संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : बेल एक हक, और जेल एक अपवाद हो
26-Jul-2024 4:06 PM
‘छत्तीसगढ़’ का  संपादकीय : बेल एक हक, और  जेल एक अपवाद हो

सुप्रीम कोर्ट ने अभी कई अलग-अलग मामलों में लोगों के जमानत पाने के हक की वकालत की है। कुछ मामलों में जब निचली अदालत से मिली जमानत को खारिज करने में ऊपर की अदालत ने उत्साह दिखाया, तो सुप्रीम कोर्ट ने उसके भी खिलाफ टिप्पणी की है। सुप्रीम कोर्ट के दो जजों ने दिल्ली हाईकोर्ट के एक आदेश को खारिज कर दिया जिसमें मनी लॉंड्रिंग के मामले में एक व्यक्ति को दी गई जमानत पर दिल्ली हाईकोर्ट ने रोक लगा दी थी। अदालत ने कहा कि  जजों के पास जमानत पर रोक लगाने का अधिकार तो है, लेकिन ऐसी कार्रवाई हल्के में या बिना किसी ठोस आधार के नहीं की जानी चाहिए। जजों ने कहा कि ऐसा सिर्फ असाधारण परिस्थितियों में ही किया जाना चाहिए। भारत में हाल के बरसों में बहुत से ऐसे मामले हुए हैं जिनमें अल्पसंख्यक मुस्लिम समुदाय के लोगों को आतंक के किसी कानून के तहत जेल में डाल दिया गया, और मामले की सुनवाई भी शुरू नहीं हो पाई, और चार-पांच बरस से ऐसे लोग जेल में बंद हैं क्योंकि जांच एजेंसियां उनकी जमानत का विरोध कर रही हैं।

हम धर्म के आधार पर, या किसी कानून के तहत होने वाली गिरफ्तारियां की बात नहीं कर रहे। हम सभी तरह के मामलों की बात कर रहे हैं कि बिना सुनवाई किसी भी व्यक्ति को लंबे समय तक जेल में बंद रखने की बड़ी ठोस वजहें होनी चाहिए, ऐसा नहीं होना चाहिए कि कुछ आतंकरोधी, मनीलॉंड्रिंग के कानून की मदद लेकर एजेंसियां जरूरत से ज्यादा बेरहमी से लोगों को जेल में बंद रख सकें। खासकर इन दो किस्म के मामलों में देश का तजुर्बा यह है कि इनमें सजा दिलवाना बड़ा मुश्किल रहता है, और जमानत को रोकते चले जाना आसान। इसलिए इन कानूनों के तहत गिरफ्तारी और बिना जमानत जेल में बंद रहना ही सजा है। ऐसे अधिकतर मामलों में यह माना जाता है कि विचाराधीन कैदी के रूप में जितना समय जेल में रखा जाता है, बस वही सजा है, और एक बार जमानत होने पर वह तकरीबन रिहाई है।

खुद भारतीय न्यायपालिका की भावना यह है कि बेल एक स्वाभाविक अधिकार होना चाहिए, और जेल अपवाद की तरह। लेकिन बहुत से मामलों में आर्थिक रूप से कमजोर, किसी अल्पसंख्यक समुदाय के, दलित या आदिवासी आरोपी ऐसे रहते हैं जो बिना जमानत जेलों में पड़े रहते हैं। कुछ मामलों में तो लोग सुनवाई शुरू हुए बिना जेल में मर गए हैं, और जांच एजेंसियां जमानत का विरोध करती रहीं। भीमा-कोरेगांव मामले में फादर स्टेन स्वामी जो कि एक मानवाधिकार आंदोलनकारी थे, और 84 बरस की उम्र में वे माओवादियों के हमदर्द होने के आरोप में जेल में डाले गए थे, और गंभीर बीमारी की हालत में वे कैद में रहते-रहते ही मर गए। जांच एजेंसियों का हाल यह था कि बहुत बूढ़े और बीमार स्टेन स्वामी ने अदालत में अर्जी दी थी कि वे पार्किसन बीमारी के कारण गिलास नहीं पकड़ पाते हैं, इसलिए उन्हें स्ट्रॉ (पानी पीने की नली) की इजाजत दी जाए, लेकिन एनआईए ने इसका भी घनघोर विरोध किया, और वे कांपते हाथों से गिलास छलकाते हुए ही मर गए। उन्हें कोई सजा नहीं हो पाई, और न ही घर जाने के लिए जमानत दी गई, बिना सुनवाई भारतीय न्याय व्यवस्था ने उन्हें हर तरह की तकलीफ से मुक्ति दिला दी।

भारतीय न्याय व्यवस्था का यह बड़ा ही भयानक और हिंसक पहलू है कि कुछ एजेंसियां बिना जमानत लोगों को जेल में अंतहीन रखकर ही उन्हें सजा दे रही हैं, मामलों की सुनवाई भी नहीं हो रही है, एजेंसियां आगे कोई पूछताछ भी बाकी नहीं रख रही हैं, लेकिन जमानत का विरोध कर रही हैं। सुप्रीम कोर्ट को इस बारे में सोचना चाहिए कि अगर प्रक्रिया ही सजा है, तो फिर अदालत की जरूरत क्यों होना चाहिए? कल के दिन कोई ऐसा कानून भी बन सकता है कि जांच एजेंसियां कुछ बरस तक बिना अदालत में पेश किए किसी को गिरफ्तार रख सके। अभी देश में जो नया कानून लागू हुआ है, उसके तहत भी कुछ लोगों की आशंका है कि पुलिस को 15 दिनों की हिरासत का अधिकार बढ़ाकर 90 दिन कर दिया गया है, और उसका भी ऐसा ही बेजा इस्तेमाल हो सकता है। हम न्यायपालिका के कुछ लोगों की इस सोच का समर्थन करते हैं कि बेल स्वाभाविक हक होना चाहिए, और जेल एक अपवाद होना चाहिए। इस बारे में सुप्रीम कोर्ट को कुछ ठोस मिसालें पेश करनी चाहिए, ताकि नीचे की अदालतें उससे सबक ले सकें। आज तो हमारा तजुर्बा यह है कि जिला स्तर की अदालतें जमानत की तमाम अर्जियों को खारिज कर देती हैं, और बहुत से मामलों में लोगों को सुप्रीम कोर्ट तक जाना पड़ता है। आबादी का शायद एक फीसदी हिस्सा ही सुप्रीम कोर्ट की चौखट चढ़ सकता है। सुनाई यही पड़ता है कि वहां के वकील एक-एक पेशी का लाख-लाख रूपए तक ले लेते हैं, कितने लोग ऐसे होंगे जो जमानत के लिए इतनी बड़ी अदालत तक जा सकें। हमारा मानना है कि गरीबों को अदालती प्रक्रिया में भी एक रियायत मिलनी चाहिए, क्योंकि वे पूरी प्रक्रिया का फायदा पाने की हालत में नहीं रहते हैं। इस बारे में मानवाधिकार आंदोलनकारी लंबे समय से भारतीय न्यायपालिका के गरीबविरोधी रूख को गिनाते आए हैं, सुप्रीम कोर्ट जजों को देश की गरीबी के आंकड़े देखना चाहिए, और फिर अपने महंगे कोट में सज जाने के बाद आईने में अपना चेहरा भी देखना चाहिए, हो सकता है इससे जमानत पर अदालती रूख बदल जाए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक) 

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