संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : कहीं घोर दक्षिणपंथी सत्ता, तो कहीं वामपंथी रूझान! इस बरस 64 देशों के चुनाव
06-Jul-2024 4:46 PM
‘छत्तीसगढ़’ का  संपादकीय :  कहीं घोर दक्षिणपंथी सत्ता,  तो कहीं वामपंथी रूझान!  इस बरस 64 देशों के चुनाव

दुनिया के लिए यह चुनाव का बरस है। इस बरस 64 देशों में, और यूरोपीय यूनियन के चुनाव हो रहे हैं। सबसे बड़ा चुनाव तो हिन्दुस्तान का हो चुका है जिसमें दस बरस की सत्तारूढ़ भाजपा को अपने ही रिकॉर्ड के मुकाबले कुछ शिकस्त हासिल हुई है, और उसके तमाम दावों और उम्मीदों के बावजूद भाजपा का ग्राफ गिरा है। भारत की राजनीति में भाजपा को दक्षिणपंथी पार्टी के रूप में जाना जाता है, और बाकी दुनिया के अखबारों की जुबान में इसे राष्ट्रवादी हिन्दू पार्टी कहते हैं। 2024 के चुनाव में इसका नुकसान हुआ है, और अब यह अपने अकेले के दम पर सरकार नहीं चला रही है, बल्कि अनिवार्य रूप से इसे साथीदलों की जरूरत है। इसलिए भारत के 2024 के लोकसभा चुनाव में यह बात समझ लेना ठीक होगा कि दक्षिणपंथ को वोटरों का समर्थन कुछ घटा है। यह भी समझने की जरूरत है कि हम यहां इस जुबान में बात क्यों कर रहे हैं। बाकी दुनिया में राजनीतिक दलों की विचारधारा, और उनके रूझान के लिए इसी भाषा का इस्तेमाल होता है, और इसी के तहत फ्रांस के चुनाव में घोर दक्षिणपंथी पार्टी पहले दौर के मतदान में बहुत आगे बढ़ी हैं, और यह सिलसिला फ्रांस में यूरोपीय यूनियन के चुनाव में सामने आए रूझान से ही जारी है। वहां पर राष्ट्रपति ने फ्रांस के इतिहास का सबसे बड़ा जुआ खेला था, और ईयू के चुनाव में फ्रांसीसी मतदाताओं का समर्थन दक्षिणपंथियों को मिलने के बाद उन्होंने तुरंत ही संसद भंग करके चुनाव करवाने का फैसला लिया था, जो कि उल्टा पड़ा। अब फ्रांस में पहले दौर के मतदान के बाद भी आगे यही रूझान जारी रहने का अंदाज है, योरप का यह एक सबसे ताकतवर देश दक्षिणपंथियों के हवाले हो रहा है।

अब पिछले दो दिनों में दो और चुनावी नतीजे आए हैं जिनको साथ रखकर देखने की जरूरत है। ब्रिटेन में वामपंथी रूझान वाली लेबर पार्टी को 14 बरस बाद सरकार बनाने का मौका मिल रहा है, और उसे संसद के 650 सीटों के निचले सदन में 410 सीटें मिली हैं, और मौजूदा प्रधानमंत्री ऋषि सुनक की कंजरवेटिव पार्टी को 131 सीटें। ब्रिटेन के चुनावों में दक्षिणपंथी रूझान वाली कंजरवेटिव पार्टी को ऐसी भयानक हार शायद ब्रिटिश इतिहास में दो सदी की सबसे बुरी शिकस्त है। हम अभी ब्रिटिश चुनाव की अधिक बारीकियों में नहीं जा रहे, क्योंकि एक और प्रमुख देश के चुनावी नतीजों पर साथ-साथ यहीं पर चर्चा करना है। ईरान में एक हेलीकॉप्टर हादसे में राष्ट्रपति की मौत के बाद बेवक्त हुए चुनाव में सुधारवादी नेता डॉ.मसूद पेजेक्शियान ने कट्टरपंथी नेता सईद जलीली को हरा दिया है। इन दोनों के बीच वोटों का फासला 9 फीसदी रहा है। डॉ. मसूद पेशे से हार्ट सर्जन रहे हैं, और ईरान में महिलाओं पर जुल्म ढहाने वाली मॉरल पुलिसिंग के कटु आलोचक रहे हैं। उनके मुकाबले जो लोग थे वे महिलाओं पर अधिक प्रतिबंध के हिमायती थे, और जैसा कि सबको मालूम है ईरानी महिलाएं पिछले दो बरस से हिजाब की अनिवार्यता के खिलाफ आंदोलन कर रही थीं, और बहुत कम वोट पडऩे के बावजूद इस बार का रूझान बड़ा साफ रहा, जो उम्मीदवार थे उनमें कम दकियानूसी, अधिक सुधारवादी, और कम कट्टरपंथी को जीत मिली। इससे ईरान में कोई क्रांति नहीं होने जा रही है क्योंकि वहां के संविधान के मुकाबले वहां के धार्मिक प्रमुख ही सुप्रीम लीडर हैं, जो संविधान में सबसे ऊपर है, लेकिन कम से कम जनता का एक रूख तो इससे सामने आया है।

