विचार / लेख
के.जी.कदम
हम सबने पढ़ा.. मौर्य काल ,गुप्त काल, मुगल आये तो मुगल काल ब्रिटिश आये तो ब्रिटिश काल।
इसी तरह अब मोबाइल आये तो ‘स्क्रोल काल’ शुरू हो गया है।
ये काल व्यवस्था संभवत ईश्वरीय व्यवस्था ही है। मनुष्य की अंगुली करने की आदत को देखकर ही ईश्वर ने ‘स्क्रोल काल’ की रचना की कल तक मनुष्य दूसरों के अंगुली करके मजा लेता था.. अब अपनी ही अंगुली अपने मोबाइल पर रगड़ कर खुद के मजे ले रहा है।
ईश्वर भी अब निश्चिंत है। अब मनुष्य जितनी अंगुली करेगा। खुद ही फंसेगा, उलझेगा, डूबेगा।
और डूब भी रहा है आप कहीं भी देख लो। घर में देख लो, गार्डन में देख लो, बाजार में देख लो, दफ्तर में देख लो, बस में, ट्रेन मेंज् शौचालय तक में भी स्क्रोल हो रहे है।
नया जन्मा बच्चा अब स्क्रोल के साथ दूध पीता है। मोबाइल छिन लो तो सर पटकने लगेगा। मम्मियां ऐसी दिक्कत आने से पहले ही मोबाइल थमा देती है.. ले बेटा ले . पर दूध पी, खाना खा।
ये मोबाइल, बच्चों को बहलाने का बह्मास्त्र है और इसके प्रयोग से कई मम्मियां अपनी किटी पार्टी पूरा लुत्फ ले लेती है।
यहां कोई हमारी तुम्हारी जैसी पुरानी सोच का आदमी बोल भी दे कि ‘आप ये क्या कर रही है’ तो एक ही जवाब.. क्या करें भाई साहब.. बहुत जिद्दी है ये।
खैर ये घर घर की कहानी है। वाकई ये मोबाइल एक महामारी में बदल रहा है.. फर्क इतना भर है कि इस महामारी में शरीर सलामत रहता है। सिर्फ आत्मा मरती है।
और मनुष्य को भी अब चिन्ता शरीर की ही है, आत्मा भले ही चिड़चिड़ी, गुस्सैल, संवेदनाहीन.. रहे या मरे अब कोई फर्क नहीं पड़ता। नतीजन ज्यादातर लोग.. जिन्हें हम जिन्दा समझते है। वे सिर्फ शरीर भर है।
कल शाम आसपास कहीं बारिश से मौसम सुहाना था और रात हम दोनो (श्रीमतीजी) हर रोज की तरह पीस पार्क में टहल रहे थे। यही बात कर रहे थे कि अच्छे मौसम में भी लोग बाहर क्यों नहीं निकलते। हवाओं से बात करने का अलग ही आनंद है.. कभी कभी हाथों को फैलाकर मौसम का आनन्द लेना चाहिए।
हम दोनो के अलावा पार्क में लडक़ा और भी था जो मौसम से नहीं मोबाइल से जुड़ा था। वो कई बार दिन में भी आता है उसके लिए ये उलझने, डूबने की सुरक्षित जगह है।
उसके अलावा पार्क कोई नहीं आता, कभी कभार एक्के दुक्के लोग आ जाते है पर वे भी लग जाते है रील फिल में।
सुहानी शाम भी लोग घर में मोबाइल लेकर लेटे रहते है । अच्छा मौसम और ठण्डी हवाएं लौट जाती है। गोया कि अब हर मौसम मोबाइल में उपलब्ध है। अब ‘लाईव’ से ज्यादा ‘वर्चुअल’ का महत्व है। संवेदनाओं से ज्यादा शरीर काज् ये स्क्रोल काल है।