संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : हितों के टकराव से बचे बिना, और पारदर्शिता बिना लोकतंत्र मुमकिन नहीं...
08-Aug-2024 5:06 PM
‘छत्तीसगढ़’ का  संपादकीय :  हितों के टकराव से बचे  बिना, और पारदर्शिता बिना  लोकतंत्र मुमकिन नहीं...

ईडी ने अभी सुप्रीम कोर्ट में छत्तीसगढ़ के एक मामले में सुबूत पेश करते हुए कहा कि इस प्रदेश के भ्रष्टाचार से घिरे अफसरों को बचाने में सरकार जुट गई थी, और उस वक्त के मुख्य सचिव के भाई प्रदेश के हाईकोर्ट में जज थे जिनसे आरोपियों का संपर्क था, और वहां से उन्हें जमानत मिली, और इसके साथ ही इस मुख्य सचिव को राज्य का मुख्य निर्वाचन आयुक्त बनाया गया, इसके अलावा जज के बेटी-दामाद के मामले भी किसी मेहरबानी के लिए आरोपी अफसरों तक पहुंचाने का काम एडवोकेट जनरल मुखिया, जो कि आरोपियों और जज के बीच मध्यस्थ का काम कर रहे थे। इस मुद्दे पर हमने दो दिन पहले एक लंबा संपादकीय लिखा है इसलिए हम उस पर दुबारा नहीं लिख रहे हैं। लेकिन आज एक दूसरा मुद्दा उठता है कि किसी राज्य में हाईकोर्ट के जज उस राज्य के हाईकोर्ट में काम करते हुए वकीलों में से छांटकर बनाए जाते हैं। इसकी मंजूरी सुप्रीम कोर्ट का कॉलेजियम देता है, फिर आखिरी मंजूरी केन्द्र सरकार से मिलती है। हम ऐसे बहुत से मामलों को देखते हैं जिनमें हाईकोर्ट के मामले किसी जज की अदालत में सुनवाई के दिन जब पेश होते हैं, तो जज अपने आपको सुनवाई से अलग कर लेते हैं क्योंकि उन्होंने मामले से जुड़े हुए किसी पहलू की तरफ से पहले मामला वकील की हैसियत से लड़ा हुआ था। दूसरी तरफ ऐसे ही जजों के वकालत के दिनों के मातहत, जूनियर वकील भी मामले लेकर अदालतों में पहुंचते हैं, और यह सामान्य जानकारी है कि किसी जज से किसी मामले की सुनवाई न चाहने वाले लोग उस जज के किसी रिश्तेदार, या जूनियर रहे वकील को खड़ा करते हैं, और जज सुनवाई करने से मना कर देते हैं। जिस जगह लोगों ने लंबी वकालत की है वहां पर बहुत से लोगों से संबंध रहना स्वाभाविक बात है, और जज भी वकील रहने के वक्त रिश्तेदारों, दोस्तों, और मुवक्किलों से संबंध रखे हुए रहते हैं।

इससे एक बात साफ होती है कि पूर्वाग्रह या पक्षपात, दोस्ती या दुश्मनी की अधिक वजह वकील के उसी हाईकोर्ट में जज बनाए जाने से खड़ी हो सकती है, और दूसरे प्रदेश से आए हुए जजों के साथ ऐसा धर्मसंकट नहीं रहता होगा। अभी जब हमने मुख्य सचिव और उनके जज भाई के बारे में लिखा, तो कुछ जानकार लोगों ने इस पर संदेश भेजा कि वकीलों को उन्हीं के राज्यों में जज बनाना बंद होना चाहिए। जज के लंबे कार्यकाल में वैसे भी हर एक को कई राज्यों के हाईकोर्ट में काम करना पड़ता है। उसमें अगर उनके अपने गृहप्रवेश में काम करने पर रोक लगा दी जाए, तो इससे उनके पूरे कार्यकाल पर कोई फर्क नहीं पड़ता। जजों को पक्षपात की नौबत से बचाने के लिए अनिवार्य रूप से दूसरे राज्यों में ही तैनात करना चाहिए।

