संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : एक ट्रेनी अफसर की ऐसी बददिमागी से मिले सबक
12-Jul-2024 4:56 PM
‘छत्तीसगढ़’ का  संपादकीय : एक ट्रेनी अफसर की ऐसी  बददिमागी से मिले सबक

महाराष्ट्र में एक आईएसए ट्रेनी युवती को लेकर बड़ा हंगामा मचा हुआ है। दरअसल हंगामे की शुरूआत पूजा खेडकर नाम की इस युवती ने ही की थी जब उसे पुणे कलेक्ट्रेट में ट्रेनी पाने के लिए तैनात किया गया। इस दौरान नौजवान अफसरों से यह उम्मीद की जाती है कि वे कलेक्ट्रेट के विभिन्न विभागों के कामकाज को रूबरू देखें, सीखने की कोशिश करें, और कलेक्टर के मातहत अनुभव हासिल करें। लेकिन इस युवती ने वहां अपने लिए सहूलियतें मांगते हुए दूसरे अफसरों का जीना हराम कर दिया। फिर मानो नीम चढ़े करेले की तरह इस युवती के लिए तरह-तरह की नाजायज सुविधाएं मांगने में उसका एक रिटायर्ड पिता भी जुट गया जो कि राज्य प्रशासनिक सेवा का अफसर था। बाप-बेटी ने तरह-तरह की नाजायज मांगों के लिए लोगों को धमकाना शुरू किया, निजी कार पर सरकारी नाम लिखवाकर उस पर लालबत्ती भी लगा ली, किसी दूसरे अफसर के कमरे पर कब्जा करके अपनी तख्ती लगा दी, और कुल मिलाकर इतना बवाल खड़ा किया कि सरकार को उसे उठाकर पुणे से वाशिम भेज देना पड़ा, और अब उसका हर कामकाज लोगों की खुर्दबीनी निगाहों में रहेगा। ढेर सारी शिकायतें खड़ी हो चुकी हैं, और जांच भी की जा रही है।

यह मामला कुछ अधिक ही बड़ा हंगामा होने से खबरों में आया, वरना अखिल भारतीय सेवाओं से चुनकर जो आईएएस-आईपीएस, या आईएफएस अफसर आते हैं, उन्हें विभागों के बाकी अफसर यह जानते हुए कि ये ट्रेनिंग के बाद सीधे ऊंचे ओहदों पर पहुंचेंगे, उनका वैसे भी अधिक ख्याल रखते हैं। उन्हें जिन सहूलियतों का हक नहीं रहता, वैसी भी बहुत सी सुविधाएं उन्हें दी जाती हैं, और हमने प्रशिक्षणार्थी रहते हुए ऐसे अफसरों को हजारों रूपए के एक दाम वाले कई चश्मे बाजार से उठवा लेते देखा है। आमतौर पर इनकी मनमानी, वसूली, और उगाही बहुत दूर तक खप जाती है। छोटे अफसर भविष्य के बड़े साहब की खिदमत करते हुए उनके लिए कई किस्म के नाजायज इंतजाम करते रहते हैं, और उनकी हवाई टिकटों से लेकर स्कॉच की बोतलों तक तमाम बातों का बोझ विभागीय अफसर उठाते हैं। लेकिन महाराष्ट्र की इस ट्रेनी आईएएस ने जब मनमानी की सीमा पार कर दी, तब उसके खिलाफ बातें फाइलों पर आईं, और राज्य सरकार तक पहुंचीं।

