संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : जितनी नफरती फिल्में रोकी जाएंगी, उनसे दुगुनी बनेंगी..
14-Jun-2024 3:55 PM
‘छत्तीसगढ़’ का  संपादकीय : जितनी नफरती फिल्में रोकी जाएंगी, उनसे दुगुनी बनेंगी..

सुप्रीम कोर्ट ने एक विवादास्पद फिल्म, हमारे बारह, पर तब तक के लिए रोक लगा दी है जब तक बाम्बे हाईकोर्ट इस फिल्म के खिलाफ वहां चल रही एक याचिका का निपटारा न कर ले। यह फिल्म आज 14 जून को रिलीज होने वाली थी, और इसके खिलाफ हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचे हुए मुस्लिम याचिकाकर्ताओं ने यह कहा है कि इससे इस्लामिक आस्था, और भारत में विवाहित मुस्लिम महिलाओं के प्रति अपमानजनक टिप्पणियां की गई हैं। सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस विक्रमनाथ, और जस्टिस संदीप मेहता की अवकाश-पीठ ने हाईकोर्ट के एक आदेश को चुनौती देने वाली याचिका पर यह फैसला दिया है जिसमें हाईकोर्ट ने फिल्म की रिलीज को इजाजत दे दी थी। सुप्रीम कोर्ट जजों का कहना है कि उन्होंने इस फिल्म का टीजर (ट्रेलर) देखा, और पाया कि इसमें सभी आपत्तिजनक सामग्री है। जजों ने कहा कि वे फिल्म सेंसर बोर्ड को इसके लिए कोई कमेटी बनाने का निर्देश नहीं दे सकते क्योंकि सेंसर बोर्ड तो खुद ही इस मामले में एक पक्ष है। 

हम इस फिल्म को देखे बिना, और इसकी खूबियों या खामियों पर कोई टिप्पणी किए बिना इस नए सिलसिले के बारे में कहना चाहते हैं कि किस तरह पिछले कुछ बरसों में लगातार देश के इतिहास के कुछ उन पहलुओं पर केन्द्रित फिल्में और टीवी सीरियल लगातार बन रहे हैं, जिनसे किसी एक धर्म के लोगों को नीचा दिखाया जा सकता हो। चूंकि आम जनता इतिहास को न बारीकी से पढ़ती है, न सतही तौर पर पढ़ती है, इसलिए अपने आपको पढ़ा-लिखा मानने वाले लोग भी आजादी के बाद के हिन्दुस्तान के इतिहास पर बनी हुई दर्जन-दो दर्जन फिल्मों को खरा इतिहास मान लेते हैं, और सिनेमाघर से या घर के सोफे पर से एक बड़ा कड़ा पूर्वाग्रह लेकर उठते हैं। कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक, और गांधी से लेकर गोडसे तक, इतिहास के अनगिनत पन्नों पर लगातार ऐसी फिल्में बन रही हैं जिन्हें देश का एक तबका इतिहास की हकीकत या हकीकत का इतिहास करार देने पर आमादा रहता है। इनका इस्तेमाल आमतौर पर चुनावों के साथ-साथ किया जाता है ताकि देश में धर्म और जाति के नाम पर जो चुनावी एजेंडा खड़ा किया जा रहा है, उसमें ऐसी फिल्मों से साज-सज्जा हो सके। 

वैसे तो इस बात में कोई दिक्कत नहीं होना चाहिए क्योंकि पूरी दुनिया में जहां कहीं भी एक विकसित और परिपक्व लोकतंत्र रहता है वह ऐतिहासिक या धार्मिक तथ्यों के साथ भी एक कलात्मक खिलवाड़ का लचीलापन देता है। तमाम विकसित देशों में समय-समय पर इतिहास या वर्तमान की हकीकत पर आधारित काल्पनिक और कलात्मक रचनात्मकता को लेकर विवाद खड़े होते रहते हैं, फिल्मों को लेकर भी, किताबों, और तस्वीरों को लेकर भी, और कार्टून को लेकर भी। अभी ताजा इतिहास ही बताता है कि किस तरह कुछ कार्टून को लेकर इस्लामी आतंकी संगठनों ने योरप के देशों में बड़े हमले किए, और बड़ी संख्या में लोगों को मार डाला। विख्यात लेखक सलमान रुश्दी पर हुए जानलेवा हमले का मामला तो अभी पिछले ही बरस का है जब मंच पर उन पर हमला हुआ, मुश्किल से जान बची, और एक आंख चली गई। इन सब चीजों के बावजूद विकसित लोकतंत्र ऐसी कलात्मक अभिव्यक्ति पर कोई रोक नहीं लगाते, और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का पूरा हक देते हैं, पूरी हिफाजत देते हैं, और धमकियों से निपटते हैं। लेकिन अमरीका और योरप के देशों में अभिव्यक्ति की ऐसी स्वतंत्रता तमाम पहलुओं को हासिल रहती है, और फिर यह नहीं होता कि एक धर्म के लोग तो दूसरे धर्म की किस्सा-कहानियां गढ़ते हुए उनका मखौल उड़ाते रहें, और अपने धर्म के चरित्रों पर बनी पेंटिंग्स को लेकर किसी कलाकार को देश के बाहर मरने पर मजबूर करें। हिन्दुस्तान के साथ दिक्कत यह है कि अल्पसंख्यक तबके की भावनाओं को कुचलने लायक मान लिया गया है, और बहुसंख्यक तबका अपनी भावनाओं के आहत होने की शिकायत करने को स्थायी रूप से तैयार खड़ा रहता है। अगर अभिव्यक्ति की आजादी स्थापित करनी है, तो फिर इतिहास तो हर किस्म की कहानी मुहैया कराने के लिए तैयार खड़ा है। 

आज हिन्दुस्तान का धार्मिक ध्रुवीकरण इस कगार पर पहुंच गया है कि बहुसंख्यक तबके में एक आक्रामक पूर्वाग्रह पैदा करने और मजबूत करने के लिए बहुत कुछ किया जा रहा है। फिल्म निर्माता कंपनियों से लेकर टीवी सीरियल बनाने वाली कंपनियों तक का समर्पण देखने लायक है, और जनता के बीच जागरूकता का स्तर बड़ा कम होने, और पूर्वाग्रह की बाढ़ का स्तर खतरे के निशान के ऊपर तक रहने की वजह से एक राजनीतिक एजेंडा को इतिहास, संस्कृति, कुछ भी बताकर पेश किया जा सकता है, और जब जनता का इतिहास का ज्ञान वॉट्सऐप पर तैरती दुर्भावना से मिलता है, तो फिर ऐसी फिल्में और ऐसे सीरियल उस जनता को पूर्वाग्रह और नफरत के, एक झूठे आत्मगौरव के और ऊंचे दर्जे का शिकार बना देते हैं। 

लोकतंत्र के साथ दिक्कत यह है कि यह एक ऐसी लचीली व्यवस्था है कि यह जुर्म साबित होने के पहले तक लोगों को मनमाना कहने, और मनमाना करने की छूट देता है। इसका फायदा उठाते हुए हिन्दुस्तान में नफरत और पूर्वाग्रह दोनों की फसल इतनी बोई जा रही है कि वह ज्ञान और समझ से मूढ़ तबके के बंजर दिमाग में भी लहलहा रही है। इसका कोई आसान इलाज हमें लोकतांत्रिक व्यवस्था में दिखता नहीं है। देखें यह सिलसिला कहां तक पहुंचता है।   (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)   

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