विचार / लेख

पूरी सभ्यता पर मजदूरों का हक उधार है
10-May-2024 2:30 PM
पूरी सभ्यता पर मजदूरों का हक उधार है

  दिलीप कुमार पाठक

ईरानी कवि साबिर हका पढऩे-लिखने के शौकीन इमारतों में मजदूरी करते थे। साबिर के पास रहने के लिए घर भी नहीं है, कभी सडक़ों पर सोते हैं कभी सोते ही नहीं। इसी कारण पिछले बारह साल से इतना वक्त नहीं मिल पाया कि वे अपनी पुस्तक को पूरा कर सकें। फिर भी लिखते रहते हैं। वैसे भी ईरान में सेंसरशिप लागू है। कवियों-लेखकों के शब्द, सरकार सेंसर कर देती है। तब वे आधे वाक्य बनकर रह जाते हैं।

फिर भी साबिर को जब मौका मिलता तो अपनी वेदना को शब्दों का रूप देकर कविताएं लिख डालते थे। अव्वल पहले तो उनकी रचनाएं कोई प्रकाशित करने के लिए राजी ही नहीं हो रहा था, सही तो है मजदूर भला कवि कैसे हो सकते हैं! हम सब भी तो यही सोचते हैं। लेकिन जब उनकी कविताएं दुनिया की नजऱ में आईं तो पढऩे-लिखने वाले लोग हैरत में पड़ गए। दरअसल वो कविताएं नहीं थीं वो एक वेदना थी।

वाकई साबिर ने यथार्थ को क्या खूब शब्द दिए हैं। उनके दो कविता-संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। ईरान श्रमिक कविता स्पर्धा में प्रथम पुरस्कार पा चुके हैं। बहुत कम लिखने वाले साबिर कहते हैं-‘कविता से पेट नहीं भरता, पैसे कमाने के लिए ईंट-रोड़ा ढोना पड़ता है। एक बार साबिर ने कहा था, -‘मैं थका हुआ हूं, बेहद थका हुआ, मैं पैदा होने से पहले से ही थका हुआ हूं, मेरी मां मुझे अपने गर्भ में पालते हुए मज़दूरी करती थी, मैं तब से ही एक मजदूर हूं। मैं अपनी मां की थकान महसूस कर सकता हूं। उसकी थकान अब भी मेरे जिस्म में है।’

माँ की थकान खुद में महसूस करने वाले साबिर ने लिखा है

क्या आपने कभी शहतूत देखा है, जहां गिरता है,

उतनी ज़मीन पर उसके लाल रस का धब्बा पड़ जाता है।

गिरने से ज़्यादा पीड़ादायी कुछ नहीं।

मैंने कितने मज़दूरों को देखा है इमारतों से गिरते हुए,

गिरकर शहतूत बन जाते हुए...

मौत के मुहाने पर खड़ा एक मजदूर जिंदगी भर मौत से डरते हुए जिये जाता है। मौत के उसी डर पर साबिर ने लिखा -

‘ताउम्र मैंने इस बात पर भरोसा किया कि झूठ बोलना ग़लत होता है गलत होता है किसी को परेशान करना ताउम्र मैं इस बात को स्वीकार किया कि मौत भी जिंदगी का एक हिस्सा है। इसके बाद भी मुझे मृत्यु से डर लगता है, डर लगता है दूसरी दुनिया में भी मजदूर बने रहने से।

मैंने अपने पिता को हमेशा मजबूर देखा है, मैं उनके लिए कुछ कहने की हिम्मत नहीं कर पा रहा। जिस व्यक्ति ने अपना जीवन खपा दिया मेरी एक खुशी के लिए जिसने जिंदगी कुर्बान कर दी। मैं कविताएं लिखूँ भी तो किसके लिए मुझे कविताएं लिखते हुए अफसोस होता है कि मेरे पिता पढ़ नहीं सकते। मेरे पिता मजदूर थे आस्था से भरे हुए इंसान जब भी वह नमाज़ पढ़ते थे (अल्लाह) उनके हाथों को देख शर्मिंदा हो जाता था।

राजनीति हमेशा मजदूर-किसानों को उम्मीद दिखाते हुए कसमें खाती है।  दरअसल वो कसमें नहीं खाती मजदूरों की चेतना हर रही होती है। बड़े-बड़े बदलाव भी कितनी आसानी से कर दिए जाते हैं। हाथ-काम करने वाले मज़दूरों को राजनीतिक कार्यकर्ताओं में बदल देना भी कितना आसान रहा, है न! क्रेनें इस बदलाव को उठाती हैं और सूली तक पहुंचाती हैं।

जब मैं मरूंगा अपने साथ अपनी सारी प्रिय किताबों को ले जाऊंगा अपनी क़ब्र को भर दूंगा उन लोगों की तस्वीरों से जिनसे मैंने प्यार किया। मेरे नये घर में कोई जगह नहीं होगी भविष्य के प्रति डर के लिए। मैं लेटा रहूंगा। मैं सिगरेट सुलगाऊंगा और रोऊंगा उन तमाम औरतों को याद कर जिन्हें मैं गले लगाना चाहता था। इन सारी प्रसन्नताओं के बीच भी एक डर बचा रहता है, कि एक रोज, भोरे-भोर, कोई कंधा झिंझोडक़र जगाएगा मुझे और बोलेगा- ‘अबे उठ जा साबिर काम पे चलना है।

ये तो एक साबिर की बात है कभी-कभार सोचता हूं मजदूरों को हिसाब करना आ गया गऱ उन्होंने अपना हिस्सा मांग लिया तो क्या सरकारें क्या सभ्यताएं ईश्वर को भी मुँह छिपाने की जगह नहीं मिलेगी। खैर वर्दी को सलाम करती हुई सभ्यताएं फटी हुई कमीज को कभी भी आदर की दृष्टि से नहीं देख सकतीं।  कम से कम, तब तक, जब तक हर मजदूर के घर साबिर हका पैदा नहीं होते जो अपना हक ले सकें।

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