हमने छत्तीसगढ़ में पिछले पांच बरस में भूपेश बघेल सरकार के दौरान जितने कलेक्टर और एसपी गुंडागर्दी से वसूली और उगाही करते देखे हैं, वह शायद देश के इतिहास में पहली बार हुआ है। यही वजह है कि उनमें से कुछ आईएएस अफसर आज जेल में पड़े हैं, और उन्होंने दसियों करोड़ की जो काली कमाई की है वह किसी काम की नहीं रह गई। अब अगर छुपाकर रखी गई दौलत बची हुई भी है, तो भी नौकरी और इज्जत तो जा चुकी हैं, और अपने बच्चों को छोडक़र महिला अफसर भी जेल में पड़ी हुई हैं। जब नेताओं और अफसरों को उनके आसपास के दायरे के लोग, मातहत और मुसाहिब यह यकीन दिलाने लगते हैं कि आज दुनिया जो रौशन है, वह उन्हीं की पेशाब से जल रहे चिरागों की वजह से है, तो फिर यह बददिमागी सत्ता पर काबिज लोगों को जुर्म तक पहुंचाकर ही दम लेती है। हमारा तो ख्याल यह है कि छत्तीसगढ़ के पिछले पांच बरस के आईएएस-आईपीएस के कामकाज को देश में बनाए गए आईएएस-आईपीएस प्रशिक्षणार्थियों की अकादमी में पढ़ाना चाहिए कि अफसर कैसे-कैसे काम न करें। जब राजनीतिक और प्रशासनिक दोनों किस्म की सत्ता भागीदारी फर्म बनाकर हर किस्म का जुर्म करके कमाई करने पर आमादा हो जाती है, तो उनका अगला ठिकाना जेल होने की बहुत बड़ी आशंका रहती है। छत्तीसगढ़ इसका एक जलता-सुलगता उदाहरण है कि सत्ता पर बैठे लोग जब अपने को खुदा समझने लगते हैं, तो उनका कैसा बुरा हाल होता है।

हम पहले भी बीते दशकों में इस बात को कई बार लिख चुके हैं कि जिलाधीश, या जिला कलेक्टर जैसे पदनामों को खत्म करने का वक्त आ चुका है। अब मठाधीश किस्म का शब्द जिलाधीश लोकतांत्रिक नहीं लगता है। कुछ तो सत्ता के गलियारों में लंबे समय से चले आ रही यह बात भी लोगों को बददिमाग कर देती है कि देश में सत्ता कुल तीन हाथों में रहती है, पीएम, सीएम, और डीएम। डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट का ओहदा जिला कलेक्टर के साथ ही रहता है, दोनों जिम्मेदारियां एक ही अफसर की रहती हैं। लेकिन जहां सरकारी कुर्सी जिम्मेदारी लेकर आती है, वहां इन कुर्सियों की ताकत इन पर बैठे लोगों में बददिमागी भी लेकर आती है। दरअसल कलेक्ट्रेट नाम की संस्था को इस हद तक लचीले अधिकार दिए गए हैं कि जब नौजवान इस कुर्सी के आसपास भी पहुंचते हैं, और इनसे कुछ कदम दूर रह जाते हैं, तो भी उनमें बददिमागी आने लगती है। देश में इस सिलसिले को कड़ाई से काबू में लाने की जरूरत है। कहने के लिए सरकार के ऐसे नियम है कि किसी एक अफसर को एक से अधिक गाड़ी न मिले, लेकिन किसी भी अफसर के बंगले पर जाएं वहां दो-चार गाडिय़ां खड़ी ही रहती हैं, अघोषित रूप से दर्जन-दो दर्जन कर्मचारी काम करते ही रहते हैं, सरकार के अलग-अलग विभाग इन अफसरों के बंगलों पर अघोषित रूप से लाखों-करोड़ों का काम करवाते रहते हैं, और उसका भुगतान किसी और निर्माण कार्य या मरम्मत के नाम पर विभाग से होते रहता है। यह पूरा गंदा सिलसिला खत्म करना चाहिए। अफसरों के दिमाग में एक बात यह रहती है कि वे तो जो करवा रहे हैं, वह सरकारी इमारत में ही बने रहेगा, इन कमरों को वे अपने घर तो नहीं ले जाएंगे, लेकिन हकीकत यह रहती है कि इनकी लागत से कई गुना अधिक का नुकसान सरकार को लगाया जाता है। जिस ठेकेदार से दसियों लाख का काम कराया जाता है, उसे करोड़ों की छूट भी दी जाती है।

महाराष्ट्र की यह मिसाल बाकी देश के सामने भी है क्योंकि अखिल भारतीय सेवाओं के प्रशिक्षणार्थी हर प्रदेश में इसी तरह जाते हैं, और दूसरी जगहों पर भी इसी तरह की बददिमागी सामने न आए, इसकी सीख तो तमाम प्रदेश इस घटना से ले ही सकते हैं। हर प्रदेश के मुख्य सचिव, डीजीपी, और वन विभाग के प्रमुख को अपने मातहत लोगों तक साफ-साफ निर्देश भेजने चाहिए कि प्रशिक्षणार्थियों को किसी भी हालत में बिगाड़ा न जाए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक) 

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