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‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : भारतीय लोकतंत्र में दूसरों के गलत कामों से सीखने की अपार संभावनाएं हैं
15-Jun-2024 3:27 PM
‘छत्तीसगढ़’ का  संपादकीय :  भारतीय लोकतंत्र में दूसरों के गलत कामों से सीखने की अपार संभावनाएं हैं

photo : twitter

भारतीय लोकतंत्र में निर्वाचित नेताओं से बनी सरकार, और पूरी कामकाजी जिंदगी के लिए नौकरी पाने वाले बड़े अफसरों के बीच जिम्मेदार और अधिकारों का एक संतुलन रखा गया है। अफसर 25-30 बरस काम करते हैं, और नेता तो हर पांच बरस में आ-जा सकते हैं। जो लोग सरकार के बाहर हैं, और सरकारी कामकाज की बारीकियों को नहीं जानते हैं, उनके लिए यह बता देना ठीक होगा कि सत्तारूढ़ नेताओं से यह उम्मीद की जाती है कि वे नीतियां बनाएंगे, और फिर उन नीतियों को सरकारी नियम-कायदों के मुताबिक, बजट के भीतर, कार्यक्रमों में ढालने और अमल करने का काम अफसर करते हैं। सरकार की अधिकतर अधिक महत्व की जरूरी फाइलों पर इन दोनों के दस्तखत भी होते हैं, और एक किस्म से इनकी सामूहिक जवाबदेही तय होती है। यही वजह है कि छत्तीसगढ़ सहित देश के बहुत से प्रदेशों में जब केन्द्रीय या राज्य जांच एजेंसियां भ्रष्टाचार के मामलों के सुबूत जुटाती हैं, तो मंत्री और अफसर दोनों ही गिरफ्तार होते हैं। ऐसे में कुछ मामले इन दोनों के बीच की सीमा रेखा को तोडऩे वाले भी रहते हैं, और नौकरशाह कहे जाने वाले बड़े अफसरों में से कुछ नौकरी छोडक़र राजनीति में भी आते हैं, और प्रशासनिक अधिकारियों से परे विदेश सेवा के, या आईपीएस, आईएफएस अफसर भी राजनीति में हाथ आजमाते दिखते हैं। इनमें से कई भूतपूर्व अफसर राष्ट्रपति, मुख्यमंत्री, केन्द्रीय मंत्री जैसे ओहदों पर पहुंचे हुए हैं, और वे इन दोनों ही किरदारों में कामयाब हुए हैं। 

आज इस बारे में चर्चा का एक खास मकसद है। ओडिशा में मुख्यमंत्री नवीन पटनायक की पार्टी बीजेडी ने तकरीबन चौथाई सदी तक सत्ता पर काबिज रहने के बाद अब जनता के हाथों बिदाई हासिल की है। और लोकसभा चुनाव में इस सत्तारूढ़ पार्टी को 21 में से एक भी सीट नहीं मिली, जबकि उसने पिछले लोकसभा चुनाव में 12 सीटें जीती थीं। और राज्य विधानसभा के साथ-साथ हुए चुनावों में भी सत्तारूढ़ पार्टी बुरी तरह से निपट गई, और उसकी सीटें 117 से घटकर 51 रह गईं, और 78 सीटों के साथ भाजपा ने वहां सरकार बना ली। इस पूरे पतन की सबसे बड़ी तोहमत मुख्यमंत्री के पसंदीदा रहे आईएएस अफसर वी.के.पांडियन पर लग रही है जो दस बरस से मुख्यमंत्री के करीब तैनात थे, और चर्चा यह है कि वे ही सारा शासन चलाते थे। अब पिछले ही बरस उन्होंने नौकरी छोड़ी थी, और औपचारिक रूप से वे बीजू जनता दल में शामिल हो गए थे। वे तमिलनाडु के हैं, और आईएएस के रास्ते उन्हें ओडिशा काडर मिला था। यहां लगातार सत्ता को हांकते हुए वे इतने ताकतवर थे, कि उन्होंने सरकार में रहते हुए भी सत्तारूढ़ पार्टी की राजनीति को अपने इर्द-गिर्द रखा, और पिछली नवंबर में आईएएस छोडक़र बीजू जनता दल में आने के बाद कहा जा रहा है कि वे अकेले ही पूरी पार्टी भी चला रहे थे। मुख्यमंत्री नवीन पटनायक एक किस्म से रिटायर हो चुके थे, बस ओहदे पर बैठे थे, और वी.के.पांडियन ही शासन और सत्तारूढ़ पार्टी दोनों चला रहे थे, और अब चर्चा यह हो गई थी कि काफी बुजुर्ग हो चुके नवीन पटनायक इस बार चुनाव जीतने के बाद पांडियन को ही मुख्यमंत्री बना देंगे। नतीजा यह हुआ था कि भाजपा ने ओडिशा में लोकसभा-विधानसभा के एक साथ हो रहे चुनावों में राज्य की अस्मिता का सवाल उठाया था कि ओडिय़ा जुबान न बोलने वाले नवीन पटनायक के बाद अब परदेसिया पांडियन मुख्यमंत्री होंगे, तो क्या इस राज्य में कोई ओडिय़ाभाषी और स्थानीय काबिल माटी संतान है ही नहीं? यह बात जोर पकड़ती चली गई, और सरकार के खिलाफ कोई नाराजगी न रहने पर भी लोगों ने राज्य और केन्द्र दोनों के चुनावों में बीजू जनता दल को निपटा दिया। 

