संपादकीय
पुणे की एक तकलीफदेह खबर है कि किसी ऑनलाईन गेम की आदत के शिकार, 10वीं के एक छात्र ने उस गेम के एक टॉस्क को पूरा करने के लिए 14वीं मंजिल से छलांग लगा दी, और उसकी मौत हो गई। उसके लिखे हुए कागज मिले हैं जिनमें इस तरह से छलांग लगाने की बात लिखी गई है, और स्कैच बनाया गया है। परिवार का कहना है कि वह 6 महीने से ऑनलाईन गेम की लत में पड़ा हुआ था, और कहीं आना-जाना भी छोडक़र दिन-रात कमरे में बंद रहता था, और खेलते रहता था। लोगों को याद होगा कि ऐसे कुछ और भी खेल कुछ अरसा पहले भारत सहित दुनिया के कुछ दूसरे देशों में भी प्रतिबंधित किए गए थे, जिन्हें खेलते हुए लोग जान खतरे में डालते थे, या सीधे-सीधे खुदकुशी कर लेते थे। यह ताजा घटना कई हिसाब से फिक्र की है कि 14 बरस का लडक़ा असल जिंदगी से इस हद तक कट जाए, और एक ऑनलाईन खेल को ही अपनी जिंदगी मान बैठे।
लेकिन हम अपने अगल-बगल के शहरों को देख रहे हैं, तो नाबालिग लडक़े-लड़कियां इतने किस्म के भयानक जुर्म कर रहे हैं कि उन्हें देखकर लोगें को लगता है कि कत्ल और बलात्कार जैसे जुर्म पर नाबालिगों की सुनवाई भी बालिग की तरह होनी चाहिए। ऐसी एक मांग देश में लगातार उठ रही है। हम छत्तीसगढ़ के भीतर ही यह देख रहे हैं कि हर दिन नाबालिग औसतन एक कत्ल या एक बलात्कार कर रहे हैं, कई मामलों में नाबालिग लडक़े किसी लडक़ी से अंतरंग संबंधों के दौरान बनाए गए वीडियो पोस्ट करके ब्लैकमेल कर रहे हैं, और नशा करके गुंडागर्दी करना तो बहुत आम बात हो गई है। ऐसा लगता है कि हिंसा या सामूहिक हिंसा करने में नाबालिगों और बालिगों के बीच कोई फर्क ही नहीं रह गया है। और कानून है कि नाबालिग को छूने नहीं देता, उसकी गिरफ्तारी नहीं हो पाती, उसके लिए अलग अदालत या बोर्ड का इंतजाम है, उसे जेल नहीं भेजा जा सकता, उसे सिर्फ सुधारगृह में रखा जा सकता है, उसकी शिनाख्त उजागर नहीं की जा सकती। कानून ने उसे तोडऩे वाले नाबालिगों को भी खूब सारी रियायतें दी हैं, लेकिन अब बहुत से लोग यह सोचने लगे हैं कि भयानक किस्म के अपराधों ने नाबालिगों को उम्र की रियायत नहीं मिलनी चाहिए।
हम अभी इस बारे में कोई साफ-साफ राय नहीं बना पाए हैं, और ऐसा लगता है कि देश में किशोरावस्था की बेहतर समझ रखने वाले मनोचिकित्सकों, परामर्शदाताओं, और कानून के जानकार तमाम तबकों के बीच अधिक विचार-विमर्श की जरूरत है। कायदे से तो यह विचार-विमर्श देश की संसद, और विधानसभाओं में खुलकर होना चाहिए, लेकिन हिन्दुस्तान में संसदीय चर्चा की कोई संभावना रह नहीं गई है। इसकी दो वजहें हैं। एक वजह तो यह है कि पार्टियों के बीच कटुता इतनी अधिक बढ़ गई है, कि सांसद या विधायक गिरोह जैसे खेमों में बंट गए हैं। और जैसा कि किसी भीड़ में होता है, गिरोह में दिमाग सिर्फ एक सरगना का होता है, बाकी के पास सिर्फ हामी में हिलाने को सिर होते हैं। सदनों में