संपादकीय
हिन्दुस्तान में पारिवारिक हिंसा जिस बड़े पैमाने पर, और जितने खूंखार तरीके से सामने आ रही है, उसे लेकर एक बड़े सामाजिक अध्ययन की जरूरत है। इसमें समाजशास्त्र से लेकर मनोविज्ञान और कानून तक के जानकार शामिल किए जाने चाहिए क्योंकि ये बड़ी तेजी से बहुत गंभीर होते चल रहे हैं। जिस तरह जलवायु परिवर्तन से मौसम की मार अधिक गंभीर होती चल रही है, और अधिक जल्दी-जल्दी भी हो रही है, उसी तरह पारिवारिक हिंसा अब सीधे मरने-मारने तक पहुंच रही है, और उसे सिर्फ पुलिस, अदालत, और जेल का मामला मानकर चलना समाज की बहुत नाजुक हो चुके हालात की गंभीरता को अनदेखा करना होगा।
छत्तीसगढ़ के सरगुजा की एक खबर है कि एक बेटे ने अपने शराबी बाप की मारपीट का विरोध किया, और पिता को मार डाला, इसके बाद इस कत्ल का इल्जाम अपनी मां पर थोप दिया। बाद में पुलिस पूछताछ में लडक़े का कुकर्म साबित हुआ। दूसरी तरफ आज ही छत्तीसगढ़ के कोरबा में एक नौजवान से बेटे से पानी मांगा, और विवाद इतना बढ़ गया कि बेटे ने बाप का गला घोंटकर उसे मार डाला। हम हर दिन पारिवारिक हिंसा की बहुत सारी खबरें देखते हैं, लेकिन आज दो अलग-अलग जगहों पर एक ही किस्म के रिश्तों के बीच जिस तरह दो अलग-अलग घटनाएं हुई हैं, वे भयानक नौबत का एक संकेत है। पिछले कुछ महीनों में लगातार हमें अपने आसपास हर कुछ दिनों में परिवार के भीतर कत्ल देखने मिला है। कहीं-कहीं पर तो पत्नी ने प्रेमी के साथ मिलकर पति को निपटा दिया, या पति के साथ मिलकर प्रेमी को निपटा दिया। परिवार के भीतर बलात्कार के बहुत से मामले आए दिन सामने आते हैं, आज ही किसी दूसरी जगह अपने तमाम बच्चों को मारकर कोई महिला मर चुकी है। परिवार के भीतर हत्या या आत्महत्या का कोई अंत ही नहीं दिख रहा है।
अब किसी जनकल्याणकारी सरकार को यह भी सोचना चाहिए कि समाज में हिंसा किस तरह कम की जाए। भारत की जिस समाज व्यवस्था पर यह समाज गर्व करते नहीं थकता, उसकी ऐसी दुर्गति क्यों हुई है? जो लोग परिवार का सम्मान करते थे, वे एकाएक मरने-मारने पर क्यों उतारू हो गए हैं? हमारा ख्याल है कि भारत के जिन विश्वविद्यालयों में समाजशास्त्र, मनोविज्ञान, और कानून की पढ़ाई होती है, वहां पर पुरानी किताबों के पीले पड़ गए पन्नों की किताबी और कागजी बातों को पढ़ाने से आगे भी बढऩा चाहिए, और आज के समाज की जो नई दिक्कतें हैं, उनकी भी पढ़ाई होनी चाहिए। यह काम बहुत आसान नहीं रहेगा, क्योंकि गिने-चुने लेखकों की घिसी-पिटी किताबों से पढ़ाने वाले उदासीन हो चुके प्राध्यापकों से कोर्स में इतने बड़े फेरबदल का स्वागत करने की उम्मीद नहीं की जा सकती, लेकिन समाज के भले के लिए यह जरूरी है कि आज की दिक्कतों का अध्ययन हो, उस पर सर्वे से लेकर शोध तक हो, समाज में तनाव के इस नए दर्जे को बेहतर तरीके से समझा जाए, और इसे पढ़ा-पढ़ाया जाए।
