संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : बच्चों का स्क्रीन टाईम किस तरह हो रहा है जानलेवा...
12-May-2024 1:37 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : बच्चों का स्क्रीन टाईम किस तरह हो रहा है जानलेवा...

छत्तीसगढ़ के बस्तर में नाना के घर आए हुए 14 बरस के एक लडक़े से जब परिवार ने वीडियो गेम की लत छुड़वाने के लिए मोबाइल छीना, तो वह घर छोडक़र निकल गया, और अब नदी से उसकी लाश निकली है। ऐसा माना जा रहा है कि उसने खुदकुशी कर ली। इसके पहले भी जब उसे वीडियो गेम की लत छुड़ाने की कोशिश की गई तो वह एक बार घर छोडक़र चला गया था, और एक बार पहले भी खुदकुशी की कोशिश कर चुका था। अब जब दुनिया में आज मदर्स डे मनाया जा रहा है, और मां के त्याग की महिमा का गुणगान चल रहा है, उस दिन यह मां अपने किशोर बेटे से वीडियो गेम का यह नशा छुड़वाने की कोशिश करते उसे खो चुकी है। आज कम या अधिक हद तक यह बीमारी घर-घर तक बिखर चुकी है कि छोटे-छोटे बच्चे मोबाइल पर कार्टून फिल्में देखने के ऐसे आदी हो चुके हैं कि वे मां-बाप को खाने-पीने के लिए एक किस्म से ब्लैकमेल करने लगते हैं, और जब तक मोबाइल न मिले, या टीवी का रिमोट उनके हाथ न आए, तब तक वे खाना शुरू नहीं करते। उसके बाद वे अधिक से अधिक वक्त तक स्क्रीन देखने के चक्कर में बहुत धीरे-धीरे खाने लगते हैं, ताकि उसे फोन या टीवी न छीना जाए। इसका क्या इलाज हो सकता है, यह सोचना बड़ा मुश्किल है।

दुनिया में कुछ समझदार लोग ऐसे कार्टून पोस्ट करते हैं जिनमें मां-बाप किताबें पढ़ रहे हैं, तो उनके साथ बैठे उनके बच्चे भी किताबें पढ़ रहे हैं। अब अगर घर के तमाम बड़े लोग बहुत सा वक्त मोबाइल या लैपटॉप-कम्प्यूटर पर गुजारने लगते हैं, तो बच्चों के साथ बात करने और खेलने का वक्त भी किसी के पास नहीं रहता, न ही कोई कहानी की किताबों में उनको व्यस्त रख सकते, न बाहर ले जा सकते, और नतीजा यह होता है कि वे भी बड़ों की तरह किसी न किसी स्क्रीन में उलझकर रह जाते हैं। वीडियो गेम खेलने में तो कुछ हद तक दिमाग लगता है, लेकिन उसकी चुनौतियों से जूझते हुए बच्चे उसमें और डूबते चले जाते हैं, और अधिक स्कोर पाने की उनकी कोशिश कभी खत्म ही नहीं होती है। दूसरी तरफ जो बच्चे कार्टून फिल्में देखने के आदी हो जाते हैं, उन्हें अपने दिमाग और अपनी कल्पना का कोई भी इस्तेमाल नहीं करना पड़ता, और महज आंख-कान से ही वे ऐसे वीडियो देख लेते हैं। इन दोनों ही मामलों में बच्चों के मानसिक, और शारीरिक भी, विकास का सिलसिला बहुत बुरी तरह प्रभावित होता है। और यह वह उम्र रहती है जब उनका दिमागी और भावनात्मक विकास होना चाहिए, और इसी उम्र में वे बिना किसी कल्पना के, बस वीडियो देखते रह जाते हैं।