पिछले काफी बरस से पार्टियों के अनुशासन में बंधे सांसदों की निजी सोच की संभावना खत्म हो चुकी है, और महज पार्टी लाईन पर बोलने के लिए उन्हें कुछ-कुछ मिनट मिलते हैं जिनमें वे अपने नेता की स्तुति करते अधिक दिखते हैं। इसलिए सदनों में जो विचारों का उन्मुक्त प्रवाह होना चाहिए, वह गुंजाइश खत्म हो चुकी है। इसलिए भारतीय लोकतंत्र में अब एक दूसरी जरूरत आ खड़ी हुई है कि वैकल्पिक संसद या वैकल्पिक सदन नाम की एक नई परंपरा शुरू हो, और समाज के अलग-अलग तबकों के लोग इन मंचों पर अपनी राय रख सकें। आज तो टेक्नॉलॉजी मुफ्त में हासिल है, और ऐसे विचार-विमर्श, या बहस को ऑनलाईन भी किया जा सकता है, या किसी स्टेज के प्रोग्राम का प्रसारण भी किया जा सकता है। आज जरूरत संसद से परे एक छाया संसद, यानी शैडो पार्लियामेंट बनाने की है, ताकि लोकतांत्रिक विमर्श जारी रह सके। देश में जो प्रमुख, और जागरूक विश्वविद्यालय हैं, वे भी लोकतांत्रिक चेतना बढ़ाने के लिए इस तरह की पहल कर सकते हैं। यह एक अलग बात है कि कई जगहों पर सत्ता असहमति, या विचारों की विविधता को बर्दाश्त नहीं कर पाएगी, लेकिन जनता को तो लोकतंत्र में रास्ता सत्ता की नापसंदगी के बाद भी निकालना होता है।
हम जुवेनाइल क्राइम कहे जाने वाले अपराध के इस दर्जे पर यह भी बात करना चाहते हैं कि क्या समाज की भी फिक्र इसमें होना चाहिए, और समाज को सामुदायिक स्तर पर भी इससे निपटने की कोशिश करनी चाहिए? सरकार और संसद का मुंह देखने के बजाय समाज के लोगों को खुद ही समाधान तलाशना चाहिए। लोगों को याद रखना चाहिए कि दुनिया में कहीं पहाड़ को चीरकर रास्ता बनाने वाले एक अकेले समर्पित व्यक्ति की कहानी भी अच्छी तरह दर्ज है, तो कहीं उजड़ चुके पहाड़-जंगल को हरियाली में तब्दील कर देने वाले अकेले इंसान भी दुनिया के कई देशों में हैं। इसलिए हम किसी एक व्यक्ति की शुरू की हुई छोटी पहल की संभावनाओं को भी कम नहीं आंकते। हो सकता है कि कोई व्यक्ति ऐसे रहें, जो कि अकेले ही किशोर-मुजरिमों को सुधारने के लिए कुछ कर सकें। कोई एक छोटा सा संगठन भी ऐसी शुरूआत कर सकता है, और आगे चलकर या तो उसका काम आगे बढ़ सकता है, या कोई दूसरे बड़े संगठन उस किस्म का काम आगे बढ़ा सकते हैं।
नाबालिग या किशोर मुजरिमों को सुधारे बिना समाज सुरक्षित नहीं रह पाएगा, क्योंकि इनमें से हर किसी के सामने जेल के बाहर भी एक लंबी जिंदगी रहेगी, और न सुधर पाने की हालत में जुर्म करते ही रहेंगे। इसलिए समाज के लिए इन्हें सुधारने की कोशिश एक अधिक आसान और सस्ता काम हो सकता है, बजाय इन्हें इनके हाल पर छोड़ देने के, और इनके अधिक खतरनाक मुजरिम बन जाने का खतरा उठाने के। कुल मिलाकर किशोर-अपराध के मुद्दे पर समाज में खुलकर चर्चा की जरूरत है, और ऐसी चर्चा से ही किसी किस्म की पहल शुरू हो सकेगी। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)