लेकिन हम बात सिर्फ जजों तक सीमित रखना नहीं चाहते। राज्य सरकार से रिटायर होने वाले दर्जनों ऐसे अफसर रहते हैं जो कि आखिरी बरसों में उन संवैधानिक कुर्सियों पर नजरें टिकाए रहते हैं जिन पर आमतौर पर भूतपूर्व नौकरशाहों को रखा जाता है। अफसर वृद्धावस्था पुनर्वास के लिए कुर्सी पर रहते हुए नेताओं की मर्जी से कई किस्म के गलत काम करते हैं, ताकि रिटायर होते ही उन्हें लाखों रूपए महीने मेहनताने, और बड़े ऊंचे दर्जे की सहूलियतों वाले ओहदे मिल जाएं। देश में अब राष्ट्रीय स्तर पर और प्रदेशों में संवैधानिक आयोगों में ओहदे बढ़ते-बढ़ते अब हर प्रदेश में दर्जनभर पार कर चुके हैं, शायद दर्जनों तक पहुंच चुके हैं, और इन्हें हासिल करने के लिए अफसर अपने आखिरी बरसों में हर किस्म के गलत काम करने को तैयार रहते हैं। हम बार-बार इस बात को लिखते हैं कि अगर किसी ओहदे के लिए रिटायर्ड अफसर की ही जरूरत है, तो इसके लिए राष्ट्रीय स्तर पर एक पैनल बनना चाहिए जिसमें ऐसी कुर्सियों पर काम करने की हसरत रखने वाले रिटायर्ड अफसर अर्जी भेजें, और फिर उन्हें उस पैनल में से उनके गृहराज्य छोडक़र बाकी राज्य छांट सकें, और ले जा सकें। अभी कल तक जो अफसर अपने राज्य में पुलिस महकमा चला रहे थे, वे रातों-रात मानवाधिकार आयोग में बैठ जाते हैं। वहां बहुत सारे मामले तो उनके पुलिसिया कार्यकाल के खिलाफ ही रहते हैं, और वे क्या खाकर उसकी सुनवाई कर सकते हैं? इसी तरह महिला आयोग, बाल कल्याण परिषद, अनुसूचित जाति या जनजाति आयोग, अल्पसंख्यक आयोग, में सत्तारूढ़ पार्टी अपने पसंदीदा लोगों, और आमतौर पर पार्टी के नेताओं को मनोनीत करती है। यह सिलसिला भी बंद होना चाहिए, और इसके लिए दूसरे राज्यों के, राजनीति से परे के लोगों को छांटना चाहिए, और इसी के लिए हम एक राष्ट्रीय पैनल सुझा रहे हैं ताकि उसमें से सबसे अच्छे लोगों को दूसरे राज्यों में ले जाया जा सके। जब संवैधानिक संस्थाएं सत्ता से उपकृत लोगों के लिए वृद्धाश्रम बन जाती हैं, तो वे कभी भी अपना मकसद पूरा नहीं कर पातीं। हमने पिछले बहुत बरसों से लगातार इस बात को उठाया है कि राज्य के लोगों को इन जगहों पर छांटने से हितों के टकराव का एक बड़ा मामला खड़ा होता है, और ऐसा टकराव लोकतंत्र के खिलाफ है।

जब जनता के पैसों से, जनता के हितों के लिए संवैधानिक व्यवस्था के तहत वकील जज बनते हैं, या रिटायर्ड अफसर और नेता किसी संवैधानिक कुर्सी पर आते हैं, तो यह सिलसिला बहुत पारदर्शी होना चाहिए, और उसमें किसी भी तरह से हितों का टकराव नहीं होना चाहिए। जिस तरह आज देश में वकीलों को जज बनाने के लिए सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम है, उसी तरह राष्ट्रीय स्तर पर संवैधानिक पदों पर चयन के लिए एक कमेटी या आयोग बनाना बेहतर होगा जो कि हर राज्य की जरूरत के मुताबिक वहां के पदों पर लोगों को भेज सके, और ऐसे लोग किसी नेता या सरकार का उपकार माने बिना अपनी संवैधानिक जिम्मेदारी ईमानदारी से पूरी करें। राज्य के भीतर जब तक लोगों का चयन होता रहेगा, तब तक संवैधानिक भूमिका में ईमानदारी नहीं आ सकेगी। इसके साथ-साथ एक दूसरी बात और होनी चाहिए, जजों के रिटायर होने के बाद उनके राजनीति में आने, राज्यसभा जाने, या राज्यपाल बनने पर कुछ सालों की रोक रहनी चाहिए। रिटायर होते ही मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई जिस तरह राज्यसभा चले गए, उससे सुप्रीम कोर्ट की विश्वसनीयता पर गहरी चोट पड़ी है। इस पर हम पहले कई बार लिख चुके हैं, और आज एक अखबार के इंटरव्यू में देश के मुख्य न्यायाधीश ने भी कुछ इसी तरह की राय जाहिर की है।

लोकतंत्र नैतिकता के ऊंचे पैमानों की एक पारदर्शी व्यवस्था रहनी चाहिए। जो लोग पूरी जिंदगी प्रमुख पदों पर रहते आए हैं, उन्हें कुछ और बरस की सहूलियतों के लिए लार टपकाते हुए सत्ता के तलुए नहीं सहलाना चाहिए। संसद को एक राष्ट्रीय चयन आयोग बनाना चाहिए, ठीक उस तरह जैसे कि राज्यों की आईएएस, आईपीएस, आईएफएस अफसरों की जरूरत ही केन्द्र को पहुंचती है, और फिर यूपीएससी उतनी संख्या में लोगों को छांटकर, राज्य की मर्जी के बिना के लोगों को वहां भेज देती है। ठीक इसी तरह प्रदेश के संवैधानिक आयोगों में भी देश भर के सबसे अच्छे, काबिल, और बेदाग रिकॉर्ड वाले लोगों को भेजा जाना चाहिए, जिसमें राज्य का कोई दखल नहीं होना चाहिए। 

(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक) 

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