संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : खूनी लूट-डकैती की जगह अब अहिंसक जुर्म, और हिंसा घरों में घुसी
31-Jul-2024 4:41 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : खूनी लूट-डकैती की जगह अब अहिंसक जुर्म, और हिंसा घरों में घुसी

 

अभी दस बरस पहले तक हिन्दुस्तान के शहर-कस्बों में लूटपाट के बहुत से मामले होते थे। लोग दुकान बंद करके घर जाते रहते थे, और उन पर निगरानी रखने वाले लोग रास्ते में उन्हें घेरकर गोली मारकर नगदी या दूसरा कीमती सामान लेकर चले जाते थे। सराफे की किसी दुकान में हथियारबंद लोग घुसकर गहने-नगदी लूट लेते थे, और फिर पुलिस रपट से पता चलता था कि कितने का माल गया। ऐसी तमाम घटनाओं में कहीं लोगों की मौत होती थी, तो कहीं लोग जख्मी होते थे। हाल के बरसों में हथियारबंद और हिंसक-ठगी के मामले जिस तरह से कम सुनाई पड़ते हैं, और साइबर-ठगी, फ्रॉड, ब्लैकमेल के मामले जितनी रफ्तार से बढ़े हैं, उनसे समझ पड़ता है कि खूनी जुर्म किस तरह से बिना खून बहाए जुर्मों में बदलते जा रहे हैं।

हम अपने आसपास के अखबारों को देखते हैं, तो हथियारबंद लूट या डकैती में हफ्ते भर में जितनी रकम जाते दिखती है, उससे अधिक रकम हर दिन लोगों से मोबाइल पर ठगी, जालसाजी, धोखाधड़ी में हर दिन जा रही है। इंटरनेट और मोबाइल बैंकिंग से अब लोगों के हाथ किसी भी तरह का भुगतान करना एकदम आसान काम हो गया है, और डिजिटल लेन-देन से, इंस्टेंट मैसेजिंग एप्लीकेशनों के इस्तेमाल से लोगों का मिजाज हर काम को आनन-फानन करने का इस हद तक हो गया है कि लोग धोखेबाजों के किसी संदेश के जवाब में लाखों का भुगतान पहले करते हैं, उसकी जांच शायद बाद में भी नहीं करते हैं। अभी मोबाइल पर किसी लडक़ी के साथ वीडियो कॉल पर कपड़े उतारने के लिए मर्द मानो बेसब्र रहते हैं, और एक बार ऐसी रिकॉर्डिंग ब्लैकमेलरों के हाथ लग जाती है, तो फिर वे जोंक की तरह खून की आखिरी बूंद भी निचोड़ लेते हैं। ऐसे एक-एक मामले में एक-एक आदमी 25-50 लाख रूपए गंवा रहे हैं, और इतनी रकम लूटने के लिए लुटेरों को खासी मेहनत लगती, गोलियां चलानी पड़ती, कत्ल भी करना पड़ता, और तब कहीं जाकर फरार होकर पुलिस से बचते हुए ऐसी रकम मिल पाती। अब लोग अपने घरों में सुरक्षित बैठे हुए सिर्फ मोबाइल और इंटरनेट पर लोगों को लूट रहे हैं, और कमअक्ल अधेड़ और बूढ़े सभी लोग जिंदगी भर की कमाई और बचत गंवा रहे हैं। इससे परे क्रिप्टोकरेंसी और शेयर बाजार में मोटी कमाई का झांसा देकर लोगों को लूटा जा रहा है, और हर दिन अखबार ऐसी खबरों से पटे हुए हैं, लेकिन बहुत पढ़े-लिखे लोग भी लुटेरों का इंतजार करते हुए मानो आरती की थाली सजाए बैठते हैं। इस तरह अब साफ दिखता है कि खूनी जुर्मों में से खून अब हटते जा रहा है। जब दुनिया में मासूम, नासमझ, और मूर्ख भरे पड़े हैं, तो फिर हाथ क्यों गंदे किए जाएं? बात की बात में बैंक खातों में सभी किस्म के साइबर-जुर्म का पैसा आ जाता है, वहां से दूसरे खातों में चले जाता है, और उसे नगद निकालकर लोग गायब भी हो जाते हैं। एक किस्म से यह नौबत अच्छी इसलिए है कि इसमें खून नहीं बहता, लेकिन दूसरी तरफ खतरनाक इसलिए है कि जो लोग ब्लैकमेलिंग का शिकार होते हैं, वे खुदकुशी भी कर बैठते हैं, और उनमें कोई अधिक दुस्साहसी रहते हैं, तो वे ब्लैकमेलर का कत्ल भी कर बैठते हैं। लेकिन ये दोनों ही नौबतें ठगी-ब्लैकमेलिंग हो जाने के बाद की हैं, जहां तक पैसे लूटना या ठगना है, तो वह मामला अब तकरीबन पूरी तरह अहिंसक हो चुका है।

