संपादकीय
अमरीका की जिम्नास्ट सिमोन बाइल्स ने पेरिस ओलंपिक में गोल्ड मैडल जीतकर ऑलराउंडर क्वीन का खिताब पाया
अमरीका की एक जिम्नास्ट सिमोन बाइल्स ने अभी पेरिस ओलंपिक में गोल्ड मैडल जीतकर ऑलराउंडर क्वीन का खिताब पाया है। लोगों को याद होगा कि पिछले, 2021 के टोक्यो ओलंपिक में सिमोन ने मानसिक एकाग्रता नहीं रहने का तर्क देकर मुकाबला छोड़ दिया था। इससे अमरीकी जिम्नास्ट टीम को बड़ी निराशा हुई थी क्योंकि वह 2016 में रियो ओलंपिक में गोल्ड मैडल जीतने वाली सिमोन से टोक्यो में भी यही उम्मीद कर रही थी। लेकिन चार बरस बाद अब पेरिस में छोटे से कद की इस युवती ने एक बार फिर गजब का करिश्मा कर दिखाया। उस पर लिखते हुए जब हम उसके खेल जीवन में कामयाबी की फेहरिस्त देख रहे हैं, तो लैपटॉप पर मुकाबलों और मैडलों का नाम खत्म ही नहीं हो रहा है। ऐसा लगता है कि उसके जीते हुए तमाम मैडलों को एक के ऊपर एक रख दिया जाए, तो शायद वे उसके चार फीट आठ इंच के कद को पार कर जाएंगे। आज उस पर लिखने का दिल इसलिए कर रहा है कि वह कहां से बढक़र कहां तक पहुंची है, यह दुनिया भर के लोगों के लिए एक बड़ी प्रेरणा हो सकती है।
सिमोन और उनके तीन और भाई-बहनों की देखभाल करने में उनकी मां असमर्थ थीं, इसलिए अमरीकी इंतजाम के मुताबिक इन चारों को एक पालक की देखरेख में रखा, और बाद में रिश्तेदारों ने इन बच्चों को अलग-अलग गोद लिया। ऐसे बचपन से बढ़ते हुए उन्होंने छह साल की उम्र से जिम्नास्टिक की कोशिश की, और धीरे-धीरे आगे बढ़ती रहीं। चौदह बरस की उम्र से मुकाबलों में हिस्सा लेना शुरू किया, और फिर वह सिलसिला कभी खत्म हुआ ही नहीं। अब वे 27 बरस की उम्र में ओलंपिक में जिस तरह लोगों का दिल जीत रही हैं, वह भी देखने लायक है। हम आंकड़ों में अधिक जाना नहीं चाहते, लेकिन सिमोन ने जिम्नास्टिक्स की विश्व चैंपियनशिप में सबसे अधिक मैडल जीतने का रिकॉर्ड भी आज से पांच बरस पहले तोड़ दिया, और उसके बाद वे लगातार कोई न कोई रिकॉर्ड तोड़ती जा रही हैं।
सिमोन के बहाने हम अमरीका पर एक नजर डालना चाहते हैं जहां पर काले लोगों के साथ समाज में भेदभाव पूरी तरह खत्म नहीं हो पाया है। इसके खिलाफ कानून बहुत कड़ा है, लेकिन सामाजिक माहौल पूरी तरह कानून का सम्मान कहीं भी नहीं करता है। ऐसे में सिमोन ने जिस तरह जिम्नास्टिक्स में कामयाबी का सफर जारी रखा, उसके लिए अमरीका का समान अवसरों वाला माहौल भी तारीफ का हकदार है जहां संवैधानिक सुरक्षा की वजह से काले या दूसरे रंगों के लोग भी बहुत हद तक बराबरी का मौका पाते हैं। सिमोन बाइल्स की कहानी यह बताती है कि कोई देश अपने सबसे वंचित तबके को भी आगे बढ़ाकर किस तरह अपनी संभावनाओं को हासिल कर सकता है। वैसे तो अपने आपको एक सबसे विकसित लोकतंत्र कहने वाला अमरीका सामाजिक विरोधाभासों का उसी तरह शिकार है जिस तरह हिन्दुस्तान है। अमरीका में भी जाति की तरह इस्तेमाल होने वाला रंगभेद वैसा ही जारी है जैसा भारत में दलितों के खिलाफ इस्तेमाल होता है। वहां भी भारत के सवर्ण तबकों की तरह के एक गोरे तबके में काले लोगों, और कुछ दूसरे गैर गोरे तबकों के खिलाफ हिकारत वैसी ही रहती है, जैसी कि भारत में कुछ दलितों, आदिवासियों, और अल्पसंख्यकों के खिलाफ रहती है। लेकिन फिर भी विसंगतियों और विरोधाभासों के बीच जब अमरीका की तरह खिलाडिय़ों को बराबरी का मौका मिलता है, तो वे शानदार प्रदर्शन करके दिखाते हैं।
