संपादकीय
अखबारों में हर सुबह किसी न किसी नाबालिग लडक़ी की ऐसी खबर रहती है कि उसके किसी दोस्त ने प्रेम के नाम पर उसके अंतरंग वीडियो बनाए, तस्वीरें खींचीं, और फिर रिश्ते खराब होने पर, या ब्लैकमेलिंग की नीयत पूरी न होने पर उन्हें सोशल मीडिया पर, पोर्नवेबसाइट पर, या किसी वॉट्सऐप समूह में पोस्ट कर दिया। नाबालिगों के सामने पहाड़ सी लंबी जिंदगी खड़ी रहती है। एक बार हिन्दुस्तानी समाज में उसकी साख इस तरह बर्बाद की जाए, उसे कमजोर चाल-चलन का साबित किया जाए, तो फिर कदम-कदम पर लोग उससे वैसा ही शोषण बर्दाश्त करने की उम्मीद करते हैं। नतीजा यह होता है कि एक सामान्य जिंदगी जीने का उसका हक बुरी तरह चौपट हो जाता है। इससे परे भी बिना निजी संबंधों के भी बलात्कार के वीडियो बनाना एक आम बात हो गई है, और ऐसा करके बालिग या नाबालिग बलात्कारी के मर्दाना अहंकार को तसल्ली मिलती है, और उन्हें लगता है कि बलात्कार का वीडियो दिखाकर उसकी शिकार लडक़ी को शिकायत करने से भी रोका जा सकता है। एक तरह से जो मोबाइल फोन अपने कैमरे की वजह से जुर्म के खिलाफ सुबूत जुटाने में भी मदद करता है, वहीं जुर्म के शिकार को ब्लैकमेल करने के नाम पर इस मोबाइल कैमरे को हथियार की तरह भी इस्तेमाल करना रोजाना की बात हो गई है। ऐसे मामलों में पुलिस जुर्म होने से पहले किसी को नहीं बचा सकती, यह जरूर है कि ऐसे जुर्म की पहली शिकायत या पहली खबर मिलते ही पुलिस को जिस रफ्तार से कार्रवाई करनी चाहिए, पुलिस उतनी दिलचस्पी से कार्रवाई नहीं करती, और मुजरिम दिखने वाले लोगों के साथ इस नरमी की वजहें भी उतनी रहस्यमय नहीं रहतीं, वे सबको समझ पड़ती हैं।
ऐसे में लोगों को अपने नाबालिग बच्चों को पूरे घर के साथ बिठाकर, परिवार के किसी जिम्मेदार और संवेदनशील दोस्त-परिचित को भी बिठाकर जुर्म और उसके खतरों के बारे में खुलासे से समझाना चाहिए। आमतौर पर सेक्स-शोषण से लेकर वीडियो बनाने और ब्लैकमेल करने तक का जुर्म करने वाले अधिकतर बालिग-नाबालिग लडक़े ही रहते हैं। लड़कियां अधिकतर मामलों में ऐसे जुर्म का शिकार रहती हैं। परिवारों को अपने लडक़ों और लड़कियों को किशोरावस्था में पहुंचने के पहले भी अपने साथ बिठाकर ऐसे तमाम खतरों से आगाह करना चाहिए। लड़कियों को बचने के हिसाब से समझाना चाहिए, और लडक़ों को मुजरिम बनने से बचने के लिए। फिर एक बात यह भी है कि नाबालिग लड़कियों को तमाम खतरे सिर्फ लडक़ों से नहीं रहते, कहीं खेल प्रशिक्षक, कहीं स्कूल-कॉलेज के शिक्षक, तो कहीं दोस्त, पड़ोसी, और रिश्तेदार, देहशोषण करने वाले हर शक्ल में मौजूद रहते हैं। इसलिए परिवारों को अपने बच्चों को यह भी सिखाना चाहिए कि किसी भी तरह के रिश्ते में, किसी भी तरह के हालात में कैसी सावधानी बरती जाए। इसके साथ-साथ लडक़ों को यह भी सिखाना चाहिए कि किसी लडक़ी के साथ जुल्म और जुर्म करने