संपादकीय
तस्वीर / ‘छत्तीसगढ़’
छत्तीसगढ़ के सारंगढ़-बिलाईगढ़ जिले के एक गांव में रहने वाली मानसिक विक्षिप्त युवती की पैरों में पिता ने बेड़ी बांधी दी थी ताकि वह दूर न चली जाए। ऐसे में वह आम दिनों की तरह नदी के किनारे गई, और फिर लौटी नहीं। इसके बाद वह 20 किलोमीटर दूर इसी नदी में बहते हुए ओडिशा में मिली, और उसे वहां लोगों ने बचाया, और वापिस उसके गांव लाया गया। इससे कई तरह के सवाल उठते हैं। मानसिक स्वास्थ्य का मुद्दा सबसे बड़ा है कि दिमागी परेशानी होने से किस तरह उसके पैरों में जंजीर बांध दी गई थी। ऐसा कई जगहों पर होता है, और गरीब परिवार जब किसी विचलित सदस्य का मानसिक इलाज नहीं करा पाते, तो उसे बांधकर रख दिया जाता है, ताकि वह खुद को, या किसी और को खतरे में न डाल दे। यह नौबत छत्तीसगढ़ में खासकर इसलिए अधिक फिक्र की बात है कि यहां हर गांव का हर परिवार ग्रामीण स्वास्थ्य कार्यकर्ता, मितानिन की निगरानी में रहता है जो कि छोटी-छोटी बीमारियों का भी ध्यान रखती है, उसे मिली कुछ दर्जन किस्म की दवाईयों का इस्तेमाल करके मामूली और मौसमी बीमारियों का इलाज भी करती है, और प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र या स्वास्थ्य विभाग के लगातार संपर्क में भी रहती है। अब अगर पैरों में बेडिय़ों वाली कोई विक्षिप्त महिला मितानिन के रिकॉर्ड से परे है, तो यह एक किस्म की चूक भी है। अगर उसकी जानकारी में यह बात थी, तो इस महिला को मानसिक इलाज हासिल होना चाहिए था। इस किस्म के सैम्पल केस सरकार को अपने इंतजाम को दुरूस्त करने मेें मददगार हो सकते हैं, और इसे एक अकेला केस मानने के बजाय राज्य सरकार को पूरे प्रदेश में मानसिक बीमार लोगों की शिनाख्त का अभियान चलाना चाहिए, और उनकी संख्या देखकर इलाज का इंतजाम करना चाहिए।
इस मामले का एक दूसरा पहलू भी है। कई अखबारों ने इस खबर के साथ यह लिखा है कि जाको राखे सांईयां, मार सकै न कोय। मतलब यह कि जिसे ईश्वर बचाना चाहते हैं, उसे कोई मार नहीं सकते। वरना यह बात स्वाभाविक तो है नहीं कि बाढ़ में उफनती नदी में पैरों में जंजीर बंधी एक विक्षिप्त महिला बहते हुए 20 किलोमीटर दूर जिंदा पहुंच जाए, और उसे बचा भी लिया जाए। यह बात सही है कि यह एक जिंदगी किसी चमत्कार की तरह बची है, लेकिन इसे किसी धार्मिक आस्था से जोडक़र इसका विश्लेषण करना इसलिए ठीक नहीं है कि उससे धर्म और ईश्वर की धारणा को एक नाजायज महत्व और मान्यता मिलते हैं। अब जैसी कि आस्थावानों की धारणा है, ईश्वर सर्वत्र मौजूद रहते हैं, सर्वशक्तिमान रहते हैं, वे सर्वज्ञ भी रहते हैं, और कल्याणकारी तो हैं ही, कण-कण में उनका वास है। तो ऐसे में यह ईश्वर एक महिला को इस तरह, शायद बरसों तक, जंजीरों से बांधकर रखने की हद तक विक्षिप्त बनाकर क्यों रखता है? हमारे जैसे नास्तिक के मन में यह साधारण सवाल उठता है, लेकिन आस्थावानों के पास इसका जवाब पाप और पुण्य की शक्ल में रहता है कि यह पिछले जन्मों के पापों का नतीजा होगा। अगर ईश्वर एक जन्म के बाद दूसरे जन्म तक भी पाप-पुण्य को बहीखातों के हिसाब की तरह कैरीफॉरवर्ड करता है, तो फिर छोटी-छोटी बच्चियों से बलात्कार किस जन्म के हिसाब के तहत होता है? अगर उन्हें किसी पिछले जन्म के पाप की सजा भुगतनी है, तो उन्हें पैदा होने देने से बेहतर, जन्म से ही रोक देना था। कोई कल्याणकारी ईश्वर किस तरह छोटी-छोटी बच्चियों से बलात्कार को देखते हुए भी सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञ, सर्वत्र विद्यमान कहा जा सकता है?
