संपादकीय
छत्तीसगढ़ के बलौदाबाजार में कल अभूतपूर्व तनाव हुआ। इस राज्य में ही नहीं, देश में भी शायद ही कहीं ऐसा होता होगा कि जिला प्रशासन की सत्ता के प्रतीक, कलेक्टर और एसपी के दफ्तर जला दिए जाएं। अपने धर्मस्थल में हुई तोडफ़ोड़ को लेकर सतनामी समाज तीन हफ्ते से आंदोलन कर रहा था। पुलिस ने कुछ शराबियों को पकडक़र जेल भेजा भी था जो कि पुलिस के मुताबिक इस वारदात के जिम्मेदार थे। लेकिन सतनामी समाज का कहना था कि पुलिस असली गुनहगारों को बचा रही है, और इसी बात को लेकर लगातार आंदोलन चल रहा था जो कि उग्र या हिंसक नहीं था। कल इसी बात पर प्रशासन की अनुमति से एक सभा हो रही थी, और वहां से लोग उत्तेजना में कलेक्ट्रेट पहुंचे, करीब सौ गाडिय़ां जला दीं, और कुछ दफ्तरों को आग लगा दी। तनाव इतना अधिक था कि पुलिस किसी काम की नहीं रह गई, और सब कुछ बेकाबू रहा। अब घटना हो जाने के बाद न्यायिक जांच की घोषणा हो रही है, राज्य शासन बड़े अफसरों को जवाब-तलब कर रहा है, और छत्तीसगढ़ का इतिहास एक बहुत ही खराब हिंसा का नुकसान झेल चुका है। आगजनी और तोडफ़ोड़ के वीडियो देखकर यह समझ नहीं पड़ता है कि ये छत्तीसगढ़ के हैं। अब चारों तरफ से यह कहा जा रहा है कि यह शासन-प्रशासन के खुफिया तंत्र की नाकामयाबी से हुआ है जिसे हजारों की इस भीड़ के उत्तेजित, उग्र, और बेकाबू होने का अंदाज नहीं था, और न ही आसपास के इलाकों से पहुंचने वाले लोगों की उसे खबर थी। ऐसी भयानक नौबत किसी जिला मुख्यालय में किसी धार्मिक संप्रदाय के तनाव में खड़ी हो जाए, यह राज्य की शांति-व्यवस्था का बड़ा नुकसान हुआ है।
इस घटना से कुछ सवाल खड़े होते हैं। भारत में सडक़ किनारे, और खुली सार्वजनिक जगहों पर इतने तरह के धर्मस्थान हैं कि उनकी किसी तरह से चौकसी और हिफाजत मुमकिन नहीं है। हम इस घटना में नुकसान पहुंचाए गए जैतखंभ की बात नहीं कर रहे हैं, इस व्यापक मुद्दे पर लिख रहे हैं कि धर्मस्थानों को लेकर, उनकी और उनसे जुड़े हुए लोगों की आस्था की हिफाजत के लिए क्या किया जाना चाहिए? समाज में जब लोग एक-दूसरे धर्म का अपमान करने के लिए कई किस्म की साजिशें करते हैं, तब पुलिस कितनी हिफाजत कर सकती है? देश में जगह-जगह ऐसी घटनाएं सामने आई हैं कि किसी एक धर्म से जुड़े हुए आक्रामक संगठन के लोगों ने इलाके के पुलिस अफसर को हटाने के लिए वहां पर साम्प्रदायिक दंगा करवाने की नीयत से न सिर्फ गाय काटकर फेंक दीं, बल्कि उनमें किसी मुस्लिम को फंसा भी दिया। ऐसी एक बड़ी घटना का भांडाफोड़ उत्तरप्रदेश में सीएम योगी आदित्यनाथ की पुलिस ने किया है, और उससे कम से कम यह उम्मीद तो की नहीं जाती कि उसने हिन्दुओं को फंसाने के लिए ऐसा किया होगा।
बहुत से मामलों में धर्मस्थलों पर नुकसान पहुंचाने वाले लोग इलाके के मामूली शराबी भी निकले हैं जिन्होंने नशे में तोडफ़ोड़ कर दी थी। अब उन्होंने ने तो नशे में यह कर दिया, लेकिन इसकी तोहमत लोगों ने अपनी-अपनी बदनीयत के हिसाब से किसी दूसरे धर्म के लोगों पर लगाकर साम्प्रदायिक तनाव फैलाने की कोशिश की। अब अगर देश में तनाव और शरारत की नीयत से लोग किसी धर्मस्थल को नुकसान पहुंचाकर उसकी तोहमत दूसरे धर्म के लोगों पर लगाने की साजिश करने लगेंगे, तो पूरे हिन्दुस्तान को एक साथ सुलगाया-जलाया जा सकता है। धार्मिक भीड़ पर किसी तरह का कोई तर्क काम नहीं करता। अब बलौदाबाजार के इस मामले को ही लें तो पुलिस ने कुछ लोगों को गिरफ्तार किया है जिन्होंने जैतखंभ को नुकसान