ऐसा कुछ और जगहों पर भी हुआ है जहां पर बड़े अफसरों में राजनीतिक महत्वाकांक्षा जागी, और उन्होंने नौकरी छोडक़र चुनाव लडऩा, या अजीत जोगी की तरह राज्यसभा के रास्ते राजनीति में आना तय किया। बड़ी नौकरियों से राजनीति में आने वाले बहुत कम भी नहीं हैं, और तकरीबन हर प्रदेश में ऐसी कुछ मिसालें मिल जाएंगी। ऐसे में एक सवाल उठ खड़ा होता है कि क्या किसी मुख्यमंत्री-प्रधानमंत्री को राजनीतिक फैसलों के लिए अफसरों का इस हद तक मोहताज होना चाहिए, या अफसरों को इस हद तक सिर पर चढ़ाना चाहिए? सरकार के आम सरकारी कामकाज में तो अफसरों की जगह और उनकी अहमियत हमेशा ही रहती है, और सत्ता के शिखर के बिल्कुल इर्द-गिर्द लगातार काम करते हुए कई अफसर सरकारी और राजनीतिक दायरों के बीच की सीमा रेखा को भूल जाते हैं। अपने राजनीतिक मुखिया के प्रति वफादारी से काम करते हुए वे पहले तो पर्दे के पीछे से, और फिर धीरे-धीरे पर्दे के सामने भी सरकारी नौकरी की सीमाओं को लांघने लगते हैं। ऐसा होने पर सत्तारूढ़ पार्टी का बड़ा नुकसान होता है, और उसमें नौकरशाहों से घिरे हुए राजनेता जमीनी हकीकत देख नहीं पाते, और चुनाव में निपट जाते हैं। ऐसे नेताओं को अपने बेहतर दिनों में यह लगने लगता है कि उनके भरोसेमंद और सबसे करीबी अफसर पार्टी के नेताओं के मुकाबले उनके प्रति अधिक वफादार हैं, और अधिक काबिल भी हैं, और इसलिए वे अपने नेताओं के मुकाबले अपने अफसरों को अधिक अहमियत देने लगते हैं। यहीं से राज्य की लीडरशिप का अपनी जड़ों से कटना शुरू हो जाता है, क्योंकि अफसर चाहे कितने ही काबिल क्यों न हों, वे लोकतांत्रिक राजनीति की जड़ नहीं हो सकते, उसकी डाल हो सकते हैं, पत्ते और फूल हो सकते हैं, और अधिक ताकतवर हो जाने पर वे कांटे भी बन सकते हैं, जैसा कि ओडिशा में पांडियन के साथ हुआ। 

भारत विविधताओं से भरा हुआ ऐसा गजब का देश है जहां अगर कोई नेता या अफसर दूसरों की गलतियों से कुछ सीखना चाहे, तो उसके सामने खूब सारी मिसालें रहती हैं। जेलों में बंद अफसर और नेता रहते हैं, बहुत काबिल और कामयाब, या पूरी तरह से डूब चुके नेता रहते हैं, और हर पांच बरस के चुनाव में सत्ता को अपने चहेते लोगों की वजह से मिलती जीत-हार से भी अंदाज लगते चलता है। हमारा मानना है कि केन्द्र और राज्यों में, या स्थानीय निकायों में भी नेता और अफसर एक-दूसरे को लगातार परख सकते हैं, अच्छा और बुरा तौल सकते हैं, और अपना भविष्य तय कर सकते हैं। दिक्कत वहां हो रही है जहां पर अफसर और नेता मिलकर एक संगठित अपराधी गिरोह की तरह भ्रष्टाचार में जुट जाते हैं, और जुर्म की भागीदारी फर्म चलाने लगते हैं। देश के बहुत से प्रदेशों में नेता और अफसर कहीं अकेले तो कहीं एक साथ जेलों में बंद हैं। 

इससे परे भी इस मुद्दे पर हमारी यह सोच साफ है कि आमतौर पर अफसर नेताओं के मुकाबले तेज रहते हैं। उन्हें अंदाज रहता है कि नेता की उंगलियां जनता की नब्ज पर हो सकती हैं, लेकिन सरकार चलाने के मामले में नेता को अफसर पर निर्भर करना पड़ता है। इसलिए जब सत्तारूढ़ नेता को टेंडर-ठेका, और ट्रांसफर-पोस्टिंग का लहू मुंह लग जाता है, तो वे नीतियां और कार्यक्रम बनाने का काम भी अफसरों पर छोड़ देते हैं। दूसरी तरफ अफसरों को यह पता होता है कि नेता किन-किन कामों में कमाई कर रहे हैं, और उनमें अफसरों की भागीदारी हो ही जाती है। इसका एक ही इलाज हमको दिखता है कि राजनीतिक दल अगर अपने नेताओं को कार्यकर्ता के स्तर से ही लोकतंत्र, संविधान, और सरकारी कामकाज का शिक्षण-प्रशिक्षण देते चलेंगे, तो अफसर सत्तारूढ़ निर्वाचित नेताओं को बरगला नहीं सकेंगे। आज अधिकतर नेता शासकीय कामकाज की सीमाओं और संभावनाओं से अनजान हाल में ही सत्ता पर पहुंचते हैं, और कमाई की अपनी हड़बड़-हसरत के चलते वे तुरंत ही अफसरों के साथ भागीदारी कायम कर लेते हैं। 

ओडिशा का मामला इससे थोड़ा सा अलग था, लेकिन यह बात समझने की जरूरत है कि कोई अफसर काबिल कितना भी हो, उसे अगर नेता अपनी पार्टी के दूसरे नेताओं का बेहतर विकल्प मानने लगे, तो उससे तबाही तय रहती है, फिर चाहे वह कुछ धीमी रफ्तार से आए।  (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)   

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