संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : यह तीर्थ नहीं, दसियों हजार लोगों को बारूद के ढेर पर बिठाने का सरकारी इंतजाम
15-May-2024 4:21 PM
‘छत्तीसगढ़’ का  संपादकीय : यह तीर्थ नहीं, दसियों हजार लोगों को बारूद के ढेर पर बिठाने का सरकारी इंतजाम

आज से करीब 11 बरस पहले केदारनाथ में विनाशकारी बाढ़ आई थी जिसमें पहाडिय़ों के कई हिस्से धसक गए थे, चट्टानें दूर-दूर तक बह गई थीं, बड़ा भूस्खलन हुआ था, और हजारों लोग मारे गए थे। कुदरत की वह मार जून के महीने में हुई थी जिसकी बरसी को आज ठीक एक महीना बाकी है। ऐसे में आज उत्तराखंड में चल रही चारधाम यात्रा को देखें, तो ऐसा लगता है कि सरकारों और लोगों ने कोई सबक नहीं लिया है। चारधाम यात्रा में बद्रीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री, यमुनोत्री के दर्शन किए जाते हैं। आज सुबह तक की खबर बताती है कि सैकड़ों बरस से चली आ रही इस यात्रा में इतने अधिक लोग पहुंच चुके हैं कि 45 किलोमीटर लंबा जाम लगा हुआ है, और लोग 25-25 घंटे बाद आगे बढ़ पा रहे हैं। यह भी खबर है कि दर्जनभर लोग दर्शन के इंतजार में सडक़ पर लगे जाम में ही गुजर चुके हैं। इस पहाड़ी रास्ते की जैसी तस्वीर पिछले दो-चार दिनों से दिख रही है, और वीडियो तैर रहे हैं वे भयानक हैं, और एक खतरनाक नौबत दिखा रहे हैं। उत्तराखंड के सरकारी आंकड़े बताते हैं कि वहां रिकॉर्ड संख्या में लोग पहुंचे हैं, और पहाड़ की सडक़ क्षमता भी जवाब दे चुकी है। नवंबर तक चलने वाली इस यात्रा ने इस बार इतने श्रद्धालुओं को खींचा है कि उसने रिकॉर्ड तोड़ दिए हैं। अब सवाल यह उठता है कि जहां ऐसा भयानक ट्रैफिक जाम है, जहां दसियों हजार दर्शनार्थी फंसे हुए हैं, वहां पर अगर किसी भी तरह की विपदा आती है, तो क्या होगा? क्या किसी भी तरह का इंतजाम इससे निपट सकेगा? जहां दसियों हजार गाडिय़ां एक-दूसरे से सटी खड़ी हैं, वहां पर अगर एक दुर्घटना हुई, तो क्या होगा? 

दुनिया भर के तीर्थों का कुछ ऐसा ही हाल रहता है क्योंकि वहां की धार्मिक मान्यताएं त्यौहारों और महूरतों से जुड़ी रहती हैं, और समय-समय पर सीमित जगह पर पहुंचने वाले अपार श्रद्धालु कई तरह के हादसों के शिकार होते हैं। अभी 2015 में ही सऊदी अरब के मक्का में हज करने गए हुए तीर्थयात्रियों के बीच भगदड़ हुई, और उसमें कुचलकर दो हजार से अधिक लोग मारे गए थे। हज यात्रा सऊदी अरब की बड़ी सख्त सरकार के फौलादी नियंत्रण में होती है जिसके लिए दुनिया के अलग-अलग देशों से आने वाले लोगों का सालाना कोटा तय किया जाता है ताकि भीड़ अधिक न बढ़े। इसके बावजूद वहां भगदड़ में बड़ी संख्या में मौतों का लंबा इतिहास है। 1990 में करीब 15 सौ लोग मारे गए थे, 2006 में साढ़े 3 सौ, और 2015 में 22 सौ से अधिक। वहां पर अग्नि दुर्घटनाओं में भी 1975 में 2 सौ लोग, 1997 में साढ़े 3 सौ लोग मारे गए। 

भारत के केदारनाथ में 2013 में आई बाढ़ में 6 हजार लोगों के मरने की खबर है, और बहुत से ऐसे लोग गायब हैं जिनके घर-बार के लोग भी नहीं हैं जो उनके गायब होने की रिपोर्ट कर सकें। अब सवाल यह उठता है कि इस ताजा-ताजा हादसे के बाद आज 11 बरस में ही अगर उसके सारे बुरे तजुर्बे को भुला दिया गया है, और इतना बड़ा खतरा खड़ा किया गया है, तो इसके लिए उत्तराखंड की राज्य सरकार के अलावा किसे जिम्मेदार ठहराया जा सकता है? जैसा कि किसी भी पहाड़ी राज्य में होता है, वहां दाखिले की तमाम सडक़ें सरकार के अच्छे काबू में रहती हैं, और सरकार की मर्जी के बिना, उसकी इजाजत के बिना कोई गाड़ी आगे तो बढ़ नहीं सकती। अब यह बात हमारी सबसे बुरी कल्पना से भी परे है कि ऐसे नाजुक पहाड़ी इलाके में, प्राकृतिक विपदा के खतरों को अनदेखा करते हुए 45 किलोमीटर लंबा जाम लगने दिया गया है। आज की यह नौबत सबसे पहले तो यह सुझाती है कि तीर्थयात्रा के इस रास्ते पर दाखिले को पूरी तरह रोक दिया जाए, और जब तक पहाड़ पर चढ़ी हुई गाडिय़ां लौटकर न आ जाएं, जब तक आवाजाही की सौ फीसदी सुरक्षित योजना न बना ली जाए, तब तक सब कुछ रोक दिया जाए, सिर्फ लोगों को दर्शन के बाद, या कि जैसा हजारों लोग कर रहे हैं, दर्शन के बिना भी वापिस आने दिया जाए। ऐसे दर्शन भी भला किस काम के जिनमें बदइंतजामी के चलते सडक़ों पर लोग मर जाएं, और 24-24 घंटे गाडिय़ां हिल न सकें, लोगों को खाना-पानी न मिल सके। आज 21वीं सदी में कम्प्यूटर, आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस, उपग्रह से बने नक्शे और पिछले बरसों के आंकड़े लेकर बैठे अफसर अगर ऐसी स्थिति का अंदाज नहीं लगा सके, और उन्होंने यह भयानक बड़ा खतरा खड़ा कर दिया, तो यह नौबत टलते ही कुछ बड़े अफसरों को हटाना भी चाहिए। 