पर अगर उसकी तरफ से एक शिकायत हुई, तो कानून कितनी कड़ी कार्रवाई कर सकता है। और उसका नतीजा फिर यह होगा कि ऐसे लडक़ों की बाकी जिंदगी सुधारगृह या जेल से होते हुए आगे बर्बादी की तरफ ही बढ़ेगी, न उन्हें अच्छी पढ़ाई नसीब होगी, न ही कहीं उनकी बुरी शोहरत की वजह से उन्हें कोई काम ही मिलेगा। आज मीडिया और सोशल मीडिया की मेहरबानी से जुर्म साबित होने के पहले ही तस्वीर, नाम-पते, हुलिए सहित हर बालिग पर लगे आरोपों का इतना ढिंढोरा पिट चुका रहता है कि वे भी कहीं मुंह दिखाने लायक नहीं रहते।
निजी स्तर पर होने वाले ऐसे जुर्म का पुलिस की तरफ से कोई बचाव नहीं हो सकता। बंद कमरे में दो बालिग-नाबालिग क्या करते हैं, इस पर भला परिवारों से परे और कौन निगरानी रख सकते हैं? फिर ऐसे संबंधों के साथ ब्लैकमेलिंग से परे सेक्स से जुड़ी बीमारियों, और गर्भ का खतरा भी रहता है, और ऐसे ढेरों मामले पुलिस और अदालतों तक पहुंच रहे हैं, और नाबालिग के साथ सेक्स के मामले में बहुत से लोगों को लंबी-लंबी सजाएं हो रही हैं। अभी कुछ दिन पहले ही हमारे आसपास के 60-70 बरस के आदमी को एक नाबालिग से सेक्स में उम्रकैद हुई है।
भारतीय समाज में बलात्कार के अधिकतर मामले महिलाओं की कमजोर और मर्दों की दबंग स्थिति की वजह से होते हैं। लड़कियों और महिलाओं को जबर्दस्ती करने का सामान मान लिया जाता है, और मर्द यह मानकर चलते हैं कि वे किसी भी लडक़ी या महिला पर हाथ डाल सकते हैं। परिवारों से लेकर समुदाय, समाज, और पूरे देश-प्रदेश तक अगर लडक़े-लडक़ी, और औरत-मर्द की बराबरी की सोच विकसित नहीं होगी, तो फिर देश का धार्मिक-सामाजिक माहौल तो महिलाओं के खिलाफ है ही। नतीजा यह होता है कि कुछ लोग लडक़ी और महिला को सेक्स-शोषण का सामान ही मानकर चलते हैं। जिस दिन समाज में महिला के बराबरी के हक की सोच विकसित हो जाएगी, बलात्कार अपने-आप कम हो जाएंगे। बलात्कार सिर्फ सेक्स-सुख के लिए नहीं होते, बल्कि बलात्कार तो जितनी हिंसा के साथ होते हैं, उसमें सुख की गुंजाइश कम रहती है। बलात्कार मोटेतौर पर मर्दानगी हिंसा के साथ होते हैं, और उसी का प्रदर्शन करने के लिए भी होते हैं। न सिर्फ सेक्स-गुनाह के मामलों में, बल्कि रोजाना के जिंदगी के आम बर्ताव को लेकर भी महिला के प्रति बराबरी की भावना और सम्मान का व्यवहार लाना जरूरी है, और इसमें कानून, पुलिस, अदालत, या सरकार बहुत मदद नहीं कर सकते। यह सिलसिला परिवार के भीतर से शुरू हो सकता है, समुदाय, और समाज इसे आगे बढ़ा सकते हैं, और देश-प्रदेश में ऐसी जागरूकता का माहौल बन सकता है। फिलहाल जब तक ऐसी आदर्श स्थिति की तरफ चार कदम आगे नहीं बढ़ते हैं, तब तक मां-बाप को अपने बेटे-बेटियों को सावधानी सिखानी चाहिए, दोनों के ऊपर खतरे अलग-अलग किस्म के हैं, लेकिन सावधानी का मिजाज तो हर तरह के खतरों से बचने में मदद करता है।