विचार / लेख
डॉ. आर.के. पालीवाल
निश्चित अवधि, जो हमारे संविधान में पांच साल निर्धारित की गई है, के बाद नियमित चुनाव लोकतंत्र का सबसे महत्त्वपूर्ण तत्व है।1975 में लगभग दो साल के आपातकाल को अपवाद स्वरूप छोडक़र आज़ादी के बाद 1951 के पहले लोकसभा चुनाव से लेकर हाल में संपन्न हुए 2024 के लोकसभा चुनाव तक हमारे यहां लोकसभा और विधानसभा चुनाव अमूमन सही समय पर होते रहे हैं, यह संतोष की बात है क्योंकि हमारे दो सबसे महत्वपूर्ण पड़ोसी पाकिस्तान और चीन में यह संभव नहीं हुआ है। इस लिहाज से लोकतंत्र के मामले में भारत को एशिया का लाइट हाउस कहा जा सकता है। हालांकि हमारे लोकतंत्र में पिछले पचहत्तर साल में काफी सुधारों के बावजूद बहुत सी विकृतियां भी विकसित हुई हैं जो चिंता का विषय हैं जिससे इतने साल बाद भी हमारा लोकतंत्र आधा अधूरा सा लगता है।
साढ़े सात दशक लंबी यात्रा के बाद भी हम यह नहीं कह सकते कि लोकसभा और विधानसभा चुनावों में हम अपना ऐसा प्रतिनिधि व्यक्ति विधायक और सांसद के रूप में चुन सकते हैं जिसकी सोच और कार्यशैली आम आदमी की तरह हमारे जैसी हो। जो कानून का पालन करता हो और कानून के उल्लंघन से हिचकता हो। जिसकी आर्थिक स्थिति आम आदमी जैसी हो। जब से केंद्रीय चुनाव आयोग ने चुनावों में उम्मीदवारों को अपनी आय और संपत्ति एवम् आपराधिक मामलों की जानकारी सार्वजनिक करने के लिए बाध्य किया है तब से यह जानकारी आम हो गई है कि अधिकांश प्रत्याशी करोड़पति हैं और काफी के खिलाफ कई संगीन आपराधिक मामले दर्ज हैं। अधिकांश राजनीतिक दल साफ सुथरी छवि वाले आम नागरिकों के बजाए ऐसे लोगों को अपना उम्मीदवार बनाते हैं जो अपने धन, बल, जाति एवम धर्म के चार मजबूत स्तंभों के प्रयोग से चुनाव जीतने में सक्षम है। दूसरी तरफ जनता अभी इतनी जागरूक नहीं हुई जो बड़े और प्रभावशाली राजनीतिक दलों के धनाढ्य एवम माफिया किस्म के उम्मीदवारों को दरकिनार कर साफ सुथरी छवि के निर्दलीय उम्मीदवारों को अपना प्रतिनिधी चुन सके।
चुनावों में धन का दुरुपयोग भी लगातार बढ़ रहा है। यह साम दाम दण्ड भेद से राजनीतिक दलों द्वारा उगाहे गए चंदे (इलेक्टोरल बॉन्ड सहित) और धनाढ्य एवम माफिया किस्म के उम्मीदवारों के काले धन के रूप में सामने आकर साफ सुथरी छवि वाले उम्मीदवारों के सामने अभेद्य दुर्ग की तरह आड़े आता है जिससे समाज के प्रतिष्ठित लोग चुनावी नैया में पैर रखने से ही कतराते हैं क्योंकि उन्हें वोट तो दूर प्रचार प्रसार के लिए कार्यकर्त्ता उपलब्ध नहीं होते।चुनाव संबंधी कानूनों का ढुलमुलपन और चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति से लेकर उनकी कार्यवाहियों तक का आरोपों से घिरा होना निकट भविष्य में भी लोकतंत्र को परिपक्व होने में बड़ी बाधा साबित होंगे। इसे दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि टी एन सेशन जैसे कडक़ प्रमुख चुनाव आयुक्त के बाद किसी भी सरकार ने उस तरह की छवि के अधिकारी को चुनाव आयुक्त नहीं बनाया। यहां तक कि सर्वोच्च न्यायालय के आदेश द्वारा दिए गए निर्देशों को भी दरकिनार कर वर्तमान केंद्र सरकार ने चुनाव आयुक्तों की ऐसी नियुक्ति व्यवस्था कायम रखी है जिससे सरकार अपनी पसंद के अधिकारियों को चुनाव आयुक्त नियुक्त कर सकती है। ऐसे में विपक्ष सहित प्रबुद्ध नागरिक सरकार की मंशा को दूषित ही कहेंगे।
जनता में अपने बीच से सर्वश्रेष्ठ जन प्रतिनिधि चुनने के लिए व्यापक जन जागरुकता की जरुरत है। राजनीतिक दलों से ऐसी किसी शुरुआत की अपेक्षा नहीं की जा सकती। यह काम समाजसेवी संस्थाओं को ही करना होगा। अभी तो राजनीतिक दलों का अवाम को मुफ़्त की सेवाओं और धन का लालच देकर और धर्म और जाति की भावनाएं भडक़ाकर वोट हासिल करना सत्ता प्राप्त करने का सबसे आसान रास्ता नजऱ आता है। जब तक अवाम इन भावनाओं के आवेग में बहता रहेगा स्वस्थ और आदर्श लोकतंत्र दूर की कौड़ी रहेगा।