विचार / लेख
सुदीप ठाकुर
यदि चुनाव आयोग की आधिकारिक वेबसाइट के अनुसार भाजपा अभी के रुझान 237-240 पर रुकती है, तो इसे नरेंद्र मोदी की व्यक्तिगत हार की तरह देखा जाना चाहिए। 370 पार का नारा उन्हीं का दिया हुआ था। मोदी ने चुनावों को अपने इर्द गिर्द प्रेसिडेंशियल इलेक्शन में बदल दिया था। उनका यह तिलिस्म टूट गया है।
सरकार चाहे एनडीए की बन भी जाए, इसके बावजूद देश के मतदाताओं ने दिखाया है कि वह बहुसंख्यकवाद के बजाए बहुलतावाद पर यकीन करते हैं। इस चुनाव में संविधान पर हमले की बात भी विपक्ष ने उठाई थी, जिसे मोदी और भाजपा नकारते रहे, लेकिन नतीजे दिखा रहे हैं कि संविधान के मुद्दे ने भी नतीजे को प्रभावित किया है। सबसे अधिक सीटों वाले उत्तर प्रदेश से भाजपा को कापी उम्मीदें थीं, लेकिन नतीजे दिखा रहे हैं कि वहां राम मंदिर को चुनावी मुद्दा बनाना भाजपा को महंगा पड़ा है। यूपी में परीक्षाओं ने जिस तरह युवाओं को परेशान किया है, वह नतीजे में भी दिख रहा है। महाराष्ट्र में एनसीपी और शिवसेना के विभाजन की वास्तुकार भाजपा ही थी. जिसका उसे कोई लाभ होता नहीं दिखा। एकनाथ शिंदे और अब अजीत पवार की राह मुश्किल हो सकती है। बंगाल के नतीजे भाजपा के रणनीतिकारों के लिए चौंकाने वाले हो सकते हैं, लेकिन ये बताते हैं कि वहां सीएए भी अंदर ही अंदर मुद्दा था, जिसने बहुत से लोगों के मन में भय पैदा किया है। इसे भी बहुसंख्यकवाद का जवाब कहा जा सकता है। इन चुनावों के अंतिम नतीजे आना बाकी है। लेकिन अब तक के रुझान ने दिखा दिया है कि भारतीय लोकतंत्र और उसके मतदाता अपना रास्ता और विकल्प तलाश लेते हैं। विकास की काफी बातें हुई और इन नतीजों को कई लोग उसकी राह में बाधा की तरह देख सकते हैं, मगर लोकतंत्र की राह में ऐसे ‘डिसरप्शन’ जरूरी हैं!