पहुंचाया है। लेकिन समाज के लोगों को ये लोग असली गुनहगार नहीं लग रहे हैं, और पुलिस से ‘असली’ गुनहगारों को पकडऩे की मांग करते हुए कल की यह असाधारण हिंसा हुई है। सतनामी समाज के हजारों लोगों की भीड़ एक मैदान में इकट्ठा हुई थी, और वहां से पुलिस के बहुत रोकने के बाद भी हजारों लोग कलेक्ट्रेट और एसपी ऑफिस तक गए, पुलिस के बैरियर तोड़ते हुए हजारों लोगों के वीडियो आए हैं, और फिर इस भीड़ ने गाडिय़ों में आग लगाना शुरू किया, और आग इमारतों तक फैल गई। इतनी बड़ी हिंसा करने वाली भीड़ में शायद कोई लीडरशिप नहीं रह गई थी। ऐसा मामला जो कि तीन हफ्ते से सुलग रहा था, उसे निपटाने में समाज के नेताओं के अलावा स्थानीय विधायक, या मंत्री, और जिले के बड़े अफसरों की कोशिश भी होनी थी, लेकिन इस मामले में सबकी नाकामयाबी दिख रही है। किसी धर्म या संप्रदाय की भीड़ जब किसी धार्मिक मुद्दे को लेकर जिद पर आमादा रहती है, तो उसकी आक्रामकता के सामने सरकार की ताकत फीकी पडऩे लगती है। यह तो गनीमत है कि कल के पथराव, आगजनी, और हिंसक प्रदर्शन में कोई जिंदगी नहीं गई। लेकिन एक बात बिल्कुल साफ है कि यह स्थानीय और प्रदेश स्तर के खुफिया तंत्र की एक नाकामयाबी दिखती है जिसने अनुसूचित जाति के एक धर्मस्थल से जुड़े हुए इस विवाद को सुलझाने को महत्व नहीं दिया, और इस विस्फोटक नौबत का अंदाज नहीं लगाया। पुलिस की जितनी तैयारी वीडियो में दिख रही है, वह बिल्कुल ही नाकाफी थी, और शासन-प्रशासन की अदूरदर्शिता की एक बड़ी मिसाल है।
लोगों को याद होगा कि कुछ महीने पहले जब बस्तर के नारायणपुर जिले में ईसाई बनने वाले आदिवासियों के मुद्दे को लेकर एक बड़ी भीड़ ने कलेक्ट्रेट पर ही हमला किया था, तो उस वक्त आदिवासियों के पथराव में जो एसपी, सदानंद जख्मी हुए थे, वही आज बलौदाबाजार के एसपी भी हैं। हम इन दो अलग-अलग घटनाओं के पीछे किसी एक तरह की लापरवाही नहीं देख रहे हैं, बल्कि यह बात भी देख रहे हैं कि भीड़ के हिंसक हो जाने के बाद भी पुलिस ने न तो उस वक्त नारायणपुर में गोली चलाई थी, न अभी बलौदाबाजार में चलाई है। जाहिर है कि पुलिस की कड़ी कार्रवाई के बिना भीड़ की हिंसा को रोकना मुश्किल होता है, लेकिन कड़ी कार्रवाई का मतलब कई मौतें हो सकती थी, जिन्हें टाला गया है। हम आखिर में अपनी उस बुनियादी बात पर आना चाहते हैं कि अगर बेचेहरा लोगों की शरारत से अगर सार्वजनिक जगह के किसी धर्मस्थल पर नुकसान पहुंचता है, तो उसकी प्रतिक्रिया में ऐसी हिंसा पूरी तरह नाजायज है। या तो किसी धर्म और संप्रदाय के लोग सडक़ किनारे, खुली जगह पर बिना हिफाजत वाले धर्मस्थल बनाने के पहले शरारत या गंभीर सांप्रदायिकता के ऐसे खतरों को समझ लें, या फिर धर्मस्थलों की पर्याप्त सुरक्षा की व्यवस्था भक्तजन ही करें। आज देश भर में सडक़ों के किनारे पेड़ों तले अनगिनत प्रतिमाएं स्थापित हैं, मंदिर बने हुए हैं। दूसरे धर्मों के उपासना स्थल भी सार्वजनिक जगहों पर, अक्सर ही अवैध कब्जा करके बना लिए जाते हैं, और उन जगहों पर तनाव का खतरा बना ही रहता है। दुनिया की कोई भी सरकार ऐसे धर्मस्थल की हिफाजत नहीं कर सकती, और समाज को ही अपनी आस्था की चौकीदारी करनी होगी। जिन लोगों ने अभी खुली हिंसा की है, उन्होंने एक बहुत खराब मिसाल भी पेश की है। सुबूतों के आधार पर हिंसक दंगाईयों पर कार्रवाई करनी चाहिए, वरना देश-प्रदेश की हर भीड़ हिंसा को अपना हक मान लेगी। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)