जुर्म तो समाज में गहरे बैठे हुए तनाव और दिक्कतों का एक लक्षण होता है जो कि सतह पर तैरता हुआ दिख जाता है। समझने की जरूरत उन वजहों को रहती है जो कि जमीन के नीचे रहते हैं, तालाब की तलहटी में रहते हैं। किसी भी जागरूक समाज और प्रदेश को अपने विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम को जीवाश्म की तरह नहीं बनने देना चाहिए, तालाब के घिरे हुए पानी की तरह सडऩे नहीं देना चाहिए, बल्कि उसे पहाड़ी नदी के पानी की तरह ताजा और गतिशील बनाना चाहिए। विकसित दुनिया के जो सबसे प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय रहते हैं, उनकी खूबी यही रहती है कि वे नौजवान और होनहार शोधकर्ताओं को नए-नए पाठ्यक्रम बनाने और पढ़ाने का मौका देते हैं। यही वजह है कि हिन्दुस्तान में इक्का-दुक्का विश्वविद्यालय ही विश्व स्तर के सौ-दो सौ विश्वविद्यालयों में जगह पाते हैं, उनके अलावा किसी और की अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कोई साख नहीं है। लगे हाथों इस सिलसिले में यह भी कहना प्रासंगिक होगा कि भारतीय प्राध्यापकों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के तहत कोई भी ऐसी बात कहना नौकरी खोने बराबर पड़ता है जो कि सत्ता को नापसंद हो, या आक्रामक बहुसंख्यक तबके के दावों से असहमत हों। ऐसी नौबत में भी जिंदगी के असल मुद्दों का अध्ययन, उस पर शोध, और उसका अध्यापन मुमकिन नहीं हो पाता। देश के सबसे चर्चित विश्वविद्यालयों के जाने-माने प्राध्यापकों को सच लिखने के एवज में नौकरी खोनी पड़ी है। इसलिए आज समाज में, परिवार में इतनी हिंसा क्यों हो रही है, उसका धर्म और जाति से कोई रिश्ता है, उसका लड़कियों और महिलाओं से भेदभाव से कोई संबंध है, उसके पीछे क्या कोई राजनीतिक वजहें हैं, ऐसे बहुत से सवाल दिक्कत खड़ी करते हैं। और हिन्दुस्तान में आज देश या प्रदेश पर सत्तारूढ़ सोच को अगर विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम नहीं सुहाते हैं, तो फिर समाज के असल मुद्दों को पढ़ाना भी मुमकिन नहीं है। आज बारहवीं के छात्र-छात्राओं को गुजरात के दंगों से लेकर बाबरी-विध्वंस तक, गांधी की हत्या तक कुछ नहीं पढ़ाया जा रहा है, और यह सफाई दी जा रही है कि नई पीढ़ी को नफरत की वजहें नहीं देना चाहिए। और यही छात्र-छात्रा एक-दो बरस के भीतर ही वोटर भी बनने जा रहे हैं। देश के बिल्कुल ताजा इतिहास को पढऩे बिना, उसे आधा-अधूरा जानकर उनसे पूरी समझदारी की उम्मीद की जा रही है।
इन दो किस्म की बातों को जोडक़र जब हम देख रहे हैं, तो लग रहा है कि भारत सामाजिक और पारिवारिक तनाव के सच को भी न तो ठीक से जानना-समझना चाहेगा, और न ही ज्ञान और समझ का कोई फायदा भारतीय पारिवारिक हिंसा को कम करने में मिलने जा रहा। शायद इतना खरा-खरा सच सुनने और सुनाने का माहौल देश में नहीं रह गया। यह एक पाखंडी सोच है जो कि सच से मुंह चुराती है, और जिस तरह डॉक्टर बीमारी का सच जानकर ही इलाज कर सकते हैं, भारत का समाज भी अपने सच को जानकर, मानकर ही अपना इलाज कर सकता है, लेकिन हमारी सोच अब इतना हौसला नहीं जुटा पा रही है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)