। कोर्ट यही मान रही है न कि पति, पत्नी का स्वामी है। स्वामी यानी मालिक। यानी स्त्री जो पत्नी है, उस पर मर्द पति का कब्ज़ा है। पत्नी स्त्री के तन-मन सब पर पति पुरुष का अधिकार है।

इसलिए वह उसके साथ जैसे और जब चाहे यौन सम्बंध बना सकता है। तो फिर सबसे बड़ा सवाल है, स्त्री का आज़ाद वजूद है या नहीं? आज़ाद वजूद यानी स्वतंत्र अस्तित्व। स्त्री के साथ उसके पति ने जो किया, यह फ़ैसला उसके जवाब नहीं देता बल्कि कई सवाल खड़े करता है।

स्त्री का स्वतंत्र अस्तित्व है या नहीं?
ऐसे फ़ैसले स्त्री के स्वतंत्र अस्तित्व और व्यक्तित्व को नकारते हैं। स्त्री सबसे पहले इंसान है। बतौर इंसान वह आज़ाद है। उसका आज़ाद वजूद है। महज़ शादीशुदा होने से उसका वजूद ख़त्म नहीं हो जाता। न ही उसके वजूद का मालिक कोई और हो जाता है।
हालांकि, हमारा समाज इसके उलट ही मानता है। यह विचार उस पर हावी है कि विवाहित स्त्री का वजूद उसके पति से है। पति से अलग उसका अस्तित्व नहीं है। यानी पति कहे- उठ तो उसे उठना है और वह कहे- बैठ तो उसे बैठना है। यानी वह स्त्री न हो कोई मुंह बंद गुडिय़ा हो।

ऐसी गुडिय़ा जिसकी चाबी किसी और के हाथ में है। उसके शरीर से उसका पति जैसे चाहे, वैसे खेल सकता है। उसके लिए सब जायज़ है। बल्कि वह तो उसका हक़दार है। ऐसे ही विचार की मान्यता किसी मर्द को इस बात की शह दे देती हैं कि वह जैसा चाहे, वैसा अपनी पत्नी के साथ कर सकता है। यह विचार उसे बेख़ौफ़ और बेअंदाज़ बनाते हैं।

हिंसा से घिरी जि़ंदगी
ऐसा नहीं है कि ये बातें हवा में हो रही हैं।

पति नाम का मर्द क्या करता है, इसकी झलक, एक आंकड़े में भी देखी जा सकती है। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-5 (एनएफएचएस-5) बताता है कि शादीशुदा महिलाओं का लगभग एक तिहाई (29।3 फ़ीसदी) किसी न किसी रूप में पति की हिंसा झेलती है।
यह हिंसा शारीरिक और यौनिक दोनों तरह की होती है। हम जिस सामाजिक माहौल में रहते हैं, उसमें किसी स्त्री का अपने पति की हिंसा को स्वीकार करना आसान नहीं है। यौन हिंसा को स्वीकार करना और बताना तो और भी मुश्किल है।

इसलिए एक तिहाई का यह आंकड़ा और ज़्यादा ही होगा। यही नहीं, पति की यौन हिंसा किस तरह की होगी, उसका सहज अंदाज़ा लगाया जा सकता है।

अगर महिला पत्नी न हो तब
दिलचस्प है कि पत्नी के साथ जो हिंसा, अपराध नहीं है, वही कर्म किसी अन्य महिला के साथ कोई मर्द करे तो वह गंभीर जुर्म होगा। क़ानून भी उसे जुर्म मानेगा। उसके लिए कड़ी से कड़ी सज़ा तय करेगा।

मगर देखिए यह कैसी निराली बात है। यौन हिंसा करने के बाद भी पति-पत्नी के रिश्ते में यह छूट पति के हिस्से में आ गई। पति को पत्नी के शरीर का हाकिम मान लिया गया। जबरन बनाया गया यौन संबंध बलात्कार माना जाता है। फिर स्त्री पत्नी हो या कोई और महिला, वह बलात्कार ही माना जाना चाहिए। मगर क़ानून की नजऱ में ऐसा नहीं है।

अदालत भी यही मान रही है। वह कोई नई व्याख्या देने को तैयार नहीं है। सवाल है, पतियों को ज़बरदस्ती के अपराध से क्यों मुक्त रखना चाहिए? हत्या के अपराध के मामले में तो ऐसी छूट नहीं है? यह छूट पति को सिफऱ् इसलिए मिली हुई है कि यह समाज मर्दाना है। वह स्त्री को अपने मातहत मानता है। स्त्री के अस्तित्व को नकारता है। यह गाँठ बाँधने की ज़रूरत है कि पत्नी, पति की जायदाद नहीं है।

रज़ामंदी का कोई मतलब है या नहीं?
रज़ामंदी भी कोई चीज़ है। अगर रिश्ते को लोकतांत्रिक होना है, तो उसे रज़ामंदी के सिद्धांत पर चलना होगा। यानी ‘न’ को ‘न’ समझना होगा। ‘न’ को ‘न’ मानना होगा। ‘न’ की इज्ज़़त करनी होगी। यह सब तब ही मुमकिन है, जब रज़ामंदी, रिश्ते की बुनियादी शर्तों में एक हो।

किसी भी तरह का, किसी भी तरह से, कभी भी बनाया गया यौन संबंध रज़ामंदी की बुनियाद को हिला देता है। यह स्त्री के लोकतांत्रिक अधिकार का हनन है। यह लोकतांत्रिक रिश्ते के ख़िलाफ़ है। 21वीं सदी में बेहतर सहजीवन के लिए रिश्ते का लोकतांत्रिक होना निहायत ज़रूरी है।

इस पैमाने पर मध्य प्रदेश हाईकोर्ट का फ़ैसला खरा नहीं उतरता है। यह फ़ैसला स्त्री की गरिमा के ख़िलाफ़ है। मानवाधिकार के पैमाने पर भी खरा नहीं है। शादीशुदा जि़ंदगी में बलात्कार होता है, इस बात को न मानने का कोई आधार नहीं है।

यह केस ही इस बात की तस्दीक करता है। शादी की पवित्रता के नाम पर हम कब तक इस ‘बलात्कार’से मुँह चुराते रहेंगे? यह ‘बलात्कार’ होता रहेगा तो शादी पवित्र कहाँ रहेगी?

(bbc.com/hindi)

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