विचार / लेख
- दिनेश श्रीनेत
हर रोज़ सुबह जिस वक़्त भी आँखें खुलती हैं तो मैं सोचता हूँ कि आज का दिन 'एक और दिन है' या आज का दिन 'ऐसा दिन' है जो इससे पहले कभी नहीं आया। जाहिर सी बात है कि हर बार ऐसा नहीं होता कि वह दिन भीतर से कोई उत्साह लेकर आए। बहुत बार वह दिन एक और दिन बनकर रह जाता है। बीते हुए दिन उसकी पीठ पर सवार होते हैं और आने वाले दिन उबासियां ले रहे होते हैं।
इसके बावजूद इच्छा यही होती है कि नया दिन एक मुस्कराते हुए अजनबी की तरह मिले। हालचाल पूछने का तो मन हो। आधा दिन उसको जानने की उत्सुकता में बीत जाए और आधा दिन उसके साथ बने रहने की कोशिशों में गुजर जाए। इसलिए मुझे ठहरी हुई सुबहें अच्छी लगती हैं। दिल्ली की वो सुबह नहीं, जिसमें घड़ी की टिकटिकी के पीछे-पीछे भागना होता है।
कभी जब मैं इस शहर में नहीं रहता था और आया तो मेहमान बना फिरता तो मुझे दिल्ली की सुबहें बहुत अच्छी लगा करती थी। मैं लोकल बस में सुबह-सुबह लोगों की चुस्ती देखकर दंग रह जाता था। ऑफिस जाती महिलाएं। स्कूल के जाते बच्चे, लोग, तेज-तेज चलते लोग। जब बस किसी मोड़ से घूमती तो चौराहे पर सुबह की चुंधियाई रोशनी में बहुत सारे कबूतर फडफ़ड़ाते थे। अब ठहरी सुबह इसलिए अच्छी लगती है क्योंकि उसमें दिन का स्वागत करने की फुरसत होती है।
किसी से मिलने का सबसे सुंदर समय मुझे सुबह 9 बजे का लगता है। मैं बिना किसी हड़बड़ी के उसके साथ अपने ऑफिस की कैंटीन में चाय पी सकूँ। या किसी अभी-अभी खुले रेस्टोरेंट में एक कप कॉफी का। हम कभी सोच ही नहीं पाते कि सुबह की अच्छी मुलाकातें, अच्छी बातें, कोई सुंदर सा गीत या किताब के कुछ पन्ने हमारे पूरे दिन को अच्छा बना सकते हैं। मगर दिल्ली की भागदौड़ से भरी जि़ंदगी में ऐसा कहां हो पाता है।
बेहतर है कि भागते लोगों के चेहरों में ही अपने लिए कोई उम्मीद तलाश लें। ऐसे चेहरे जो दो पल के लिए अपनी झलक दिखाकर हमेशा के लिए गुम हो जाएंगे। सडक़ों के किनारे उगे फूल, झुक आई लताएं, फुटपाथ पर उगी घास, जो भी दिख जाए। तो कभी-कभी सोचता हूँ कि जब हमने होश संभाला था तो अतीत का बोझ लिए बिना इस दुनिया को देखा करते थे।
तब दुनिया कितनी सुंदर दिखती थी। बादल बादल ही दिखते थे, बारिश के बाद सडक़ों पर पानी भरने की चिंता नहीं सताती थी। फिर मन में आता है कि क्या ही अच्छा होता अगर आज भी अतीत के बोझ को उतार फेंकते और दुनिया को उसी तरह से देखते, जैसे तब देखा करते थे। मानो पहली-पहली बार देखा हो।
मेरा इस विचार पर यकीन गहरा होता जाता है। अतीत का बोझ तो हम खुद ही लेकर घूमते हैं। जो बीत चुका, वह तो अब है ही नहीं। फिर यह भी सोचा हूँ कि भला हर रोज एक ही राह से गुजरते हुए हम नया कैसे महसूस कर सकते हैं? जवाब मेरे पास है। कुछ पुराना होता ही नहीं है।
हमारे देखने के तरीकों में पुरानेपन के परदे खिंच चुके होते हैं। नहीं तो कुछ भी पहले जैसा नहीं रहता है। जिस रास्ते से मैं गुजरता हूँ, वह रास्ता हर बार नया होता है। क्योंकि हर दिन नया होता है। कैलेंडर में तारीख बदल जाती है। मौसम बदल जाता है। हवाएं बदल जाती हैं, हम बदल जाते हैं और पूरा ब्रह्मांड किसी नए स्वरूप को ग्रहण कर रहा होता है।
मैं भोले उत्साह से अजनबी दिन, अजनबी सडक़ों, अनजान लोगों को देखता हूँ। और इस तरह बाहर की दुनिया जैसी भी हो, भीतर नए-पुराने का संघर्ष चलता ही रहता है। साधारण दिनों में अतीत हो गए उजले चमकदार दिनों की यादें बहुत काम आती हैं।
उनके सहारे भी अक्सर उसी तरह से दिन कट जाता है, जैसे अजनबी चेहरों को देखते हुए।