विचार / लेख
![यह सीख गया कि नाम में कुछ नहीं रखा है यह सीख गया कि नाम में कुछ नहीं रखा है](https://dailychhattisgarh.com/uploads/article/1721582019ushya_mitra_.jpg)
-पुष्य मित्र
कल रात कर्नाटक कैफे नाम के एक रेस्तरां में मैंने कर्ड राइस और पापड़ खाया। यह कर्नाटक कैफे कर्नाटक में नहीं बिहार के ही एक शहर के आउटस्कर्ट में है।
बहरहाल मैं यहां मदीना होटल के बारे में बात कर रहा हूं, जो कभी पटना के अशोक राजपथ से सटे इलाके में सैदपुर के रास्ते में हुआ करता था, अभी भी शायद हो।
1997-98 की बात थी। मैं एक साल पटना में रहा था। कुछ महीने अशोक राजपथ के पास कुनकुन सिंह लेन में भी गुजारे थे।
छात्र जीवन था। खाना पकाने का इंतजाम तो था, मगर कभी कभार खाना पकाने का मन नहीं होता तो किसी होटल में खा लेता। मगर वह महंगा सौदा साबित होता, कम से कम दस रुपए खर्च हो जाते। उस जमाने में घर से एक हजार रुपए मिलते थे, पूरे महीने के खर्च के। किराया, खाना पीना, ट्यूशन, किताब, हर चीज के लिए।
इस बीच एक दोस्त नई खबर लेकर आया कि पड़ोस में एक मदीना होटल है, जहां चार से पांच रुपए में भरपेट भोज का इंतजाम हो सकता है। यह खबर तो अच्छी लगी, मगर हम थोड़ा संकोच में पड़ गए, मदीना होटल के नाम से। वहां तो बड़े का मांस भी पकता होगा।
दोस्त ने कहा, पकता है तो क्या, हम लोग तो सादा खाना खाएंगे, दाल तडक़ा और रोटी, कभी कभार कोई सब्जी। तब वहां ढाई रुपए की दाल मिलती थी, पच्चीस पैसे की अच्छी रोटी। तय हुआ कि ट्राई किया जाए। वहां गए। मामला जम गया। एक दाल, चार रोटी, कभी-कभार भुजिया या आलू परवल की सब्जी। अक्सर जाने लगे। बगल में लोग मांस भी खाते, छोटा, बड़ा सब। मगर हम लोगों को उससे फर्क नहीं पड़ता। दुकानदार कभी हम लोगों से अलग बैठने कहता। हम मना कर देते।
एक दिन दुकानदार ने बिना पूछे मेरी थाली में एक रोटी डाल दी। पेट भर गया था। खाने का मन नहीं था। बजट का भी मसला था। मैंने चिंतित होकर कहा, अरे रोटी क्यों दे दी। हम तो नहीं मांगे थे। तो दुकानदार ने मेरी झूठी थाली की रोटी उठाकर किसी और ग्राहक की थाली में डाल दी।
मैंने फिर कहा, अरे रोटी तो जूठी थी। इस पर दुकानदार ने कहा, कोई बात नहीं, वे लोग जूठा नहीं मानते।
लेकिन हम लोग जूठा मानते हैं। ध्यान रखिएगा।
हां जी, पता है। कभी तुम्हारी थाली में जूठी रोटी डाली। इतना तो समझते हैं।
यह एक अनुभव याद है।
यह भी याद है कि लगभग तीन महीने उस इलाके में रहे और मदीना होटल की अच्छी दाल और फुल्के जैसी अच्छी रोटी भी अक्सर खाते रहे। वहीं 22 साल की उम्र में यह सीख गया कि नाम में कुछ नहीं रखा है। यह सोच और व्यवहार आज भी मेरे अंदर कायम है। यह मेरी खुशकिस्मती है शायद। दुनिया को देखता हूं तो समझ आता है।