आज भी हिंसक जुर्म एकदम घटे नहीं हैं, लेकिन अधिकतर हिंसा परिवारों के भीतर, आपसी संबंधों में, या प्रेम और सेक्स के संबंध टूट जाने पर बदला निकालने के लिए होते दिखती है। यह हिंसा बड़ी रफ्तार से बढ़ रही है। इसके पीछे शहरीकरण जैसी एक स्थिति भी जिम्मेदार है, लेकिन एक दूसरी दिलचस्प बात यह है कि अब लड़कियां और महिलाएं पहले के मुकाबले अधिक आत्मनिर्भर हैं, वे अधिक हिम्मती भी हैं, और हर किस्म के निजी संबंध बनाने में वे अब कुछ या अधिक हद तक आदमियों की बराबरी भी करने लगी हैं। अब औरत-मर्द के रिश्तों में भी महिलाएं पहले की तरह बेबस नहीं रह गई हैं कि वे हर किस्म के जुल्म को सहती रहें। जब कोई एक पक्ष जुल्म सहने को तैयार हो, तो फिर ऐसे रिश्ते में हिंसा की नौबत और जरूरत कम आती है। दूसरी तरफ जब महिला किसी विवाद में रीढ़ सीधी करके सामने खड़ी होने लगे, तो फिर टकराव की नौबत बढ़ती है। हाल के बरसों में लगातार ऐसे भी बहुत से मामले सामने आए हैं जिनमें किसी लडक़ी या महिला ने प्रेमी या पति के कत्ल की योजना बनाई, भाड़े के हत्यारे लिए, या पति या प्रेमी को साथ में जोड़ा, और कत्ल कर दिया, या करवा दिया। महिलाओं की इस नई ताकत के चलते भी अब कई तरह की हिंसा बढ़ रही हैं।

इस मुद्दे पर आज लिखने का एक मकसद यही था कि भारत में जो परंपरागत लूट-डकैती जैसे जुर्म थे, जिनमें कत्ल की नौबत आती थी, वह धंधा अब सफेदपोश साइबर-मुजरिम बिना हिंसा करने लगे हैं। दूसरी तरफ आपसी संबंधों और परिवार के भीतर परले दर्जे की हिंसा होने लगी है। समाज को इस किस्म के विश्लेषण खुद भी करने चाहिए, और इनके निष्कर्षों पर लोगों को बैठकर बात भी करना चाहिए कि असल जिंदगी के हिंसा और साइबर जिंदगी की लूट या ब्लैकमेलिंग पर काबू कैसे पाया जाए। आज इन दोनों में पुलिस का दाखिला तभी होता है, जब जुर्म हो चुका रहता है। इसलिए लोगों को ही अपनी जिंदगी को जुर्म से बचाने के लिए मेहनत करनी पड़ेगी। पुलिस तो किसी भी तरह के जुर्म में जब बाद में पहुंचती है, तो वह अधिक से अधिक मुजरिमों पर कार्रवाई कर पाती है। पूरे देश का आंकड़ा अगर देखें, तो साइबर-जुर्म में होने वाली ठगी-ब्लैकमेलिंग का एक फीसदी पैसा भी पुलिस पकड़ नहीं पाती। इसलिए जनता के बीच ही हर किस्म के जुर्म से बचने पर खुलकर चर्चा होनी चाहिए।  (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक) 


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