हिन्दुस्तान में हाल के बरसों में यह बात भी उठी है कि भारत की क्रिकेट टीम में किन जातियों के कितने लोगों को मौका मिलता है, और किन जातियों के लोग सबसे शानदार प्रदर्शन करके दिखाते हैं। हम उन बारीकियों में तो नहीं जा रहे, लेकिन देश में दलितों, और आदिवासियों, या अतिपिछड़ी जातियों के बच्चों को देखना चाहिए जिन्हें अपने इलाकों की वजह से, या अभाव की वजह से खेल या पढ़ाई मेें आगे बढऩे का मौका नहीं मिल पाता। 140 करोड़ की आबादी का यह देश अगर ओलंपिक से गिने-चुने पदक लेकर आता है जिन्हें कि एक मुट्ठी में थामा जा सकता है, तो इसके पीछे की एक बड़ी वजह यह लगती है कि वंचित समुदाय के बच्चों को आगे बढऩे के बराबरी के मौके नहीं मिलते हैं। अपने देश की एक बड़ी आबादी को गैरबराबरी का शिकार बनाकर, उन्हें सहूलियतें न देकर कोई देश आगे नहीं बढ़ सकता। और जब कोई देश सबसे कमजोर तबकों को भी आगे बढ़ाता है, तो वह सहूलियत हासिल तबकों के लिए भी एक घरेलू चुनौती खड़ी करता है, और सबकी तरक्की होती है। यहां हम एक अमरीकी तैराक माइकल फेल्प्स की बात करना चाहेंगे जो तरह-तरह की शारीरिक और मानसिक तकलीफों का शिकार है, लेकिन सामान्य वर्ग से ही ओलंपिक में आता है। उसने अकेले 28 ओलंपिक मैडल जीते हैं जिनमें 23 गोल्ड मैडल हैं, 3 सिल्वर मैडल हैं, और 2 ब्रांज मैडल हैं। आंकड़ों के एक विश्लेषण के मुताबिक माइकल के 23 गोल्ड मैडल दुनिया के एक 162 देशों को अलग-अलग हासिल गोल्ड मैडलों से भी अधिक हैं। मिसाल के तौर पर हिन्दुस्तान को अब तक कुल 10 स्वर्ण पदक मिले हैं, और माइकल फेल्प्स के अकेले ही 23 स्वर्ण पदक हैं। इस तरह किसी खिलाड़ी का विकास तभी हो पाता है, जब बाकी सहूलियतों के साथ-साथ उसे घरेलू मोर्चे पर दूसरे खिलाडिय़ों का भी अच्छा-खासा सामना करना पड़ता है। अमरीका में सिमोन बाइल्स जैसी खिलाड़ी के आगे बढऩे के पीछे भी यही कुछ वजहें हैं, बराबरी के अवसर, खेल की सहूलियतें, और घरेलू मोर्चे पर कड़ा मुकाबला।
हिन्दुस्तान जैसे देशों को अपनी खेल नीतियों के बारे में सोचना चाहिए जहां देश एक अकेले अतिसंपन्न खेल, क्रिकेट के आभामंडल से चकाचौंध होकर बहुत कम सोच पाता है। गिने-चुने खिलाडिय़ों पर दो ओलंपिकों के बीच चार बरस मेहनत होती है, लेकिन ऐसे खिलाडिय़ों की गिनती बढ़ाने का माहौल कम दिखता है। ओलंपिक की खबरों और उसके माहौल के बीच न सिर्फ हिन्दुस्तान बल्कि तमाम देशों को अपने-अपने बारे में सोचना चाहिए, क्योंकि नौजवान पीढ़ी के लिए खेल एक ऐसा काम है जो कि उसे निराशा से लेकर नशे तक, बहुत सी नकारात्मक बातों से परे रखता है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)