भारत के सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट सरकारों के नियमित कामकाज में दखल देने से बचते हैं। लेकिन यह नौबत तो दसियों हजार जिंदगियों पर एक खतरे की तरह है, और किसी अदालत को खुद होकर नाजुक पहाड़ पर गाडिय़ों के ऐसे जनसैलाब को रोकना चाहिए, जिसमें किसी हादसे या मुसीबत की नौबत आने पर फौज भी कुछ नहीं कर सकेगी। धर्म ही नहीं, किसी भी तरह के आयोजन में ऐसी खतरनाक गिनती वाली भीड़ सरकारी जुर्म से कम नहीं है। आज धरती पर जगह-जगह मौसम की बुरी मार और बहुत अधिक बुरी होती जा रही है, और वह बार-बार पड़ रही है। नवंबर तक चलने वाली इस चारधाम यात्रा में अगर ऐसी भीड़ पर कोई बादल फटा, 11 बरस पहले जैसी कोई बाढ़ आई, तो क्या होगा? उसके लिए कुदरत, ईश्वर, सरकार, या श्रद्धालुओं को जिम्मेदार ठहराया जाएगा? कोई राज्य अपने किसी इलाके में एक वक्त में कितनी गाडिय़ों को इजाजत दे, यह तो बड़ी आसानी से काबू करने लायक बात है। प्रदेश में आने वाली सडक़ें किसी गांव के मेले की तरह चारों तरफ से खुली तो नहीं रहती हैं कि आज उत्तराखंड का प्रशासन कह रहा है कि लोग इतनी बड़ी संख्या में आ गए। अभी गनीमत यही माननी चाहिए कि इनमें से किसी गाड़ी में आग नहीं लगी, कोई भगदड़ नहीं हुई, लोगों में झगड़ा नहीं हुआ, और अब तक सब कुछ चैन से चल रहा है। लेकिन यह सरकारी इंतजाम की वजह से चल रहा है कहना गलत होगा, यह सरकारी बदइंतजामी के बावजूद अनायास ठीक चल रहा है, यह कहना बेहतर होगा। 

उत्तराखंड के पहाड़ों को लेकर बार-बार यह बात होती है कि यहां न तो पनबिजलीघर बनाना सही है, न किसी तरह के बांध बनाना, और न ही सुरंगें, पुल, और इतनी सडक़ें बनाना ठीक है। विशेषज्ञ और जानकार लगातार आगाह करते हैं कि पहाड़ इतने ढांचे, और इतने पर्यटकों का बोझ ढोने लायक नहीं हैं। लेकिन इंसान हैं कि इन पहाड़ों में चारों तरफ से छेद किए जा रहे हैं, सुरंगें बना रहे हैं, फौलादी ढांचों के बोझ से पहाड़ों की कमर तोड़ रहे हैं, और मलबे की गाद से नदियों को पाट रहे हैं जिनसे उनमें बाढ़ आ रही है। पहाड़ी राज्य अपनी सैलानी-अर्थव्यवस्था की जरूरत को गिनाते हुए पहाड़ों का किसी मैदानी इलाकों की तरह दोहन करने में लगे हुए हैं। यह सिलसिला लंबे समय तक नहीं चलेगा। कुदरत की मार दुनिया में जगह-जगह ऐसी जगहों पर हो रही है जिन्हें बड़ा महफूज माना जाता था। और यह केदारनाथ तो अभी-अभी लाशों के ढेर का गवाह बना हुआ है। हमारा ख्याल है कि चाहे यह राज्य सरकार के स्तर के फैसले हों, जिनमें केन्द्र की भी कोई मामूली इजाजतें लगती हों, लोगों को सुप्रीम कोर्ट जाना चाहिए ताकि उत्तराखंड जैसे राज्य के लिए गैरकारोबारी विशेषज्ञों की एक कमेटी बनवाई जा सके जो कि पहाड़ की सीमाओं को तय कर सके कि वहां कितने और लोग झेले जा सकते हैं। इसके बिना किसी वक्त और बड़ा हादसा होगा, पिछली बार तो 6 हजार लोग मारे गए थे, आज की तरह अगर वहां पर 25-50 हजार लोगों की मौजूदगी में कोई हादसा होगा तो उसकी जिम्मेदारी राज्य और केन्द्र सरकार पर होगी, और शायद सुप्रीम कोर्ट पर भी। 

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