एक दूसरी बड़ी दिक्कत यह हो रही है कि बच्चों को बचपन में और जितने किस्म के सामाजिक विकास की जरूरत रहती है, स्क्रीन के चलते उसकी गुंजाइश घटती चली जाती है। अभी एक बड़े जानकार मनोवैज्ञानिक ने कहा था कि दुनिया के तमाम प्राणियों में सिर्फ के इंसान के बच्चे हैं जिनकी जिंदगी का इतना लंबा हिस्सा बचपन में गुजरता है। बाकी तमाम प्राणियों के बच्चे बहुत जल्द बड़े हो जाते हैं। ऐसा शायद इसलिए हैं कि इंसान के बच्चों को सामाजिकता की एक लंबी प्रक्रिया से गुजरना होता है, परिवार, परंपरा, संस्कार, सभ्यता, संस्कृति जैसी बहुत सी चीजें रहती हैं जिन्हें बड़े होने के साथ-साथ बच्चे सीखते चलते हैं, और इसीलिए इंसान के बच्चों का बचपन उतना लंबा खिंचता है। अब अगर ऐसे में बच्चे मोबाइल फोन, वीडियो गेम, कार्टून फिल्में, सोशल मीडिया पर उलझकर रह जाते हैं, तो उन्हें बाकी किसी चीज की जरूरत नहीं लगती है, और नतीजा यह होता है कि वे विकास के इस क्रम से कुछ या अधिक हद तक अछूते रह जाते हैं। इसलिए बच्चों से किस तरह उनका स्क्रीन टाईम लिया जा सकता है, इस बारे में समाज और परिवार दोनों को गंभीरता से सोचना चाहिए।

और यह बात तो हमेशा से ही स्थापित है कि बच्चों को कुछ समझाने के लिए उनके सामने उसी काम को करके जो मिसाल रखी जाती है, उसका सबसे अधिक असर होता है। ऐसे में परिवार के बाकी लोगों को यह देखना चाहिए कि किस तरह वे बच्चों को बाहर के खेल में, सैर पर, दूसरे बच्चों के साथ खुले में रहने, और किताबें पढऩे जैसे कामों में लगा सकते हैं। इसके लिए उनके साथ अगर परिवार के किसी बड़े को रहना है, तो उन्हें भी उतनी देर तक अपने मोबाइल फोन से परे रहना पड़ेगा। हम कई बार सोशल मीडिया पर इस बात को लिखते हैं कि अगर आप एक बच्चे के साथ हैं, और मोबाइल फोन के भी साथ हैं, तो फिर आप बच्चे के साथ नहीं हैं। जरूरत रहे तो परिवार के लोगों को बच्चों की जिम्मेदारी का वक्त बांटना चाहिए कि किस-किस वक्त घर के कौन से लोग बच्चे या बच्चों के साथ रहेंगे। उतने वक्त उन्हें खुद फोन या टीवी से, कम्प्यूटर या अपने किसी दूसरे काम से मुक्त रहना चाहिए।

यह तो एक बच्चे की खुदकुशी से आज इस मुद्दे पर लिखे बिना रहा नहीं गया, लेकिन हम पहले भी इस बात को लिखते आए हैं कि बच्चों का विकास बाजार के फैक्ट्री-बंद खानपान से, बैट्री या बिजली से चलने वाले किसी भी उपकरण से, आसपास के किसी के बीड़ी-सिगरेट के धुएं से, या बचपन में ही उन पर लाद दिए गए धर्म से बहुत बुरी तरह प्रभावित होता है। इसके पहले कि यह नौबत बच्चों के घर छोडक़र जाने, या खुदकुशी की कोशिश तक पहुंचे, और लोगों को पेशेवर मनोचिकित्सकों या परामर्शदाताओं तक जाना पड़े, लोगों को खुद होकर अपनी सामान्य समझबूझ का इस्तेमाल करना चाहिए, और अपने बच्चों के लिए बिना उपकरणों के समय निकालना चाहिए। इसके लिए किसी परमाणु तकनीक जैसी जटिल समझ की जरूरत नहीं है, लोग बच्चों के साथ रहते हुए किस तरह अधिक से अधिक वक्त बिना गैजेट्स के रह सकते हैं, वह सोचना चाहिए। यह नौबत बहुत ही खतरनाक है कि वीडियो गेम से परे रखने पर कोई बच्चा खुदकुशी कर ले। दुनिया में इतने किस्म की चीजें मौजूद हैं जिनमें बच्चों को व्यस्त रखा जा सकता है, उनका ज्ञान बढ़ाया जा सकता है, उनका विकास बेहतर किया जा सकता है, परिवार को इस बारे में गंभीर कोशिश करनी चाहिए, सावधानी बरतनी चाहिए, और अपने आसपास के दूसरे परिवारों से भी इस बारे में बात करनी चाहिए क्योंकि बच्चे घर पर इन चीजों से परे रखे जाने पर दूसरे घरों में जाते ही वहां इनमें उलझ सकते हैं, इसलिए सावधानी आसपास भी फैलनी चाहिए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक) 

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