इस मामले को लेकर राज्य सरकार की जिम्मेदारी पर कुछ बुनियादी सवाल उठते हैं। मानसिक विक्षिप्त लोग इलाज के हकदार तो रहते ही हैं, अगर वे गरीब परिवारों के हैं, तो शायद समाज कल्याण की किसी योजना के तहत उनके परिवारों को कुछ दूसरी मदद भी मिलनी चाहिए। क्योंकि गरीब परिवारों में ऐसे मानसिक मरीज की देखभाल आसान नहीं रहती, और जब घर के बाकी लोग मजदूरी के लिए, पढ़ाई के लिए, बाहर जाते हैं, तो ऐसे मानसिक मरीज सदस्य की खुद की हिफाजत के लिए उन्हें कभी-कभी बांधकर या बंद कर भी जाना पड़ता होगा। ऐसी नौबत वाले परिवारों को सरकारों की तरफ से कुछ अतिरिक्त मदद मिलनी चाहिए। आज जिस तरह छत्तीसगढ़ सहित बहुत सी राज्य सरकारें महिला वोटरों के खातों में सीधे रकम डालती हैं, या जिस तरह वृद्धावस्था पेंशन का प्रावधान है, उसी तरह मानसिक विक्षिप्त के परिवार के लिए भी कुछ मदद होनी चाहिए, फिर चाहे ऐसे विक्षिप्त लोग मतदाता न भी हों, वे वोट डालने की हालत में न भी हों।
हम परिवारों के भीतर ही नहीं, सडक़ों और सार्वजनिक जगहों पर भी इस तरह के लोगों को देखते हैं, जो कि सामान्य दिमागी हालत के नहीं रहते, और बिना किसी आसरे के मानो मौत के इंतजार में किसी तरह जीते रहते हैं। हमारा मानना है कि किसी भी जनकल्याणकारी सरकार को सबसे पहले ऐसे लोगों के इलाज और रखरखाव का इंतजाम करना चाहिए जो शारीरिक या मानसिक रूप से अपना खुद का ख्याल नहीं रख सकते। ऐसे लोगों के लिए शुरूआत में कम से कम जिला मुख्यालयों में ऐसे केन्द्र बनाने चाहिए जहां डॉक्टरी निगरानी में सरकार इन लोगों को जिंदा रहने की बुनियादी सहूलियतें मुहैया कराए, और अपने राज को संवेदनशील साबित करे। ऐसे लोग न तो गिनती में किसी नेता या पार्टी को हरा या जिता सकते, न ही इनमें से अधिकतर वोट डालने जा भी सकते, लेकिन किसी भी सभ्य समाज की यह पहली पहचान है कि वे अपने सबसे कमजोर, और असहाय लोगों के साथ कैसा बर्ताव करते हैं। पिछले दशकों में हमने लगातार यह बात लिखी है कि किसी जनकल्याणकारी राज्य में किसी सार्वजनिक जगह पर शारीरिक या मानसिक विकलांग असहाय और बेघर लोग नहीं रहने चाहिए। उन्हें सिर्फ नजरों से दूर कर देने के लिए हटाने की बात हम नहीं कर रहे, बल्कि उन्हें इंसान की तरह रखने की बात कर रहे हैं, और जब राज्य में पशुओं को रखने के लिए भी सरकारी योजनाएं बनी हैं, बन रही हैं, तो इंसानों के लिए तो ऐसे इंतजाम होने ही चाहिए। सरकार को ऐसे समर्पित समाजसेवी, और सामाजिक संस्थाओं को भी तलाशना चाहिए जो कि सरकार से मिली बुनियादी मदद के बाद मानवीय आधार पर ऐसे तकलीफ भुगतते इंसानों का ख्याल रख सकें। आज गाय या गोवंश के लिए भी काम करने वाले लोग पशुओं के प्रति हमदर्दी की किसी भावना से यह काम नहीं करते, उनमें से तकरीबन तमाम लोगों की सोच धार्मिक आधार पर गाय से जुड़ी हुई है, और ऐसा कोई जुड़ाव शारीरिक या मानसिक मरीजों के साथ नहीं हो सकता। इसलिए किसी राज्य सरकार को धार्मिक भावना से परे की सेवाभावना को भी देखना होगा। सरकार के लिए यह कोई बहुत बड़ा बोझ नहीं होगा, लेकिन इससे सत्ता और मानवीयता का एक रिश्ता बन सकता है, और यह आने वाली सरकारों और पीढिय़ों के लिए एक अच्छी नजीर रहेगी। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)