भारत में भाजपा को पिछले चुनाव से कम सीटें मिलना, लेकिन फ्रांस में सबसे दक्षिणपंथी पार्टी को ईयू और देश, दोनों के चुनावों में बढ़त मिलना एक किस्म का रूख है, दूसरी तरफ ब्रिटेन में दक्षिणपंथी कंजरवेटिव पार्टी की बुरी शिकस्त हुई है, और उदारवादी लेबर पार्टी को ऐतिहासिक बहुमत मिला है, इसके साथ-साथ ईरान में भी सुधारवादी और उदारवादी राष्ट्रपति बन रहे हैं। अलग-अलग देशों का अलग-अलग रुझान हैं, इसलिए यह मानना ठीक नहीं है कि पूरी दुनिया में दक्षिणपंथ की, या उसके सफाए की कोई लहर चल रही है। फिर यह भी है कि अलग-अलग देशों की बहुत अलग-अलग स्थानीय स्थितियां हैं, वहां के वोटरों के सामने मुद्दे भी अलग-अलग हैं, इसलिए वहां के चुनावी नतीजे पूरी दुनिया का कोई रूझान नहीं बता रहे। लेकिन इस बरस दुनिया में जितने अधिक देशों में चुनाव है, उससे इन तमाम देशों के अंतरराष्ट्रीय संबंधों का भी एक नया दौर सामने आएगा। योरप के भीतर इस बात की चर्चा शुरू हो चुकी है कि फ्रांस के अलावा जिन दूसरे देशों में दक्षिणपंथी सरकारें रहेंगी, या हैं, उनके साथ ब्रिटेन की लेबर पार्टी की सरकार किस तरह संबंध रख सकेगी? क्योंकि राजनीतिक विचारधारा के स्तर पर इन दोनों के बीच किसी तरह का कोई तालमेल नहीं बैठ पाएगा। ब्रिटेन में लेबर पार्टी के नेताओं से ये सवाल भी शुरू हो चुके हैं कि वे दक्षिणपंथी सत्ता वाले देशों के साथ कैसे संबंध रख सकेंगे? ईरान को देखना भी बड़ा दिलचस्प रहेगा क्योंकि वहां के ऐतिहासिक महिला आंदोलन को लेकर नए राष्ट्रपति का क्या रूख रहेगा, और कैसे वे धार्मिक कट्टरता वाले अपने सुप्रीम लीडर के रूख के बावजूद महिलाओं के प्रति उदारता दिखा पाएंगे? ईरान में तो वोटरों के बीच एक उदासीनता यह भी थी कि किसी भी उम्मीदवार को वोट देने से क्या फायदा क्योंकि उम्मीदवार की निजी सोच की कोई औकात सुप्रीम लीडर के फैसलों के सामने नहीं रहने वाली है, यह सोचकर भी बहुत कम ईरानी वोटरों ने वोट डाले थे।

हमारा ख्याल है कि दुनिया में राजनीति शास्त्र के शोधकर्ताओं के सामने यह साल एक ऐतिहासिक मौका है जिसमें वे किसी एक इलाके के, या किसी एक धर्म से चलने वाले, या किसी एक फौजी खेमे वाले देशों के भीतर हुए चुनावों के नतीजों का विश्लेषण कर सकेंगे, उसकी तुलना कर सकेंगे। वैसे तो हर चुनाव अपने खुद के देश के लिए भी एक सबक रहता है जिससे वहां के राजनीतिक दल और वोटर सभी कुछ न कुछ सीखते हैं, लेकिन अब चूंकि दुनिया के देशों के बीच इतने जटिल अंतरसंबंध चल रहे हैं, कारोबार से लेकर जंग तक के रिश्ते लोगों को एक-दूसरे से बांधकर रख रहे हैं, इसलिए किसी देश की सत्ता पर आने वाली किसी पार्टी या गठबंधन को देश के आंतरिक मुद्दों के अलावा अंतरराष्ट्रीय मुद्दों पर भी दिलचस्प नीतियां बनानी पड़ सकती हैं। हम दुनिया में हो रहे इस फेरबदल को कई हिसाब से देख रहे हैं, भारत में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी अपने राजनीतिक जीवन में पहली बार गठबंधन के साथियों के आश्रित रहकर सरकार चला रहे हैं, और ये साथीदल कुछ मुद्दों पर मोदी की सोच से बिल्कुल अलग सोच भी रखते हैं। ऐसे में लोकतंत्र में सामंजस्य से सरकार चलाने का यह थोड़ा सा नये किस्म का प्रयोग रहेगा। इजराइल में मौजूदा सरकार अपने भीतर के सबसे दकियानूसी कट्टरपंथियों की मोहताज है, और प्रधानमंत्री अपनी मर्जी से बहुत कुछ नहीं कर पा रहे हैं। ऐसे में कुछ देश किसी एक दल को स्पष्ट बहुमत देकर गठबंधन की मजबूरियों को परे भी रख रहे हैं। यह साल अंतरराष्ट्रीय खबरों में दिलचस्पी रखने वाले लोगों के लिए बहुत सी अतिरिक्त समझ लेकर आएगा।

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